अंकाशु उपाध्याय
नई दिल्ली। देश की जनगणना के अनुसार, देश में खेती में लगे हुए कुल 26.3 करोड़ लोगों में से 45% यानी 11.8 करोड़ किसान थे और शेष लगभग 55% यानी 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे। पिछले 10 वर्षों में यदि किसानों के मज़दूर बनने की दर वही रही हो। जो कि 2000 से 2010 के बीच थी, तो माना जा सकता है कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से काफ़ी ऊपर जा चुकी होगी। जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से और कम रह गयी होगी। मगर ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद खेतिहर मज़दूरों की बदहाली और काम व जीवन के ख़राब हालात की बहुत कम चर्चा होती है।
पिछले दो दशकों के दौरान, भारत में 3.50 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। इनमें भी सबसे बड़ी संख्या ग़रीब और निम्न-मँझोले किसानों की थी। किसानों की आत्महत्या के सवाल पर संसद से लेकर सड़क तक चर्चा हुई है, लेकिन खेतिहर मज़दूरों की दुर्दशा को लगातार नज़रअन्दाज़ किया गया है। इस तबक़े के आत्महत्या के आँकड़े ही 2013 तक प्रकाशित और उपलब्ध नहीं थे। जबसे इनके अलग से आँकड़े उपलब्ध हैं, तब से देखें तो 2014 में 6,750 खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या की, 2015 में 4,595, 2016 में 5,019 और 2019 में 4,324 खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या कर ली।
आज जो लोग इस तरह की बातें कर रहे हैं कि धनी किसानों की कमाई ज़्यादा होगी तो मज़दूरों की हालत भी सुधरेगी, उनसे पूछा जाना चाहिए कि अगर ऐसा है तो खेतिहर मज़दूरों की सबसे अधिक आत्महत्याएँ उन्हीं इलाक़ों में क्यों होती हैं जहाँ खेती अधिक विकसित है और जहाँ धनी किसानों-फ़ार्मरों की बड़ी संख्या है? तथाकथित हरित क्रान्ति का फ़ायदा उठाने वाले आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पंजाब जैसे विकसित खेती वाले राज्यों में सबसे ज़्यादा खेतिहर मज़दूर क्यों अपनी जान लेने पर मजबूर हो जाते हैं? इन्हीं राज्यों में खेतिहर मज़दूरों की सामाजिक-आर्थिक दुर्दशा भयंकर क्यों है?
पंजाब में, कुल 99 लाख कार्यबल में से, एक-तिहाई से अधिक लोग किसान या खेतिहर मज़दूर के रूप में खेती में लगे हुए हैं। राज्य में खेती से जुड़े 35 लाख लोगों में से 15 लाख (43%) खेतिहर मज़दूर हैं। यहाँ कुल कृषि कार्यबल में मज़दूरों का अनुपात कम होने का एक बड़ा कारण यह है कि बहुत बड़ी संख्या में प्रवासी खेतिहर मज़दूर भी पंजाब आकर काम करते हैं। पंजाब के खेतिहर मज़दूरों में से लगभग दो-तिहाई दलित हैं जबकि राज्य में उनकी कुल आबादी लगभग 28 प्रतिशत है। इनके शोषण को अति शोषण में तब्दील करने में इनकी जातिगत स्थिति का भी एक योगदान है।
आज धनी किसान आन्दोलन के समर्थक कह रहे हैं कि खेती में बड़ी पूँजी के आने से मशीनीकरण बढ़ेगा जिससे बेरोज़गारी बढ़ेगी। मगर हक़ीक़त यह है कि पिछले तीन-चार दशकों के दौरान खेती का मशीनीकरण लगातार बढ़ता ही रहा है और इससे जहाँ खेतों की उत्पादकता और किसानों के मुनाफ़े में इज़ाफ़ा हुआ, वहीं खेतिहर मज़दूरों के हिस्से में बेरोज़गारी और ग़रीबी ही आयी है।
पंजाब में खेती में पूँजीवादी विकास से न केवल रोज़गार में कमी आयी है, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मज़दूरी की दरें भी कम हुई हैं। इस प्रक्रिया ने लाखों खेतिहर मज़दूरों की आमदनी कम करके उन्हें ख़राब जीवनस्थितियों में धकेल दिया है। मज़दूरों के प्रति धनी किसानों के रवैये का अनुमान पिछले वर्ष की घटनाओं से लगाया जा सकता है। जब लॉकडाउन के दौरान पंजाब और हरियाणा में प्रवासी मज़दूरों का आना रुक गया था, तो मज़दूरी बढ़ने लगी थी क्योंकि श्रम की माँग बढ़ रही थी। ऐसे में, पंजाब और हरियाणा के धनी किसानों-कुलकों ने अपनी पंचायतें बुलाकर खेतिहर मज़दूरी पर सीलिंग तय कर दी थी। किसी भी मज़दूर को उससे ज़्यादा मज़दूरी नहीं दी जा सकती थी। यदि कोई माँगता तो उसका सामाजिक बहिष्कार किया जाता। इन मज़दूरों को अपने गाँव से बाहर जाकर मज़दूरी करने की भी इजाज़त नहीं थी। बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड आदि से पंजाब और हरियाणा में जाने वाले प्रवासी मज़दूरों की बात करें, तो उनके शोषण और उत्पीड़न में भी धनी किसानों-कुलकों का वर्ग कोई कसर नहीं छोड़ता है।
घटती आमदनी के कारण हज़ारों खेतिहर मज़दूर क़र्ज़ के जाल में फँसे हुए हैं और आर्थिक बदहाली, क़र्ज़ का बोझ और निराशा बड़े पैमाने पर उन्हें अपनी जान लेने जैसा क़दम उठाने पर मजबूर कर रहे हैं। राज्य में किसानों की आत्महत्याओं पर काफ़ी चर्चा हुई है लेकिन न केवल खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्याओं पर ध्यान नहीं दिया गया है बल्कि उन्हें मामूली और सामान्य घटनाएँ बताने की भी कोशिश होती रही है।