विज्ञान लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
विज्ञान लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 15 सितंबर 2024

जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं 'नमक' का सेवन

जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं 'नमक' का सेवन 

सरस्वती उपाध्याय 
नानी की सुनाई कहानी में एक राजकुमारी का बखान था। जिसके पिता ने एक बार उससे पूछा कि दुनिया में उसे सबसे प्यारा कौन है ? जाहिर है, कि पिता लाडली के मुख से अपना नाम सुनना चाहता था। जब बिटिया ने जवाब दिया नमक, तो राजा नाराज हो गया और उसने बेटी को नजरों से दूर रहने का हुक्म सुना दिया। बरसों बाद जब वैध के आदेशानुसार उसे बिना नकम का फीका खाना खाने को मजबूर होना पड़ा। तब उसे नमक की कीमत समझ आई। 
बहरहाल, बोल-चाल की भाषा में नमक हलाली और नमक हरामी जैसे मुहावरे खान-पान में नमक का महत्व स्वीकार करते हैं। नमक के साथ सौंदर्य का अंतरंग संबंध सूरत के नमकीन होने जैसे प्रचलित मुहावरों से स्पष्ट होता है। यही बात लवण और लावण्य जैसे शब्दों से भी झलकती है।

नमक का जीवन में महत्व

नमक न केवल बुनियादी स्वाद है, बल्कि मीठे की तरह हमारे जीवित रहने के लिए भी जरूरी है। इसका रासायनिक नाम है सोडियम क्लोराइड है, जो हमारे मस्तिष्क में अति सूक्ष्म विद्युत प्रक्रियाओं को संचालित करता है। इसके अलावा, हमारे शरीर में जल संचय-संतुलन बनाए रखने में भी अहम भूमिका निभाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि धरती पर जीवन नमकीन जल वाले महासागर में ही प्रकट हुआ था, इसीलिए हमारे जीवन का आधार नमक है। बाइबिल की एक विचारोत्तेजक पंक्ति है- यदि धरती ही अपना नमक गंवा दें, तब फिर बचता ही क्या है ? गर्मी के मौसम में जब पसीने के साथ हमारे शरीर से नमक बह निकलता है, तो जीवन संकटग्रस्त हो जाता है। यही स्थिति पेचिश के रोग में जलाभाव से या आंव में उत्पन्न होती है। इसका उपचार सलाइन यानि नमक का घोल चढ़ाकर या नमक-चीनी के मिश्रण से ओरल रिहाइड्रेशन थेरेपी के जरिए तत्काल किया जाता है। रक्तचाप के रोगियों या क्षतिग्रस्त गुर्दे वालों को नमक से परहेज करना पड़ता है पर फिर भी कम सोडियम वाले नमक का नुस्खा अपनाना पड़ता है। 
नमक सिर्फ स्वाद नहीं, बल्कि बेहतरीन कुदरती संरक्षक भी है- चीनी की ही तरह। दुनियाभर में हजारों साल से मनुष्य सब्जियों को ही नहीं, मांस-मछली को भी नमक से पका कर बेमौसम इसका आनंद लेता रहा है। नमक सागर के जल के वाष्पीकरण से प्राप्त होता है और जहां इसे चट्टान काटकर निकाला जाता है। वहां भी कभी समुद्र या खारे जल की बड़ी झील सागर के अवशेष में ही इसका स्त्रोत रहा होगा। सदियों से नमक का व्यापार अंतरराष्ट्रीय व्यापार को प्रेरित करता रहा है और निर्मम शाकर पराजित विपक्षियों को नमक खदानों में नारकीय जीवन बिताने के लिए निर्वासित करते रहे हैं।

नमक का कई तरीकों से इस्तेमाल

जख्मों पर नमक छिड़कने वाली लोकोक्ति यह दर्शाती है कि नमक का दुरुपयोग भी संभव है। व्रत उपवास के दिन नमक से परहेज करने का विधान है। लेकिन, सेंधा नमक समुद्री नक से फर्क रखता है और शाकाहार के लिए उपयुक्त समझा जाता है। गंधक की गंध वाले काले नमक का इस्तेमाल वह लोग भी बेहिचक कर सकते हैं, जो लहसुन को तामसिक पदार्थ मान इसे वर्जित समझते हैं। आयुर्वेद में मसाले मिलाकर इसका औषधीय प्रयोग किया जाता रहा है- मिसाल के तौर पर लवण भास्कर जैसे नुस्खों में। दाडिमाष्टक और हिंगाष्टक जैसे चूर्ण भी नमक आधारित हैं। आम आदमी के लिए नमक की अहमियत को जानकर ही बापू ने अंग्रेजों को अहिंसक ढंग से ललकारने के लिए नमक सत्याग्रह शुरू किया था।

मृत्यु के बाद दिमाग की गतिविधियों को चलाया

मृत्यु के बाद दिमाग की गतिविधियों को चलाया 

अखिलेश पांडेय 
वाशिंगटन डीसी। वैज्ञानिकों ने एक सूअर के दिमाग की कोशिकीय गतिविधियों को उसकी मौत के कई घंटों बाद चलाए रखने में सफलता पाई है। इस कामयाबी के बाद अब एक सवाल उठा है कि वो क्या है, जो जानवर या फिर इंसान को जिंदा बनाए रखता है ? रिसर्च करने वाले अमेरिका के वैज्ञानिकों का कहना है कि एक दिन इस नई खोज का उपयोग दिल का दौरा झेलने वाले मरीजों के इलाज और मानसिक आघात के रहस्यों को समझने में किया जा सकेगा। 
इंसान और बड़े स्तनधारियों के दिमाग की नसों की गतिविधि के लिए जरूरी कोशिकाओं की सक्रियता रक्त का प्रवाह बंद होने के साथ ही रुकने लगती हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे लौटाया नहीं जा सकता। एक नई स्टडी के नतीजे बता रहे हैं कि सूअरों के दिमाग में रक्त के प्रवाह और कोशिकाओं की गतिविधि को मौत के कई घंटों बाद भी बहाल किया जा सकता है। अमेरिकी रिसर्च प्रोग्राम के तहत चल रहे एनआईएच ब्रेन इनिशिएटिव के वैज्ञानिकों की टीम ने 32 सूअरों के दिमाग का इस्तेमाल किया। इन सूअरों को खाने के लिए मार दिया गया था और इनके दिमाग को चार घंटे तक बगैर ग्लूकोज या खून के प्रवाह के रखा गया था। इसके बाद एक टिश्यू सपोर्ट सिस्टम का इस्तेमाल कर खून जैसे एक तरल को इनके अंगों से बहाया गया। इसके बाद इनके दिमाग में अगले छह घंटे तक तरल का बहाव बना रहा। 
इसके नतीजे हैरान करने वाले रहे। जिन दिमागों को कृत्रिम रक्त मिला उनकी कोशिकाओं की बुनियादी सक्रियता फिर से चालू हो गई। उनके रक्त वाहिनियों का संरचना फिर से जीवित हो उठी वैज्ञानिकों ने कुछ स्थानीय प्रक्रियाओं को भी देखा। इनमें प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया भी शामिल है।
इस रिसर्च रिपोर्ट के प्रमुख लेखकों में शामिल नेनाद सेस्तान येल यूनिवर्सिटी के रिसर्चर हैं। उनका कहना है, “हम लोग हैरान रह गए कि कितनी अच्छी तरह से यह संरचना संरक्षित हुई। हमने देखा कि कोशिकाओं की मौत में कमी आई। जो बहुत उत्साह और उम्मीद जगाने वाला है। असल खोज यह रही कि दिमाग में कोशिकाओं की मौत जितना हमने पहले सोचा था, उससे कहीं ज्यादा समय के बाद होती है।” वैज्ञानिकों ने जोर दे कर कहा है कि उन्होंने “उच्च स्तर की व्यवहारिक सक्रियता” देखी है। जैसे कि विद्युतीय संकेत जो पुनर्जीवित मस्तिष्क में चेतना से जुड़ी है। 
सेस्तान का कहना है, “यह संकेत है कि दिमाग जिंदा है और हमने ऐसा पहले कभी नहीं देखा। यह जीवित दिमाग नहीं है बल्कि कोशिकीय सक्रिय दिमाग है।” इस रिसर्च से पता चलता है कि वैज्ञानिकों ने किसी मरीज को दिमागी रूप से मरा हुआ घोषित करने के बाद उसके दिमाग की खुद से पुनर्जीवित होने की क्षमता को बहुत महत्व नहीं दिया। हालांकि, इस रिसर्च पर प्रतिक्रिया देने के लिए बुलाए गए विशेषज्ञों ने सैद्धांतिक और नैतिक सवाल भी उठाए हैं। ड्यूक यूनिवर्सिटी में कानून और दर्शन की प्रोफेसर नीता फाराहानी ने लिखा है कि इस रिसर्च ने “लंबे समय से जीवन को लेकर चली आ रही समझ पर यह सवाल उठाया है कि किसी जानवर या इंसान को जिंदा कौन बनाता है।” उनका कहना है कि रिसर्चरों ने अनजाने में नैतिक रूप से एक दुविधा की स्थिति बना दी है। जहां प्रयोग में इस्तेमाल किए गए सूअर “जीवित नहीं थे लेकिन पूरी तरह से मरे भी नहीं थे।” ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में मेडिकल एथिक्स के प्रोफेसर डोमिनिक विल्किंसन का कहना है कि इस रिसर्च का भविष्य में दिमाग पर होने वाले रिसर्च पर काफी प्रभाव होगा। उन्होंने कहा “यह रिसर्च हमें बताता है कि “मृत्यु” किसी एक घटना से ज्यादा एक प्रक्रिया है, जो समय के साथ होती है। मानव अंगों के अंदर की कोशिकाएं भी शायद इंसान के मौत के बाद कुछ समय तक जीवित रहती होंगी।” 

सोमवार, 5 अगस्त 2024

पृथ्वी से दूर हो रहा चंद्रमा, 25 घंटों का 1 दिन होगा

पृथ्वी से दूर हो रहा चंद्रमा, 25 घंटों का 1 दिन होगा 

सरस्वती उपाध्याय 
अभी एक दिन का मतलब 24 घंटे थें। वहीं, अब यह एक घंटे बढ़ कर 25 घंटों का एक दिन होने वाला है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अब पृथ्वी पर एक दिन का मतलब 25 घंटे हो सकता है, क्योंकि चंद्रमा लगातार हमसे दूर होता जा रहा है। विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार, चंद्रमा प्रति वर्ष लगभग 3.8 सेंटीमीटर की दर से पृथ्वी से दूर होता जा रहा है।
अध्ययन में बताया गया है कि चंद्रमा पृथ्वी से लगभग 3.8 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से दूर जा रहा है। जिसका हमारे ग्रह पर दिनों की लंबाई पर बहुत वास्तविक प्रभाव पड़ेगा। अंततः इसका परिणाम यह होगा कि 200 मिलियन वर्षों में पृथ्वी पर दिन 25 घंटे तक चलेगा। अध्ययन से पता चलता है कि 1.4 बिलियन वर्ष पहले, पृथ्वी पर एक दिन 18 घंटे से थोड़ा अधिक समय तक चलता था।

पृथ्वी और चंद्रमा के बीच गुरुत्वाकर्षण बल

विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग के प्रोफेसर स्टीफन मेयर्स का सुझाव है कि पृथ्वी और चंद्रमा के बीच गुरुत्वाकर्षण संबंध इसका मुख्य कारण हो सकता है। मेयर्स ने कहा कि जैसे-जैसे चंद्रमा दूर होता जाता है, पृथ्वी एक घूमते हुए फिगर स्केटर की तरह होती है जो अपनी बाहें फैलाते ही धीमी हो जाती है। प्रोफेसर ने आगे कहा कि वे समय बताने में सक्षम होने के लिए ‘एस्ट्रोक्रोनोलॉजी’ का उपयोग करने का लक्ष्य बना रहे हैं। मेयर ने कहा कि हम उन चट्टानों का अध्ययन करने में सक्षम होना चाहते हैं, जो अरबों साल पुरानी हैं, जिस तरह से हम आधुनिक भूगर्भीय प्रक्रियाओं का अध्ययन करते हैं।

चांद का पीछे हटना कोई नई बात नहीं 

जबकि चंद्रमा के पीछे हटने का सिद्धांत मनुष्य को वर्षों से ज्ञात है। विस्कॉन्सिन अनुसंधान का उद्देश्य इस घटना के ऐतिहासिक और भूवैज्ञानिक संदर्भ में गहराई से जाना है। शोधकर्ता प्राचीन भूवैज्ञानिक संरचनाओं और तलछट परतों की जांच करके अरबों वर्षों में फैले पृथ्वी-चंद्रमा प्रणाली के इतिहास को ट्रैक करने में सक्षम हैं।
निष्कर्षों से पता चला है कि चंद्रमा की वर्तमान गति अपेक्षाकृत स्थिर रही है। हालांकि, विभिन्न कारकों के कारण भूगर्भीय समय-सीमाओं में इसमें उतार-चढ़ाव होता रहा है। पृथ्वी की घूमने की गति और महाद्वीपीय बहाव को प्रमुख कारणों के रूप में पहचाना गया है।

रविवार, 30 जून 2024

2040 तक इंसान को चांद पर भेजेगा 'भारत'

2040 तक इंसान को चांद पर भेजेगा 'भारत' 

इकबाल अंसारी 
नई दिल्ली। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) एक बार फिर से अपने विज्ञान और तकनीक के अद्वितीय कारनामों से दुनिया को चौंकाने की तैयारी में है। इसरो के अध्यक्ष एस. सोमनाथ ने हाल ही में एक इंटरव्यू में बताया कि भारत 2040 तक इंसान को चांद पर भेजने की दिशा में तेजी से कार्य कर रहा है।
उन्होंने बताया कि यह मिशन चंद्रयान मिशनों की एक अहम कड़ी होगी, जो भारत को अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक नई ऊंचाई पर ले जाएगा।

चंद्रयान-4 लाएगा चंद्रमा से नमूने

पिछले साल, इसरो ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के निकट चंद्रयान-3 को सफलतापूर्वक उतार कर इतिहास रच दिया था। यह उपलब्धि न केवल भारत के अंतरिक्ष मिशनों में मील का पत्थर साबित हुई, बल्कि दुनिया भर में इसरो की वैज्ञानिक क्षमता और तकनीकी कौशल की सराहना भी हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चंद्रयान-3 की लैंडिंग साइट का नाम 'शिव शक्ति' रखा, जो अब इसरो के आगामी चंद्र मिशनों का एक महत्वपूर्ण बिंदु बनेगा।
एनडीटीवी को दिए एक इंटरव्यू में एस. सोमनाथ ने बताया कि इसरो का लक्ष्य 'शिव शक्ति' प्वाइंट से अगले कुछ वर्षों में चंद्र नमूने को पृथ्वी पर लाना है। इसरो के इस मिशन का उद्देश्य चंद्रमा की संरचना और उसके रहस्यों को और गहराई से समझना है। उल्लेखनीय है कि इससे पहले चीन ने भी सफलतापूर्वक चंद्रमा से नमूने वापस लाने में सफलता प्राप्त की थी, और अब भारत भी इस दिशा में आगे बढ़ रहा है।

2040 तक चांद पर पहुंचेंगे भारतीय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2040 तक चांद पर इंसान को भेजने के आह्वान पर एस. सोमनाथ ने कहा, "हमें चांद पर उतरने के लिए कई चीजों में निरंतरता बनाए रखनी होगी, जिसमें मानव अंतरिक्ष उड़ान और ट्रांस-लूनर मानव अंतरिक्ष उड़ान शामिल हैं। हमें चंद्रयान मिशनों को जारी रखना होगा क्योंकि चांद पर जाना और वापस आना भी हमारी पहुंच में हो। हमें एक ऐसे स्तर तक पहुंचना होगा जहां शायद हमारे लोग चांद पर जा सकें और वापस आ सकें।"
इसरो के अध्यक्ष के अनुसार, चंद्रमा पर भारतीयों को भेजने के लिए कई तकनीकी और वैज्ञानिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसके लिए अत्याधुनिक अंतरिक्ष यान, जीवन रक्षक प्रणाली, और चंद्रमा पर सुरक्षित लैंडिंग की तकनीक विकसित करनी होगी। इसके अलावा, अंतरिक्ष यात्री के स्वास्थ्य और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न परीक्षण और अनुसंधान भी आवश्यक होंगे।

इसरो ने लहराया था परचम

इसरो की इस महत्वाकांक्षी योजना ने भारत के अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक नई उमंग और उत्साह भर दिया है। यह मिशन न केवल भारत के वैज्ञानिक समुदाय के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए गर्व और प्रेरणा का स्रोत बनेगा। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की यह नई दिशा न केवल चांद की सतह पर भारतीयों की उपस्थिति सुनिश्चित करेगी, बल्कि अंतरिक्ष अन्वेषण में भारत को विश्व गुरु बनने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

रविवार, 16 जुलाई 2023

बुढ़ापे को जवानी में बदला, रसायनों की खोज 

बुढ़ापे को जवानी में बदला, रसायनों की खोज 

डॉक्टर सुभाषचंद्र गहलोत 

वाशिंगटन डीसी/न्यूयॉर्क। अमेरिकी शोधकर्ताओं ने एक अभूतपूर्व अध्ययन में बुढ़ापा और बुढ़ापे से संबंधित बीमारियों के खिलाफ लड़ाई में एक महत्‍वपूर्ण मुकाम हासिल किया है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल और मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने कोशिकाओं को युवा अवस्था में पुन: प्रोग्राम करने वाले रसायनों की खोज की है। पहले, यह केवल शक्तिशाली जीन थेरेपी का उपयोग करके ही संभव था। जर्नल एजिंग-यूएस में प्रकाशित निष्कर्ष, इस खोज पर आधारित है कि विशिष्ट जीन की अभिव्यक्ति, जिसे यामानाका कारक कहा जाता है, वयस्क कोशिकाओं को प्रेरित प्लुरिपोटेंट स्टेम सेल (आईपीएससी) में परिवर्तित कर सकती है। इस खोज ने, जिसने 2012 में नोबेल पुरस्कार जीता, यह सवाल उठाया कि क्या कोशिकाओं को बहुत युवा और कैंसरग्रस्त बनाए बिना सेलुलर उम्र बढ़ने को उलटना संभव हो सकता है। 

नए अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने उन अणुओं की जांच की, जो संयोजन में, कोशिकाओं की उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को उलट सकते हैं और मानव कोशिकाओं को फिर से जीवंत कर सकते हैं। उन्होंने युवा कोशिकाओं को पुरानी और वृद्ध कोशिकाओं से अलग करने के लिए उच्च-थ्रूपुट सेल-आधारित परख विकसित की, जिसमें ट्रांसक्रिप्शन-आधारित उम्र बढ़ने वाली घड़ियां और एक रियल टाइम न्यूक्लियोसाइटोप्लाज्मिक प्रोटीन कंपार्टमेंटलाइज़ेशन (एनसीसी) परख शामिल है। रोमांचक खोज में, टीम ने छह रसायनों के मिश्रण की पहचान की जो एनसीसी और जीनोम-वाइड ट्रांसक्रिप्ट प्रोफाइल को युवा अवस्था में पुन: बहाल करते हैं और एक सप्ताह से भी कम समय में ट्रांसक्रिप्टोमिक उम्र को उलट देते हैं।

 हार्वर्ड में जेनेटिक्स विभाग के प्रोफेसर और प्रमुख वैज्ञानिक डेविड ए. सिंक्लेयर ने कहा, "हाल ही तक, हम जो सबसे अच्छा काम कर सकते थे, वह धीमी गति से उम्र बढ़ना था। नई खोजों से पता चलता है कि अब हम इसे उलट सकते हैं।" 

उन्होंने कहा, "इस प्रक्रिया के लिए पहले जीन थेरेपी की आवश्यकता होती थी, जिससे इसका व्यापक उपयोग सीमित हो गया था।" हार्वर्ड के शोधकर्ताओं ने पहले दिखाया था कि कोशिकाओं में विशिष्ट यामानाका जीन को वायरल रूप से पेश करके अनियंत्रित कोशिका वृद्धि के बिना सेलुलर उम्र बढ़ने को उलटना वास्तव में संभव है। ऑप्टिक तंत्रिका, मस्तिष्क ऊतक, गुर्दे और मांसपेशियों पर किए गए अध्ययनों से आशाजनक परिणाम सामने आए हैं। 

चूहों में बेहतर दृष्टि और विस्तारित जीवनकाल देखा गया है और हाल ही में बंदरों में बेहतर दृष्टि की एक रिपोर्ट आई है। इस नई खोज के निहितार्थ दूरगामी हैं, जिससे पुनर्योजी चिकित्सा और संभावित रूप से पूरे शरीर के कायाकल्प के रास्ते खुल रहे हैं। जीन थेरेपी के माध्यम से उम्र में बदलाव के लिए एक रासायनिक विकल्प विकसित करके, यह शोध उम्र बढ़ने, चोटों और उम्र से संबंधित बीमारियों के उपचार में क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है और विकास में कम लागत और कम समयसीमा की संभावना प्रदान करता है।

 अप्रैल 2023 में बंदरों में अंधापन को उलटने में सकारात्मक परिणामों के बाद उम्र पलटने वाली जीन थेरेपी के इंसानों पर क्‍लीनिकल ​​परीक्षणों की तैयारी प्रगति पर है। हार्वर्ड की टीम एक ऐसे भविष्य की कल्पना करती है जहां उम्र से संबंधित बीमारियों का प्रभावी ढंग से इलाज किया जा सके, चोटों का अधिक कुशलता से उपचार किया जा सके और पूरे शरीर के कायाकल्प का सपना वास्तविकता बन सके। सिनक्लेयर ने कहा, "यह नई खोज एक ही गोली से बुढ़ापे को उलटने की क्षमता प्रदान करती है, जिसमें आंखों की रोशनी में सुधार से लेकर उम्र से संबंधित कई बीमारियों का प्रभावी ढंग से इलाज करने तक के अनुप्रयोग शामिल हैं।"

रविवार, 18 जून 2023

आम के रंग जैसी 'पफर फिश' का वीडियो वायरल

आम के रंग जैसी 'पफर फिश' का वीडियो वायरल


डॉक्टर सुभाषचंद्र गहलोत 

समुद्र के नीचे का संसार या पानी में बसी दुनिया में इतने अजूबे हैं कि गिनती नहीं की जा सकती। हर बार जब आप ये सोचें कि अब तो हर वॉटर एनिमल की जानकारी मिल चुकी है। तब कोई ऐसा जीव दिखाई देता है या वायरल हो जाता है, जिसे देखकर यकीन करना मुश्किल होता है कि दुनिया में ऐसे भी अजूबे जीव हैं। ट्विटर पर ऐसी ही एक पफर फिश का वीडियो वायरल हो रहा है। जिसे देखकर लोग हैरान रह गए।

गुब्बारे जैसी फूली फिशट्विटर हैंडल Massimo ने पफर फिश का एक वीडियो शेयर किया है। पफर फिश का नाम सुनकर आपको ये अंदाजा हो ही गया होगा कि ये एक ऐसी फिश है, जो खुद में पानी भरकर फूल कर कुप्पा हो जाती है। दरअसल ये इस फिश का डिफेंस मैकेनिज्म होता है। जो इसे बाकी मछलियों से बिलकुल अलग बनाता है। ऐसी ही एक पीली पफर फिश का वीडियो तेजी से वायरल है‌। पफर फिश का रंग बिलकुल पके हुए आम के छिलके की तरह पीला है। शुरुआत में इसे पानी में बहता देख ऐसा लगता है कि आम के ही आंख, मुंह और कान निकल आए हैं। जब इसे पानी से बाहर निकाला जाता है, तब ये अहसास होता है, कि ये पीले रंग की एक पफर फिश है। इस फिश को गोल्डन पफर फिश भी कहा जाता है। 

जिसका साइंटिफिक नाम है। यूजर्स के मजेदार रिएक्शनइस फिश का वीडियो देख ट्विटर यूजर्स ने खूब मजेदार रिएक्शन दिए हैं। एक यूजर ने लिखा कि उसे लगा ये पानी में तैरता आम है, तो एक यूजर को ये बड़े से नींबू जैसा लगा। हालांकि कुछ यूजर्स वीडियो बनाने वाले से नाराजगी भी जाहिर कर रहे हैं। उनकी नाराजगी एक मछली को परेशान करने को लेकर है।

शनिवार, 10 जून 2023

वैज्ञानिकों ने अटलांटिस मैफिस पहाड़ में छेद किया

वैज्ञानिकों ने अटलांटिस मैफिस पहाड़ में छेद किया

डॉक्टर सुभाषचंद्र गहलोत 

वाशिंगटन डीसी। धरती के अंदर क्या है ? यह एक बड़ा रहस्य है। इसका खुलासा करने के लिए वैज्ञानिक नए-नए प्रयोग करते रहते हैं। ऐसे ही एक हैरान करने वाले प्रयोग के दौरान वैज्ञानिकों ने अटलांटिक महासागर में मौजूद अटलांटिस मैफिस पहाड़ में छेद किया। छेद भी एक किलोमीटर गहरा। JOIDES रेजोल्यूशन साइंटिफिक ड्रिलिंग वेसल ने इस प्रोजेक्ट को अंजाम दिया है।

ये पत्थर धरती की दूसरी परत मैंटल से निकाली गई है। वैज्ञानिकों ने अटलांटिक महासागर के अंदर मौजूद अटलांटिस मैफिस पहाड़ के ऊपर ड्रिलिंग वेसल तैनात किया। उसके बाद पहाड़ की नोक से उसके अंदर ड्रिलिंग करना शुरू किया। यह पहाड़ मिड-अटलांटिक रिज पर है। ड्रिलिंग करीब 4156 फीट तक की गई। यह धरती के अंदर किया गया सबसे गहरा छेद नहीं है। लेकिन यह भूगर्भीय जानकारी हासिल करने के लिए जरूरी है। क्योंकि मैंटल से किसी पत्थर को निकालना बेहद कठिन काम है। अटलांटिस मैफिस पहाड़ मैंटल के पत्थरों से बना है। इसलिए वहां तक जाना और उसपर खुदाई करना आसान था।

इस चट्टान का नाम है पेरिडोटाइट। वैज्ञानिकों का कहना हैं, कि यह एक बहुत बडी खोज हैं, जिससे हमें कई ऐतिहासिक गतिविधियों का पता लग सकता हैं। कुछ शोधकर्ताओं का यह मानना हैं कि आने वाली कई पीढ़ियों के लिए यह अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण डेटा देता रहेगा। वैज्ञानिक इसके जरिए धरती की कई चीजों का अध्ययन करना चाहते हैं। जैसे- चुंबकीय शक्ति, ग्रैविटी, टेक्टोनिक फ्लो, ज्वालामुखी आदि।

वैज्ञानिक कहते आए थे कि अगर वो पृथ्वी के निचले हिस्से से चट्टान निकाल पाएं तो धरती के आकार, गुण और ठहराव का पता आसानी से चल सकता है। इससे हम भूकंपों के आने की वजह पता कर सकते हैं। अलग-अलग परतों की जानकारी हासिल कर सकते हैं। यह धरती के विज्ञान और पृथ्वी के अलग-अलग भागों को समझने में मदद करेगा।समुद्री भागों से निकाली गई चट्टानों की स्टडी से भूवैज्ञानिक घटनाओं को भी समझ सकते हैं। चट्टानों में छिपे धातुओं और खनिजों का भी इससे पता लगा सकते है। पृथ्वी के मैंटल से निकाले गए पेरिडोटाइट चट्टान के एक किलोमीटर का सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा मिला है।

इस चट्टान में ओलिविन मिला है, जिसकी वजह से हाइड्रोजन चट्टानों के अंदर भरा-पड़ा होता है। इनकी बदौलत माइक्रोबियल जीवन को बढ़ावा मिलता है, यानी सूक्ष्मजीवन को।

सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

विज्ञान: शोधकर्ताओं की टीम ने एक नई वस्तु खोजी

विज्ञान: शोधकर्ताओं की टीम ने एक नई वस्तु खोजी

अकांशु उपाध्याय

नई दिल्ली। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर (आईआईटीजीएन) और जापान एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (जेएआईएसटी) के शोधकर्ताओं की एक टीम ने एक नई वस्तु खोजी है, जो लिथियम बैटरी को मिनटों में रिचार्ज कर सकती है। इसके जरिए जल्द ही आप अपने बैटरी वाले उपकरणों और यहां तक ​​कि इलेक्ट्रिक वाहनों को बहुत तेज गति से चार्ज कर पाएंगे।

टीम के अनुसार, टाइटेनियम डाइबोराइड (टीआईबी2) से प्राप्त नैनोशीट्स का उपयोग करके नयी द्वि-आयामी (2डी) वस्तु तैयार की गई है। यह वस्तु कई परतों वाले सैंडविच जैसी दिखती है, जिसमें परतों के बीच धातु के परमाणु बोरॉन लगे हुए हैं। आईआईटीजीएन और जेएआईएसटी की शोध टीमों ने एक ऐसी वस्तु विकसित करने का लक्ष्य रखा था जो न केवल बैटरी को तेजी से चार्ज करने में सक्षम हो, बल्कि उसे लंबा जीवन भी प्रदान करे।

आईआईटीजीएन में केमिकल इंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर कबीर जासुजा ने कहा, ” फिलहाल, ग्रेफाइट और लिथियम टाइटेनेट व्यावसायिक रूप से उपलब्ध लिथियम-आयन बैटरी (एलआईबी) में सबसे व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाली एनोड सामग्रियों में से हैं। ये लैपटॉप, मोबाइल फोन और इलेक्ट्रिक वाहनों को पावर देती हैं। ग्रेफाइट एनोड से लैस लिथियम-आयन बैटरी किसी इलेक्ट्रिक वाहन को एक बार चार्ज करने पर सैकड़ों किलोमीटर तक चला सकती है। उन्होंने कहा कि हालांकि, सुरक्षा के मोर्चे पर इनकी अपनी चुनौतियां हैं क्योंकि इनमें आग लगने का खतरा रहता है। लिथियम टाइटेनेट एनोड सुरक्षित और अधिक पसंदीदा विकल्प हैं, और ये फास्ट चार्जिंग की सुविधा भी देते हैं।

बुधवार, 27 जुलाई 2022

वैज्ञानिकों ने फल मक्खियों के दिमाग को हैक किया 

वैज्ञानिकों ने फल मक्खियों के दिमाग को हैक किया 

अखिलेश पांडेय                      

वाशिंगटन डीसी/एल्बनि। अमेरिका में ‘राइस यूनिवर्सिटी’ के वैज्ञानिकों ने फल मक्खियों के दिमाग को हैक किया, जिससे उन्हें रिमोट से कंट्रोल किया जा सके। न्यूरोइंजीनियरों की टीम लक्षित न्यूरॉन्स को सक्रिय करने के लिए मैग्निेटिक सिग्नलों का इस्तेमाल करने में सक्षम थी, जो उनकी शरीरिक स्थिति और मूवमेंट को नियंत्रित करते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, शोधकर्ताओं की टीम ने आनुवंशिक रूप से मक्खियों पर काम शुरू किया। इससे उनके कुछ न्यूरॉन्स ने हीट-सेंसिटिव आयन चैनल्स को व्यक्त किया। वैज्ञानिकों ने फल मक्खियों के दिमाग में आयरन ऑक्साइड नैनोपार्टिकल्स को इंजेक्ट किया, जिसके बाद टीम उन्हें हीट देने और न्यूरॉन को सक्रिय करने के लिए एक मैग्निेटिक फील्ड का इस्तेमाल करने में सक्षम थी।

शनिवार, 9 जुलाई 2022

ऑपरेशन: लड़की की स्पाइन को रस्सी से बनाया

ऑपरेशन: लड़की की स्पाइन को रस्सी से बनाया

अखिलेश पांडेय
अम्मान। जॉर्डन चोट, सेबरल पाल्सी, मसल्स डिसट्रॉफी या अन्य कारणों से रीढ़ की हड्डी में घुमाव आ जाता है। इस स्थिति को स्कोलियोसिस कहते हैं। ऐसी स्थिति में रीढ़ की हड्डी एक तरफ घूम जाती है और देखने में इंसान एक ओर झुका हुआ लगता है। हाल ही में एक मामला सामने आया है। जिसमें 13 साल की एक लड़की को भी यही समस्या थी। डॉक्टर्स की टीम ने इस लड़की का सफलतापूर्वक ऑपरेशन किया और लड़की की स्पाइन को रस्सी से बनाया। यह लड़की धीरे-धीरे ठीक हो रही है, तो चलिए जानते है रस्सी की सहायता डॉक्टर्स ने रीढ़ की हड्डी को कैसे सपोर्ट दिया।
सलमा नसेर नवसेह नाम की यह लड़की अरब कंट्री जॉर्डन की रहने वाली है। उसका ऑपरेशन दुबई के बुर्जील हॉस्पिटल में हुआ। 13 साल की सलमा की कुछ समय पहले वर्टेब्रल बॉडी टेदरिंग (वीबीटी) सर्जरी हुई है। इस सर्जरी में रस्सी से रीढ़ की हड्डी को सपोर्ट दिया जाता है और फिर उसे स्क्रू से कस दिया जाता है। स्क्रू की सहायता से रस्सी को उतना कसा जाता है, जब तक रीढ़ का घुमाव सही ना हो जाए। एक बार जब रीढ़ सही स्थिति में पहुंच जाती है फिर रीढ़ के हर हिस्से में पेंच लगा दिए जाते हैं। डॉक्टर्स के मुताबिक, सलमा सर्जरी के अगले ही दिन से चलने लगी थी।
दुबई के बुर्जील अस्पताल में ऑपरेशन के बाद सलमा रिकवर हो रही है। डॉक्टर्स का कहना है कि वह जल्द ही पहले की तरह टेनिस खेल पाएगी। जानकारी के मुताबिक, सलमा के पैरेन्ट्स ने अप्रैल 2022 में पहले बार नोटिस किया था कि उनकी बेटी का शरीर एक तरफ झुक रहा है। फिर जब डॉक्टर्स को दिखाया तो उन्होंने बताया कि उनकी बेटी को स्कोलियोसिस है। सलमा की रीढ़ में 65 डिग्री का घुमाव आ गया था।

बुधवार, 29 जून 2022

दावा: इंसान को मंगल से पृथ्वी पर लाएं, एलियन

दावा: इंसान को मंगल से पृथ्वी पर लाएं, एलियन

डॉक्टर सुभाषचंद्र गहलोत 
नई दिल्ली/वाशिंगटन डीसी। अधिकतर लोग इस सिद्धांत पर विश्वास करते हैं कि इंसान की उत्पति लाखों-करोड़ों साल में क्रमागत विकास के कारण हुई है। वहीं, जीवाश्म संकेत देते हैं कि होमो सेपियंस धरती पर 2 लाख से 3 लाख साल के बीच कहीं भी रहे हों। लेकिन, गुफा चित्र 30 हजार साल पहले बने और लेखन 5,500 साल पहले शुरू हुआ था। इस बीच वैज्ञानिकों ने नया दावा किया है कि इंसान की उत्पत्ति मंगल ग्रह पर हुई थी और मुमकिन है कि एलियन वहां से इंसान को पृथ्वी पर लाएं।

इतिहास का 95 फीसदी हिस्सा रिकॉर्ड में नहीं...

रिपोर्ट के मुताबिक, हमारे इतिहास का 95 फीसदी हिस्सा रिकॉर्ड नहीं किया गया, जिससे इंसान की उत्पत्ति रहस्य में डूबी है। निश्चित रूप से, एक व्याख्या यह है कि हमारा दिमाग किसी भी प्रकार के गैर-मौखिक संचार तंत्र को समझने के लिए पर्याप्त रूप से विकसित नहीं था‌। 

एक्स्ट्रा-टेरेस्ट्रियल लोगों से था संपर्क...

वहीं, एक अन्य सिद्धांत यह है कि पूर्व-ऐतिहासिक होमो सेपियंस वास्तव में बहुत अधिक उन्नत थे, क्योंकि कुछ गुफा चित्रों से यह भी पता चलता है कि हमारे पूर्वजों का एक्स्ट्रा-टेरेस्ट्रियल लोगों के साथ नियमित रूप से संपर्क था।

वैज्ञानिकों ने किया ये दावा...

वैज्ञानिकों ने ये दावा किया है कि पहले मंगल ग्रह पर महासागर और नदियां थीं। हो सकता है कि वहां जीवन संभव हो और इंसान की उत्पत्ति वहीं हुई हो ? पृथ्वी पर इंसान को लेखन की कला विकसित करने में लाखों साल लगे। ऐसे में बिना एलियन टेक्नोलॉजी के मंगल ग्रह से पृथ्वी पर आना संभव नहीं था।
गौरतलब है कि वैज्ञानिकों के पास इस दावे को साबित करने के लिए ज्यादा साइंटिफिक और ऐतिहासिक सबूत नहीं हैं। लेकिन फिर भी इस थ्योरी को मानने वालों की संख्या अधिक है।

रविवार, 19 जून 2022

8,000 प्राचीन टॉड और मेंढक की हड्डियां मिलीं

8,000 प्राचीन टॉड और मेंढक की हड्डियां मिलीं 

सुनील श्रीवास्तव  
लंदन। ब्रिटेन में कैम्ब्रिज के पास वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसा देखा, जिसे देखकर वे हैरान रह गए। बार हिल पर एक सड़क के किनारे खुदाई के दौरान, वैज्ञानिकों को 8,000 प्राचीन टॉड और मेंढक की हड्डियां मिलीं हैं। 2016-2018 के बीच, लौह युग  में बने एक घर के पास ये खुदाई हुई थी। इस दौरान 14-मीटर लंबी यानी कुछ 6 फुट गहरे गड्ढे में हड्डियां मिली थीं। वैज्ञानिकों को मेंढकों के इस कब्रगाह तक पहुंचने के लिए एक मीटर की टॉप सॉइल और सब सॉइल‌ खोदनी पड़ी थी। एक ही जगह पर इतने सारे अवशेषों का मिलना असामान्य और असाधारण खोज है। साथ ही वैज्ञानिक अब तक ये समझ नहीं पाए हैं कि ये सब गड्ढे में पहुंचे कैसे ?

लंदन पुरातत्व संग्रहालय का वरिष्ठ पुरातत्वविद् विकी इवेन्स का कहना है कि लंदन में इतनी साइटों पर काम करते हुए, हमें इतने मेंढक कहीं नहीं मिले। एक गड्ढे से इतनी सारी हड्डियों का मिलना हैरान करता है‌। वैज्ञानिकों के मुताबिक, ये हड्डियां ज्यादातर मेंढक और टोड की सामान्य प्रजाति से हैं, जो पूरे देश में पाई जाती हैं। इसमें पोखर में पाए जाने वाले मेंढक के अवशेष भी हैं, जो हौरान करने वाले हैं। बात करें तो ऐसे प्रमाण पाए गए हैं जो ये बताते हैं कि तब लोग मेंढक खाया करते थे। हालांकि, गड्ढे में मिली हड्डियों पर किसी तरह का न तो कोई कट है न ही जलने का निशान। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि लोगों ने इन मेंढकों को खाया था। हालांकि, अगर मेंढकों को उबाला भी गया होता, तो भी इसके निशान मिलते। जहां से ये अवशेष मिले हैं, वहां से जले हुए अनाज के प्रमाण मिले थे, जिससे पता चलता है कि लोग फसल को प्रोसेस करते थे। फसलों की वजह से दूसरे कीट वहीं आते होंगे और उन्हें खाने के लिए मेंढक वहां आए होंगे। प्रागैतिहासिक काल में मेंढकों के साथ हुई इस त्रासदी के पीछे एक और थ्योरी दी जाती है।वह ये कि मेंढक प्रजनन क्षेत्रों की तलाश में वसंत में इस इलाके में आए होंगे और गड्ढे में गिरकर फंस गए होंगे। ये भी कहा जा रहा है कि हो सकता है कड़ाके की ठंड ने इन मेंढकों की जान ली होगी। एक थ्योरी यह भी है कि ऐसा मेंढकों में किसी बीमारी की वजह से हुआ होगा। ब्रिटेन में 1980 के दशक में रानावायरस ने मेंढकों की आबादी को खत्म कर दिया था। इस वायरस से मेंढक इतने प्रभावित हुए कि रोग की निगरानी और रिपोर्ट करने के लिए फ्रॉग मेर्टैलिटी प्रोजेक्ट शुरू किया गया था। रानावायरस ऐसे वायरस हैं, जो कुछ मछलियों और सरीसृपों की बड़ी संख्या को प्रभावित करते हैं। 

विकी इवेन्स का कहना है कि यह एक हैरान करने वाली खोज है, जिसे हम अब भी समझने की कोशिश कर रहे हैं। मेंढक के अवशेषों के एक साथ होने के कई अलग-अलग कारण हो सकते हैं। आने वाले समय में हम यह भी जान जाएंगे। लेकिन अभी हमें नहीं पता कि ऐसा क्यों था। साइट पर केवल मेंढक की हड्डियां ही नहीं पाई गई थीं, बल्कि कलाकृतियों के साथ-साथ इंसानों और जानवरों के अवशेष भी मिले थे। नमूनों पर अब भी काम किया जा रहा है।उम्मीद है कि यह रहस्य जल्दी सुलझेगा।

बुधवार, 15 जून 2022

चांग ई-5 ने चंद्र सतह पर अपने स्रोत का निर्धारण किया

चांग ई-5 ने चंद्र सतह पर अपने स्रोत का निर्धारण किया

अखिलेश पांडेय  
बीजिंग। चीन के चंद्र लैंडर चांग ई-5 ने अब चंद्र सतह पर अपने स्रोत का निर्धारण कर लिया है। इसने पहले चंद्रमा पर पानी की उपस्थिति की पुष्टि की थी। 2020 में, चांग ई -5 ने ऑन-बोर्ड वर्णक्रमीय विश्लेषण के माध्यम से 11 बेसाल्ट चट्टानों और मिट्टी के नमूनों में पानी के संकेत के पहली वास्तविक समय, साइट पर निश्चित पुष्टि की। 2021 में फिर से, लैंडर के 2021 में लौटे आठ नमूनों के प्रयोगशाला विश्लेषण के माध्यम से इस खोज को मान्य किया गया था।
अब, चांग ई-5 टीम ने यह निर्धारित किया है कि पानी कहां से आया है।
चीनी विज्ञान अकादमी (एनएओसी) के राष्ट्रीय खगोलीय वेधशालाओं से एलआई चुनलाई ने कहा, "दुनिया में पहली बार, चंद्र रिटर्न नमूनों के प्रयोगशाला विश्लेषण के परिणाम और इन-सीटू चंद्र सतह सर्वेक्षण से वर्णक्रमीय डेटा का संयुक्त रूप से चंद्र नमूनों में 'पानी' की उपस्थिति, रूप और मात्रा की जांच के लिए उपयोग किया गया था।"चुनलाई ने कहा, "परिणाम चांग ई-5 लैंडिंग जोन में वितरण विशेषताओं और पानी के स्रोत के सवाल का सटीक उत्तर देते हैं और रिमोट सेंसिंग सर्वेक्षण डेटा में पानी के संकेतों की व्याख्या और अनुमान के लिए एक जमीनी सच्चाई प्रदान करते हैं।चांग ई-5 ने चंद्र नदियों या झरनों का निरीक्षण नहीं किया, बल्कि लैंडर ने चंद्रमा की सतह पर चट्टानों और मिट्टी में औसतन 30 हाइड्रॉक्सिल भागों प्रति मिलियन की पहचान की।नमूने चंद्रमा के दिन के सबसे गर्म हिस्से के दौरान 200 डिग्री फारेनहाइट के तापमान पर एकत्र किए गए थे, जब सतह अपने सबसे शुष्क स्थान पर होगी। समय कम सौर हवाओं के साथ भी मेल खाता है, जो पर्याप्त उच्च शक्ति पर जलयोजन में योगदान कर सकता है।
टीम ने हाइड्रॉक्सिल को दो अलग-अलग स्रोतों से उत्पन्न किया। चंद्र सतह के साथ हस्तक्षेप करने वाली सौर हवाओं द्वारा बनाई गई कांच की सामग्री में एक छोटा सा हिस्सा दिखाई दिया, जैसा कि 1971 में एकत्र किए गए अपोलो 11 के नमूने में हुआ था और 2000 के दशक की शुरुआत में परीक्षण किया गया था।

रविवार, 12 जून 2022

साइंस: अनचाही प्रेग्नेंसी को रोकने के 2 तरीके

साइंस: अनचाही प्रेग्नेंसी को रोकने के 2 तरीके 

डॉक्टर सुभाषचंद्र गहलोत  
कैरेकस। वेनेजुएला में मेडिकल साइंस दिनों-दिन तरक्की करता जा रहा है। दवाई के साथ ही कई ऐसी तकनीक बाजार में आ चुकी हैं। जो लोगों को अलग-अलग मामलों में काफी मदद करती है। इन्हीं में से एक है, अनचाही प्रेग्नेंसी को रोकना। अनचाहें गर्भ को दो तरीके से रोक सकते हैं। पहला है दवाइयों के जरिए, जबकि दूसरा है अबॉर्शन की मदद से‌, अबॉर्शन क्योंकि अधिकतर देश में प्रतिबंधित है। और बहुत ही रेयर केस में इसकी अनुमति मिलती है। ऐसे में लोगों के पास गर्भनिरोध का ही विकल्प बचता है। बड़ी संख्या में लोग इसका इस्तेमाल करते भी हैं, लेकिन दुनिया में एक देश ऐसा है, जहां गर्भनिरोध से जुड़ी चीजों की कीमत सोने से भी ज्यादा है।
रिपोर्ट के मुताबिक, यहां कंट्रासेप्टिव पिल्स की मांग अन्य गर्भनिरोध प्रोडक्ट की तुलना में काफी अधिक रहती है। इस देश में एक पैकेट कंडोम की कीमत करीब 60 हजार रुपये तक है। हैरानी की बात ये है कि इतना महंगा होने के बाद भी लोग इसे खूब खरीदते हैं‌। इसके अलावा गर्भनिरोध गोलियों की कीमत करीब 5-7 हजार रुपये है। इसके अलावा अन्य प्रोडक्ट भी काफी महंगे हैं। ब्लैक मार्केट में इनके दाम और अधिक हो जाते हैं।
हम जिस देश की बात कर रहे हैं, उसका नाम वेनेजुएला है। दक्षिण अमेरिका के इस देश में किसी भी स्थिति में गर्भपात कानून अपराध है। जेल जाने और अबॉर्शन की स्थिति न बने इसके लिए लोग पहले से अलर्ट रहते हुए सावधानी से संबंध बनाते हैं‌। ऐसे में यहां गर्भनिरोध से जुड़े सामान लगातार महंगे होते जा रहे हैं।

बुधवार, 8 जून 2022

प्लैटिनम को ज्यादा किफायती बनाने का तरीका, खोजा

प्लैटिनम को ज्यादा किफायती बनाने का तरीका, खोजा

सुनील श्रीवास्तव
सिडनी। वैज्ञानिकों ने उत्प्रेरक के तौर पर प्लैटिनम को और ज्यादा किफायती बनाने का तरीका खोज लिया है। इसे कम तापमान वाले तरल में बदलकर ऐसा किया जा सकता है।
सदियों से प्लैटिनम, सोना, रूथेनियम और पैलेडियम जैसी नोबल धातुओं को रासायनिक प्रतिक्रियाओं के लिए बढ़िया कैटालिस्ट माना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अन्य धातुओं की तुलना में वे परमाणुओं के बीच कैमिकल बॉन्ड्स को बेहतर तरीके से तोड़ देते हैं। लेकिन नोबल मेटल दुर्लभ और महंगे होते हैं। इसलिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक निर्माता आमतौर पर लोहे जैसे सस्ते विकल्प चुनते हैं।
नेचर केमिस्ट्री जर्नल में प्रकाशित हुए शोध के मुताबिक, ऑस्ट्रेलिया के UNSW सिडनी और RMIT के शोधकर्ताओं ने प्लैटिनम परमाणुओं को विभाजित करके, प्लैटिनम को लिक्विड गैलियम है, ताकि प्लैटिनम की थोड़ी मात्रा में ज्यादा उत्प्रेरक क्षमता हो।
प्लैटिनम का मेल्टिंग तापमान आमतौर पर 1,700 ºC होता है, जिसका मतलब यह है कि जब इसे उत्प्रेरक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है तो यह ठोस होता है। प्लेटिनम को गैलियम मैट्रिक्स में डालकर, इसने गैलियम के मेल्टिंग प्वाइंट अपना लिया।
गैलियम एक नरम, चांदी और नॉन-टॉक्सिक मेटल है जो 29.8 डिग्री सेल्सियस तापमान पर पिघलता है। लिक्विड गैलियम की एक खास बात यह है कि यह हर अणु में अलग-अलग परमाणुओं को अलग करके, धातुओं को घोलता है (जैसे पानी नमक और चीनी को घोलता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इस आविष्कार से ऊर्जा की लागत बचेगी और औद्योगिक विनिर्माण में उत्सर्जन कम होगा। गैलियम लोहे की तरह सस्ता नहीं है, लेकिन इसे एक ही रिएक्शन के लिए बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि प्लैटिनम की तरह, गैलियम रिएक्शन के दौरान निष्क्रिय या टूटता नहीं है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि गैलियम में प्लेटिनम को घोलने के लिए कुछ घंटों के लिए तापमान 400 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ाना होता है। टीम को उम्मीद है कि उनकी इस तकनीक से फर्टिलाइज़र से लेकर ग्रीन फ्यूल सेल्स तक, ज्यादा स्वच्छ और सस्ते प्रॉडक्ट तैयार होंगे।

वैज्ञानिकों ने धरती का एक और दुश्मन खोज निकाला

वैज्ञानिकों ने धरती का एक और दुश्मन खोज निकाला

अखिलेश पांडेय     
वाशिंगटन डीसी। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने स्पेस में धरती का एक और दुश्मन खोज निकाला है। पहले यह एस्टेरॉयड हमारे गृह को नुकसान नहीं पहुंचाने वाला था लेकिन अब इसके गति की दिशा बदल चुकी है। यह पृथ्वी के लिए कुख्यात उल्कापिंड है जो धरती से तेजी से टकरा सकता है।
ऐस्टेरॉयड की गति से वैज्ञानिकों को आश्चर्य।
उल्कापिंड एपोफिस के पुराने सारे डेटा बदल गए। इसका कारण उसकी गति की दिशा का बदलना माना जा रहा है। इसके बाद साइंटिस्ट्स ने ऐस्टेरॉ के करीब पहुंचने के दौरान नए सिरे से शुरुआत करनी पड़ी। वैज्ञानिकों ने दिसंबर 2020 से मार्च 2021 में एस्टेरॉयड का अध्ययन किया। जिसमें पता चला कि एस्टेरॉयड धरती के बगल न निकल कर सीधे टक्कर करेगा।

तबाही मचा सकता है 'कुख्यात उल्कापिंड'...
वैज्ञानिकों का दावा है कि एस्टेरॉयड साल 2029 में धरती से टकरा सकता है। पहले इसके नीले ग्रह के बगल से निकलाने की आशंका थी लेकिन अब वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इसकी पृथ्वी से भयंकर टक्कर हो सकती है। यह ग्रह जिस गति से पृथ्वी की ओर बढ़ रहा है 13 अप्रैल 2029 तक पृथ्वी की सतर स टकरा सकता है।

18 देशों के 100 से अधिक वैज्ञानिकों ने की स्टडी...
अंतरिक्ष में कई एस्टेरॉयड ऐसे हैं जो पृथ्वी के दुश्मम हैं। पृथ्वी को उल्कापिंडों से होने वाले नुकसान पर सर्वे किया गया। इससे जुड़ा अध्ययन देश के 18 देशों के वैज्ञानिकों ने किया है। जिसमें यह देखा गया कि संभावित रूप से खतरनाक क्षुद्रग्रहों किस तरह धरती को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

48 साथ बाद एक और उल्कापिंड पृथ्वी से टकराएगा...
पृथ्वी पर तबाही मचाने वाले कुख्यात एस्टेरॉयड का नाम एपोफिस है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के अनुसार एपफिस 1200 फीट चौड़ा है। इसका आकार साढ़े तीन फुटबाल के मैदान के बराबर है। जिस गति से यह धरती की ओर बढ़ रहा है अगर यही गति और दिशा रही तो यह 48 साल बाद 2068 तक पृथ्वी से टकरा सकता है।
2004 में उल्कापिंडों एपोफिस का चला था पता।
 2004 में पहली बार एपोफिस की मौजूदगी का पता चला था। इसको लेकर अंतरिक्ष की वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी ने दुनिया में हलचल मचा दी थी। अध्ययन में पता चला कि एपोफिस 2029 में वर्ग एक से शुरू होकर पृथ्वी को प्रभावित नहीं कर रहा था। वस्तु की कक्षा में बड़ी अनिश्चितताएं थीं।

शनिवार, 4 जून 2022

साइंस: टेडा-मेडा कान हटाया, नया कान लगाया

साइंस: टेडा-मेडा कान हटाया, नया कान लगाया

सुनील श्रीवास्तव  
वाशिंगटन डीसी। अमेरिका में मेडिकल साइंस ने एक नया कारनामा कर दिखाया है। जहां एक लड़की को थ्री डी प्रिंटिंग के जरिए डॉक्टरों ने नया कान दिया है। लड़की का दाहिना कान टेढ़ा-मेढ़ा था। डॉक्टरों ने उसे निकालकर नया कान लगा दिया है। थ्री डी प्रिंटिंग से कान प्रिंट कर लगाने का यह दुनिया का पहला मामला है। डॉक्टरों ने यह सर्जरी मार्च में की थी। अब लड़की का कान उसके शरीर के साथ काम करने लगा है। जिसके बाद इस चमत्कार की घोषणा की गई है।
लड़की के सेल से कान प्रिंट कर उसी को लगाया।
दुनिया भर में इससे पहले भी आर्टिफिशियल या किसी और के कान किसी दूसरे में लगाए जाते रहे हैं। लेकिन कान की थ्री डी प्रिंटिंग का यह पहला मामला है। खास बात यह है कि कान के लिए सेल लड़की की बॉडी से ही लिए गए थे। ऐसे में शरीर के लिए कान को स्वीकार कर पाना ज्यादा आसान होता है। क्योंकि कई बार डोनर के कान को शरीर अपना नहीं पाता है।
बचपन से ही खराब था, अब मिला जादुई कान
अमेरिका की रहने वाली 20 साल की लड़की का कान बचपन से ही टेढ़ा-मेढ़ा था। कान से उसे कुछ सुनाई भी नहीं देता था। ऐसे में लड़की के घरवालों ने डॉक्टर से सम्पर्क किया।
न्यूयार्क की 3डीबायो थेराप्यूटिक्स नाम की कंपनी ने यह सफल ऑपरेशन किया है। लड़की का नया कान अभी सामान्य के मुकाबले थोड़ा छोटा है। लेकिन यह धीरे-धीरे बड़ा हो रहा है और शरीर के साथ सामंजस्य बिठा रहा है।
यह है 3D बॉडी पार्ट का कॉन्सेप्ट
3D प्रिंटिंग अब एक सामान्य हो चुकी तकनीक है। जिसके सहारे किसी भी चीज की हूबहू नकल तैयार कर ली जाती है। ठीक वैसे जैसे 2D में पेज की प्रिंटिंग होती है। अब तक 3D प्रिंटिंग से मेटल और प्लास्टिक की चीजें ही तैयार की जाती रही हैं। लेकिन अब डॉक्टरों ने इससे मानव अंग प्रिंट करना शुरू कर दिया है। अगर यह तकनीक सफल रहती है तो आने वाले समय में दिव्यांगों को इससे काफी फायदा होगा। इस तकनीक में शरीर से कोशिका लेकर नया अंग बनाया जाता है।
कंपनी ने गुप्त रखी है तकनीक
3D प्रिंटेड कान लगाने वाली कंपनी ने अभी अपनी तकनीक को सार्वजनिक नहीं किया है। हालांकि कंपनी की ओर से यह भी बताया गया है कि उसने सभी मानदंडों का पालन किया है।

गुरुवार, 5 मई 2022

'फैटी लिवर डिसीज' बीमारी के लक्षण, जानिए

'फैटी लिवर डिसीज' बीमारी के लक्षण, जानिए   

सरस्वती उपाध्याय        
'फैटी लिवर डिसीज' एक ऐसी बीमारी है, जिसमें लिवर की कोशिकाओं में बहुत ज्यादा फैट जमा हो जाता है। यह बीमारी आज के समय में काफी आम हो चुकी है। रिपोर्ट में बताया गया है कि आज हर 3 में से 1 इंसान इस बीमारी का सामना कर रहा है। इस बीमारी के कारण लिवर सही तरीके से काम नहीं कर पाता और कई समस्याएं होने लगती हैं। कई लोगों का मानना है कि जो लोग शराब आदि का सेवन ज्यादा करते हैं, केवल उन्हें ही इस समस्या का सामना करना पड़ता है, जबकि ऐसा नहीं है‌। जो लोग शराब नहीं पीते, उन लोगों में भी यह बीमारी हो सकती है।
लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि जो लोग अधिक मात्रा में शराब का सेवन करते हैं, उन लोगों में यह समस्या अधिक देखी जाती है। जिन लोगों ने कभी भी शराब का सेवन नहीं किया है, उनमें भी यह समस्या देखने को मिलती है और इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे: हाई कोलेस्ट्रॉल लेवल, डायबिटीज, स्लीप एपनिया, अंडरएक्टिव थाइरॉयड आदि। अधिकतर मामलों में शुरुआत में इस बीमारी का पता नहीं चल पाता। नॉन-अल्कोहल फैटी लिवर डिसीज एक ऐसी स्थिति है, जो शराब के कारण नहीं होती, लेकिन अगर ऐसे में शराब का सेवन किया जाए तो यह और भी बढ़ सकती है।

बढ़ता हुआ वजन हो सकता है कारण...
ब्रिटिश लिवर ट्रस्ट के चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर पामेला हीली का कहना है कि कई लोगों को यह तक पता नहीं होता कि इंसान का बढ़ता हुआ वजन भी फैटी लिवर के जोखिम को बढ़ा सकता है।  लिवर हार्ट की ही तरह महत्वपूर्ण ऑर्गन है, लेकिन लोग इसे स्वस्थ रखने की बिल्कुल कोशिश नहीं करते।
लिवर के बारे में कई सारे मिथक भी फैले हुए हैं। उदाहरण के लिए बहुत से लोग मानते हैं कि लिवर की बीमारी उन लोगों को होती है, जो शराब का सेवन करते हैं। लेकिन इसके अलावा भी कुछ लोग ऐसे हैं जो शराब का सेवन नहीं करते लेकिन फिर भी उन्हें बढ़े हुए वजन के कारण फैटी लिवर डिसीज का खतरा होता है।

शुरुआत में नजर नहीं आते लक्षण...
हर इंसान के लिवर में फैट की कुछ मात्रा होती है, लेकिन जैसे-जैसे लिवर में फैट की मात्रा बढ़ती जाती है, उसे हाई ब्लड प्रेशर, किडनी प्रॉब्लम्स और डायबिटीज का खतरा बढ़ने लगता है।
शुरुआत में फैटी लिवर डिसीज के कोई लक्षण नजर नही् आते, लेकिन अगर इसे कंट्रोल नहीं किया जाए तो गंभीर लक्षण सामने आ सकते हैं। इसके बाद यह यह नॉन-अल्कोहॉलिक स्टीटोहेपेटाइटिस या NASH नामक एक और गंभीर स्थिति में परिवर्तित हो सकती है, जिसमें लिवर में काफी सूजन आ जाती है। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, यह सूजन ब्लड वेसिल्स और लिवर दोनों को प्रभावित करने लगती है। हो सकता है नॉर्मल इंसान को यह भी पता न चले कि उसके लिवर में समस्या पैदा हो चुकी है।

फैटी लिवर डिसीज वाले लोगों में दिखते हैं ये लक्षण...

अगर किसी को फैटी लिवर डिसीज की समस्या होती है तो उनमें ये लक्षण नजर आ सकते हैं।
पेट के ऊपरी दाएं भाग में दर्द (पसलियों के नीचे)
अत्यधिक थकान।
जरूरत से ज्यादा वेट लॉस।
कमजोरी।
लिवर को जब सालों से नुकसान पहुंच रहा हो तो वह सिरोसिस में बदल जाती है। सिरोसिस के कारण लिवर को जो नुकसान होता है, उसे सही नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति के बाद ये लक्षण नजर आते हैं।
त्वचा का पीलापन।
आंखों का सफेद होना।
त्वचा में खुजली।
पैर, टखने या पेट में सूजन।
लाइफस्टाइल में करें बदलाव।
एक्सपर्ट कहते हैं कि इस बीमारी से बचने के लिए सबसे पहले लाइफस्टाइल में बदलाव करना काफी जरूरी है। एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी में लिवर रिसर्च के हेड प्रोफेसर जोनाथन फॉलोफील्ड कहते हैं, नॉन-अल्कोहॉलिक फैटी डिसीज के मरीज 2030 तक 5 प्रतिशत से बढ़कर 7 प्रतिशत तक हो जाएंगे। ज्यादातर लोग नहीं जानते कि उन्हें फैटी लिवर डिसीज हो चुका है। ये अक्सर ऐसे लोग होते हैं, जो बाहर से पतले दिखते हैं लेकिन उनके लिवर पर फैट होता है। उनके पेट के चारों ओर चर्बी जमी होती है और थकान भी होने लगती है‌।
फैटी लिवर डिसीज से बचने के लिए कुछ चीजों पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। एक्सपर्ट कहते हैं कि ऐसे लोगों को 7 से 10 प्रतिशत वजन घटाने की कोशिश करनी चाहिए। एरोबिक एक्सरसाइज या हल्की वेट ट्रेनिंग से भी लिवर की सेहत को फायदा होता है। इसके लिए डॉक्टर डायबिटीज कंट्रोल करने की भी सलाह देते हैं। शरीर में कॉलेस्ट्रोल लेवल को भी घटाने की कोशिश करनी चाहिए।

बुधवार, 4 मई 2022

कोरोना के नए लक्षण, उल्टी-दस्त व बुखार मानें

कोरोना के नए लक्षण, उल्टी-दस्त व बुखार मानें

नई दिल्ली। कोरोना वायरस एक बार फिर अपने पैर पसार रहा है। दिल्ली, मिजोरम, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और केरल के बाद राजस्थान में कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ रही है। इस बार मरीजों में उल्टी-दस्त यानी, डायरिया की समस्या भी देखी जा रही है। माना जा रहा है कि उल्टी-दस्त कोरोना के नए लक्षण हैं। राजस्थान के कोविड हॉस्पिटल आरयूएसएच के पीडियाट्रिक डॉ. आलोक गोयल के अनुसार, कुछ दिनों से ओपीडी में बड़ी संख्या में बच्चे आ रहे हैं। इन बच्चों में उल्टी-दस्त और तेज बुखार की समस्या देखी जा रही है। कुछ बच्चों में तेज पेट दर्द के भी लक्षण मिले हैं। जब इनका कोरोना टेस्ट कराया गया, तो लगभग 5 प्रतिशत बच्चे पॉजिटिव पाए गए।

क्या वाकई उल्टी-दस्त और पेट दर्द कोरोना के लक्षण हैं या फिर गर्मी के मौसम में ऐसा होना आम बात है? इसका जवाब जानने के लिए हमने बात की रांची एआईआईएमएस के डॉक्टर प्रदीप भट्टाचार्य और मेडिसिन एचओडी डॉक्टर वीपी पांडेय, एमजीएम एमसी, इंदौर से।

​​​​​​सवाल : क्या उल्टी-दस्त कोरोना के नए लक्षण हैं?
डॉ. प्रदीप भट्टाचार्य : इस मौसम में जिन लोगों को उल्टी-दस्त की समस्या हो रही है और वो कोविड पॉजिटिव हैं, इसके लिए सिर्फ एक वायरस जिम्मेदार नहीं है, बल्कि ये मिक्स वायरल इंफेक्शन है। कुछ लोगों को इन लक्षणों के बाद डायरिया हो रहा है तो कुछ लोगों को कोरोना, लेकिन स्पष्ट रूप से ये नहीं कहा जा सकता है कि उल्टी-दस्त कोरोना के नए लक्षणों में से एक हैं। इसके बावजूद इस लक्षण को हल्के में नहीं लेना है।

डॉ. वीपी पांडेय : गर्मी का मौसम है। इसमें लोगों को उल्टी-दस्त की समस्या होना आम बात है। कुछ बच्चे और बुजुर्ग उल्टी-दस्त के बाद कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं, फिर भी उल्टी-दस्त को पूरी तरह से कोरोना का मुख्य लक्षण नहीं कहा जा सकता है। बड़ी संख्या में उल्टी-दस्त के मरीज कोरोना पॉजिटिव आएंगे, तब इसे स्पष्ट रूप से कोरोना का मुख्य लक्षण माना जाएगा।

सवाल : उल्टी-दस्त हो रहे हैं तो कैसे पता चलेगा कि ये कोरोना है या फूड पॉइजनिंग?

जवाब : किसी व्यक्ति को उल्टी-दस्त की समस्या है तो वो डॉक्टर को दिखाए। फिर भी, मन में शंका है कि उसे कोरोना है या नहीं, तो वो अपना कोविड टेस्ट करा ले। इससे क्लीयर हो जाएगा उसे डायरिया है या कोरोना। यह तो बात हुई कोरोना की वजह से होने वाले उल्टी-दस्त की। अब उजाला सिग्नस ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल के डॉ. शुचिन बजाज से जानते हैं कि गर्मी के मौसम में आखिर फूड पॉइजनिंग की समस्या क्यों होती है और इसके लक्षण क्या है?

सवाल : गर्मी में फूड पॉइजनिंग की समस्या क्यों होती है?
जवाब : गर्मी के मौसम में फूड पॉइजनिंग एक आम बीमारी है। इस समय खाना आसानी से खराब हो जाता है और कई बार लोग इसे खा लेते हैं। गलत खानपान, बासी खाना या खराब खाना खाने के कारण ही आपको फूड पॉइजनिंग की समस्या हो सकती है।

फूड पॉइजनिंग के लक्षण क्या-क्या हैं?

जी मिचलाना।
पेट में ऐंठन।
उल्टी।
दस्त।
बुखार।
कमजोरी।

सिरदर्द।
भूख में कमी।

सवाल : फूड पॉइजनिंग से क्या परेशानी हो सकती है?
जवाब : फूड पॉइजनिंग से पेट खराब, उल्टी और दस्त हो सकते हैं। यह समस्या बच्चों में ज्यादा होती है। अलग-अलग तरह के नुकसान पहुंचाने वाली कई सूक्ष्मजीव होते हैं, जो शरीर में समस्याएं पैदा कर सकते हैं। इनमें बैक्टीरिया, वायरस, और फंगस शामिल हैं। खाना जब खराब होता है तो ये कीटाणु इसमें पनपने लगते हैं। जब आप ऐसे खराब खाने को खाते हैं तो ये आपके शरीर में जाते हैं और घंटों बाद आपको उल्टी, दस्त और बुखार जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

क्या यह चिंता की बात है?
हां, उल्टी-दस्त को हल्के में लेना ठीक नहीं है। इससे छोटे बच्चों और बुजुर्गों की तबीयत ज्यादा खराब हो रही है। कई बार इसकी वजह से मरीजों को हॉस्पिटल में भी एडमिट करना पड़ता है। चूंकि, इन दिनों कोरोना के एक लक्षण में उल्टी-दस्त भी शामिल है, ऐसे में लापरवाही महंगी पर सकती है।

श्रीराम 'निर्भयपुत्र'

अप्रैल में 40-50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचा पारा

अप्रैल में 40-50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचा पारा

सुनील श्रीवास्तव 
इस्लामाबाद/नई दिल्ली। भारत समेत दक्षिण एशिया में समय से पहले ही झुलसा देने वाली गर्मी पड़ने लगी है। भारत और पाकिस्तान में अप्रैल के महीने में ही पारा 40-50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया है। अब इस भीषण गर्मी से आने वाले दिनों में भी राहत नहीं मिलने वाली है। स्कॉटलैंड के मौसम वैज्ञानिक स्कॉट डंकन ने डराने वाली चेतावनी दी है। उन्होंने ट्विटर पर एक थ्रेड में कहा है कि भारत और पाकिस्तान की तरफ खतरनाक और झुलसाने वाली गर्मी बढ़ रही है।
उन्होंने ट्वीट कर कहा है कि अप्रैल के महीने में तापमान रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच जाएगा। उन्होंने संभावना जताई है कि तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है। जबकि पाकिस्तान के कुछ इलाकों में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने की उम्मीद जताई है। उन्होंने कहा है कि यह गर्मी बहुत पहले ही पड़ने लगी थी। मार्च के शुरुआत से ही। आइए जानते हैं आखिर इतनी गर्मी पड़ने की वजह क्या है ?
स्कॉट ने अपने ट्विटर अकाउंट पर मार्च 2022 का एक ग्राफिक पोस्ट किया है। उन्होंने कहा कि इसमें आप देख सकते हैं कि दुनिया के इस इलाके में मार्च में कितनी खतरनाक गर्मी पड़ रही है।
स्कॉटलैंड के मौसम वैज्ञानिक ने बताया है कि 19 वीं शताब्दी के बाद भारत और पाकिस्तान का तापमान बदला है। उन्होंने यह बेरकेले अर्थ के डेटा के हवाले से बताया है। उनका कहना है कि जैसे-जैसे हमारे ग्रह का तापमना बढ़ता है हीटवेव और शक्तिशाली हो जाती है। गर्मी के खतरनाक स्तर को साल के ज्यादातर समय में देखा जा सकता है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने जनवरी में कहा था कि साल 2021 का जो तापमान रिकार्ड किया गया था वह धरती के सात सबसे गर्म सालों में से एक था। हर साल औसत वैश्विक तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ रहा है। साल 2020 में महामारी के दौरान वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में गिरावट देखी गई थी, लेकिन उसके बाद इसमें रिकॉर्ड स्तर पर बढ़ोतरी हुई है। ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिए हमें एक लंबी दूरी तय करनी होगी। ग्रह के तापमान में कमी लाने के लिए तेजी से डीकार्बोनाइजेशन की जरूरत है। सबसे खतरनाक जलवायु परिवर्तन से बचा सकता है, क्योंकि अभी ज्यादा देर नहीं हुई है।

सेना से आने वाले हर अग्निवीर को नौकरी मिलेंगी

सेना से आने वाले हर अग्निवीर को नौकरी मिलेंगी  राणा ओबरॉय  फरीदाबाद। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हरियाणा की चुनावी रैली में कहा कि सेना ...