आंवला की व्यापारिक खेती पैदावार तथा भंडारण।
आंवला एक महत्वपूर्ण व्यापारिक तथा बहुवर्षीय फल वृक्ष है। यह औषधीय गुण व पोषक तत्वों से भरपूर प्रकृति की एक अभूतपूर्व देन है। आंवला के फलो में विटामिन सी, कैल्शियम, फास्फोरस, पोटेश्यिम व शर्करा प्रचुर मात्रा में पायी जाती है।
इसके फलों का खाद्य तथा अन्य व्यापारिक कार्यों में उपयोग किया जाता है। इसका खाद्य पदार्थ जैसे मुरब्बा, स्कवैश, अचार, कैण्डी, जूस, जैम आदी बनाने में किया जाता है।
औषधीय उत्पाद में आयुर्वेदिक दवाईयां जैसे त्रिफला चूर्ण, च्यवनप्राश, अवलेह आदि। सौन्दर्य सामग्री जैसे आंवला केश तेल, चूर्ण, शेम्पू इत्यादि बनाने में किया जाता है।
आंवला के पेड़ों पर दो प्रकार के शाखाएं होती है। सीमित तथा असीमित, सीमित शाखाओं पर ही पुष्पन व फलन होता है। पुराने सीमित प्ररोह प्रतिवर्ष मार्च से अप्रेल में गिर जाते हैं व इसके बाद नये सीमित प्ररोह निकलते हैं जिन पर उसी समय फूल लगते हैं।
आंवला के पेड़ों पर दो प्रकार के शाखाएं होती है। सीमित तथा असीमित, सीमित शाखाओं पर ही पुष्पन व फलन होता है। पुराने सीमित प्ररोह प्रतिवर्ष मार्च से अप्रेल में गिर जाते हैं व इसके बाद नये सीमित प्ररोह निकलते हैं जिन पर उसी समय फूल लगते हैं।
आंवला
उपयुक्त जलवायु:- आंवला एक शुष्क उपोष्ण क्षेत्र अर्थात जहाँ सर्दी तथा गर्मी दोनो पड़ते हों में उगाया जाने वाला पौधा है। विकसित किस्मों की मदद से इसकी खेती उष्ण जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है।
भारत में इसकी खेती समुद्र तल से 1800 मीटर ऊँचाई वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। पाले का आंवले पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। एक पूर्ण विकसित आंवले का वृक्ष 0 से 46 डिग्री सेंटीग्रेड तक तापमान सह सकता है।
गर्म वातावरण, पुष्प कलिकाओं के निकलने के लिए सहायक, जुलाई से अगस्त माह में अधिक आर्द्रता का वातावरण सुसुप्त छोटे फलों की वृद्धि में सहायक होता है।
भूमि का चयन:- आंवला एक सहिष्णु फल है यह हर प्रकार में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। उर्वरा बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम पायी गई है। बंजर, कम अम्लीय तथा उसर में भी इसकी खेती सम्भव है।
खेत की तैयारी:- आंवला की खेती के लिए भूमि में 7.5 से 9.5 मीटर की दूरी पर 1.25 से 1.50 मीटर आकर के गड्ढे खोद लेना चाहिए। नमी न होने पर बरसात के मौसम में इन गड्ढो में पानी भर देना चाहिए।
प्रत्येक गड्ढे में 55 से 65 किलोग्राम गोबर की खाद 20 से 25 किलोग्राम बालू 7 से 10 किलोग्राम जिप्सम मिलाकर 70 से 125 ग्राम क्लोरोपाईरीफास धूल से भरनी चाहिए। गड्ढे भरने के 15 से 20 दिन बाद पौधे का रोपण करें।
सामान्य भूमि खाद की मात्रा अलग होती है। 40 से 50 किलोग्राम गली सड़ी गोबर की खाद के साथ 100 ग्राम नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश का मिश्रण मिलाना चाहिए।
300 से 500 ग्राम नीम की खली साथ में 100 से 150 ग्राम क्लोरोपाईरिफास पाउडर मिलाकर जमीन की सतह से 10 से 15 सेंटीमीटर ऊँचाई तक भरें। इसके 15 से 20 दिन बाद ही पौधे का रोपण करें।
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आंवला की उन्नत किस्में एवं पौध रोपण।
उन्नत किस्में
पूर्व में आंवला की तीन प्रमुख पारंपरिक किस्में बनारसी, फ्रान्सिस एवं चकैइया हुआ करती थीं। इन किस्मों की अपनी खूबियाँ एवं कमियाँ रही हैं।
पारम्परिक किस्मों की समस्याओं के निदान हेतु कृषि संस्थाओं ने कुछ नयी किस्मों का विकास किया है। जैसे- कृष्णा (एन ए- 5), नरेन्द्र- 9 (एन ए- 9), कंचन (एन ए- 4), नरेन्द्र- 7 (एन ए- 7) और नरेन्द्र- 10 (एन ए- 10) आदि प्रमुख है।
बीज निकालना:- उत्तर भारत में बीज निकालने के लिए देशी किस्मों का चयन किया जाता है। जनवरी -फरवरी माह में फलों को एकत्र करके धूप में सूखा लिया जाता है। पूरी तरह से सूखने के बाद फल अपने आप फट जाते है तथा उनके अन्दर से बीज बाहर आ जाता है।
बीज का जमना:- बोने से 12 घंटे पहले बीज को पानी में भिगो देना चाहिए। जो बीज पानी में पूरी तरह डूब जाए उसी को जमाना चाहिए।
मार्च-अप्रैल के महीने में बीजों को जमीन की सतह से थोड़ी उठी हुई क्यारियों में बोये। पाली हाउस में बीजों को जल्दी भी बो सकते है। बुआई के बाद 35 से 40 दिनों में 10 सेंटीमीटर ऊँचे पौधे तैयार हो जाते हैं।
इस पौध को खोद कर तीन दिनों तक छाया में रखें। इसके बाद पुनः लगाने से अधिकांश पौधे स्थापित हो जाते है। कलिकायन की सफलता एवं क्षमता को देखते हुए आंवला प्रवर्धन हेतु कलिकायन विधि सर्वोत्तम पायी गयी है।
फलन वाले वृक्षों में काट-छांट की आवश्यकता नहीं होती है। फिर भी उचित विकास के लिए कमजोर, सूखी, रोग ग्रस्त, टूटी हुई, आपस में मिली हुई शाखाओं एवं मुलवृत्त से निकली हुई कलिकाओं को समय-समय पर निकालते रहें।
आंवला की खेती
पौध रोपण:- कलम बंधन या कलिकायन विधि के द्वारा तैयार पौधों को जुलाई से अगस्त अथवा फरवरी के महीने में 8-10 मीटर की दूरी पर रोपाई करते हैं।
बागवानी के खाली पड़े क्षेत्र का भी सही उपयोग बेर, अमरूद, नींबू, करौंदा एवं सहजन को पूरक पौधों के रूप में लगाकर कर सकते है।
छंटाई:- आंवला के पौधों को मध्यम ऊँचाई तक विकसित करने हेतु प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। नये पौधों को जमीन की सतह से लगभग 75 सेंटीमीटर से एक मीटर तक अकेले बढ़ने दे।
इसके बाद शाखाओं को निकालते रहें ताकि पौधों के ढाँचे का विकास भले प्रकार से हो सके। पौधों को रूपान्तरित प्ररोह प्रणाली के अनुसार साधना चाहिए।
शुरू में अधिक कोण वाली दो से चार शाखाएं विपरीत दिशाओं में निकलने देना चाहिए, अनावश्यक शाखाओं को शुरू में निरन्तर हटाते रहना चाहिए।
फलन वाले वृक्षों में काट-छांट की आवश्यकता नहीं होती है। फिर भी उचित विकास के लिए कमजोर, सूखी, रोग ग्रस्त, टूटी हुई, आपस में मिली हुई शाखाओं एवं मुलवृत्त से निकली हुई कलिकाओं को समय-समय पर निकालते रहें।
खाद एवं उर्वरक:- आंवला के पोषण को ध्यान में रखते हुए खाद की मात्रा मुख्य रूप से मृदा उर्वरकता, पौधों की आयु एवं उत्पादन पर निर्भर करती है।
अनुभव के आधार पर खाद एवं उर्वरक जैसे- नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश तथा गोबर की खाद पौधे की आयु के अनुरूप देना चाहिए।
एक वर्ष के पौधे के लिए क्रमसः 100 ग्राम 50 ग्राम 100 ग्राम तथा 5 किग्रा दें। पौधा 2 वर्ष का हो तो प्रत्येक मात्रा को 2 से गुना करें और 3 वर्ष के होने पर क्रमसः 3 से 10 वर्षो तक ये मात्रा देते रहें।
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सिंचाई प्रबंधन एवं किट रोकथाम।
सिंचाई प्रबंधन:- आंवला के पौधे को सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है। एक पूर्ण विकसित आंवले के बाग में सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती है। वर्षा आधारित जल से ही सिंचाई की आवश्यकता पूरी हो जाती है।
पलावर (मल्चिंग):- आंवला के बाग में जैविक पदार्थों द्वारा अवरोध परत करने से अच्छे परिणाम मिलते हैं। इसके लिए विभिन्न प्रकार के पदार्थ जैसे पुवाल, केले के पत्ते, ईख की पत्ती एवं गोबर की खाद आदि का उपयोग किया जाता है। जैविक पदार्थ मल्चिंग करने से खरपतवार भी नियंत्रित रहते हैं।
अन्तर्वती फसलें:- आँवले में 4 महीनें पत्ते नहीं होते तथा पत्ते होते भी हैं तो छरहरे जिससे पर्याप्त सूर्य की रौशनी आ सके फलस्वरूप सहफसली खेती की अनेक सम्भावनायें हैं।
फलों में अमरूद, करौंदा, सहजन एवं बेर, सब्जियों में लौकी, भिण्डी, फूलगोभी, धनिया, फूलों में ग्लैडियोलस तथा गेंदा एवं अन्य औषधिय और सुगंधित पौधे आंवला के साथ सहफसली खेती के रूप में काफी उपयुक्त पाये गये हैं।
इसके अलावा तुलसी, कालमेघ, सतावर, सर्पगन्धा एवं अश्वगंधा की सह फसली खेती के भी अच्छे नतीजे प्राप्त हुए हैं। रोग रोकथाम:- आवंला की खेती या बागों में उतक क्षय रोग और रस्ट बीमारी की संभावना होती है। इनके नियंत्रण के लिए 0.4 से 0.5 प्रतिशत बोरेक्स का छिडकाव पहला अप्रैल में दूसरा जुलाई में और तीसरा सितम्बर में 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए।
किट रोकथाम:- आंवला के बाग में छाल खाने वाले, पत्ती खाने वाले, गांठ बनाने वाला, माहू और शूटगाल मेकर कीट प्रमुख है। रोकथान हेतु छाल वाले कीट के लिए मेटासिसटाक्स और 10 भाग मिटटी का तेल मिलकर रुई भीगोकर तना के छिद्रों में डालकर चिकनी मिटटी से बन्द कर दे। पत्ती कीट के लिए 0.5 मिली लीटर फ़स्फ़ोमिडान प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।
परिपक्वता, तुड़ाई, पैकिंग और भण्डारण।
तुड़ाई के समय हीं फल की परिपक्वता, उसकी गुणवत्ता और भण्डारण क्षमता का निर्धारण करती है। फलों को हाथ के द्वारा तोड़ा जाता है तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए की चोटिल या खरोंच न लगे। चोटिल फलों में भूरे या काले रंग के धब्बे बन जाते हैं।
परिपक्वता:- आंवला के फलों की परिपक्वता अनेक कारकों पर निर्भर करती है। सामान्यतः बनारसी एवं कृष्णा किस्मों में परिपक्वता फल लगने के 17 से 18 सप्ताह बाद आती है, जबकि कंचन तथा फ्रांसिस में 20 सप्ताह का समय लगता है।
तुड़ाई:- आंवला के फलों की तुड़ाई हाथ से करते हैं फलों को तोड़ते समय जमीन में नहीं गिरने दे। चोटिल फल पैकिंग एवं भण्डारण के समय सड़ कर अन्य फलों को भी नुकसान पहुँचाते हैं।
पैदावार:- आंवले की फलन को कई कारक प्रभावित करते है एक पूर्ण विकसित आंवले का वृक्ष एक से तीन क्विंटल फल देता है, इस प्रकार से 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर है।