अहसास की आभा 'अंतोगत्वा'
होते हैं ज़िन्दगी में कुछ ऐसे ख़ास लोग, जिनकी कमी कभी पूरी नहीं होती।
चले जाते हैं ज़िन्दगी से, पर ज़हन से उनकी यादें कभी धुंधली नहीं होती।
कालचक्र जीवन के हर पल को अवशोषित करता, अपनी निरन्तरता को उस क्षण तक कायम रखता है। जबतक जीवन का अवसान श्मशान तक नहीं पहुंच जाता है। इन्सान अभिमान, मान, सम्मान के माया जाल में उलझ कर निस दिन अपनों की अहमियत को खोता रहता है।वर्तमान में झूठ का आडम्बर घर-घर जहर सरीखे असर करता जा रहा है। सामाजिक समरसता विवसता की भेंट चढ़ रही है। आधुनिकता का मजबूत आवरण पुरातन व्यवस्था पर जबरदस्त प्रहार कर रहा है। रिश्तों का अनमोल खजाना इस जमाना में कोई मोल नहीं रखता है। बदलता वक्त इस कदर विषाक्त हो चला है कि उम्मीदों की बागवानी में ज़िन्दगी का अनमोल समय शनै: शनै: निस्तारित होता रहता है। बागवान आखरी सफर के कठिन राह मे, तन्हाई के सफ़ीना पर सवार वक्त के मझधार में, उम्र की जुझती लहरों के बीच हिचकोले खाते, ज़िन्दगी के साहिल प्र पहुंचने का जिज्ञासा भरा प्रयास करतें रहते हैं। मन्जिल की तलास में निराश, लड़खड़ा कर दम तोड देता है। जिस अपनेपन के दरिया में, उम्मीदों से लदी ज़िन्दगी की कश्ती को, मस्ती में जिस पतवार के सहारे उतारा था। उसी की चपेट में आकर हताश, निराश और दर्द भरी सौगात लिए बेसहारा बना, असहाय हो गया।इस माया के मकड़जाल में उलझा इन्सान दरिया के उफान के तरह, तब तक मचलता है। जब तक खुद के कर्मों की सुनामी तबाही नहीं मचा देती है।
प्रारब्ध का पारितोषक उपलब्ध जीवन के उपवन में कभी खुशहाली तो कभी ग़म का फूल खिलाता रहता है। मुश्किल दौर में आदमी अपनों को आजमाता है। मगर सच के धरातल पर तो तभी ज्ञान की गंगा प्रवाहित होती है। जब लगातार मतलब परस्ती की घनघोर वर्षां सब कुछ अकस्मात आपने मे आत्मसात नहीं कर देती। हर तरफ झंझावात करती जीवन की काली बदली में भविष्य की चपला रौद्र रुप दिखलाने लगती है।
आया है सो जायेगा, राजा रंक फकीर। यह सार्वभौम सत्य है! फिर भी स्वार्थ के वशीभूत झूठ का सहारा लिए आदमी मारा-मारा दिन रात धनलक्ष्मी के उन्मोचन में अपनों के सुख-सुविधा, सुखद भविष्य का स्वप्न सजाए सारी उमर व्यर्थ बर्बाद कर देता है। महल-अटारी, धन-सम्पदा सब भौतिकवादी युग के अहम किरदार है। लेकिन किस काम की ? जब जाएंगे अकेले, झमेल कौने काम के ?
शनै: शनै: उम्र का घटता सफर जब सीफर तक पहुंचता है कोई साथ नहीं होता। बस तन्हाई मुस्कराती है, परछाई भी साथ छोड़ देती है। मौत गमगीन नजरों से कर्मों का एहसास दिलाते हुए मोहब्बत के साथ यादों की बस्ती में, चल चित्र की तरह सब से रुबरु कराती है। उस वक्त जुबां खामोश सिर्फ आंखों से अश्कों की लडी जीवन के गुजरे हर लम्हें की कड़ी पिरोती अफसोस का आलिंगन कराती है। पश्चाताप की पराकाष्ठा का एहसास दिलाती है। बहुत याद आते हैं वे अपने जिनके लिए सारा जीवन दिन में भी देखते रहे सपने। इस आनी-जानी दुनियां में मृत्यु लोक तो महज कुछ दिनों का पड़ाव है।इसी को लोग स्थायी जीवन मान बैठे हैं। यही तो माया का भ्रम जाल है! उन्मुक्त गगन में विचरण करता मन, जब आशक्त शरीर को त्याग कर, मोहमाया के बन्धन से मुक्त होकर, महाकाल अविनासी के आश्रम में अन्तिम यात्रा पूरी करता है। वहीं से नवजीवन का प्रारम्भ भी होता है। यह तो मतलबी युग है, हर कोई मतलब भर रोता है। कोई नहीं अपना होता है। जीवन ज्योति तभी तक जलेगी, जब तक रजा मालिक की होगी। सत्कर्म के राह पर चलकर इन्सानियत का पैगाम बांटिए।
अपनों की सच्चाई जाननी है तो, वृद्धा आश्रमों में जाइए। जीवन की सच्चाई जाननी है तो श्मशान में कुछ पल बिताइए। हकीकत खुद ब खुद सामने होगी।
जगदीश सिंह