प्रदोष व्रत अति मंगलकारी और शिव कृपा प्रदान करने वाला है। यह व्रत प्रत्येक महीने के कृष्ण व शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को रखा जाता है, इसलिए इसे वार के अनुसार पूजन करने का विधान शास्त्र सम्मत माना गया है। प्रत्येक वार के प्रदोष व्रत की पूजन विधि अलग-अलग मानी गई है। व्रती ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान का ध्यान करते हुए व्रत आरंभ करते हैं। इस व्रत के मुख्य देवता शिव माने गए हैं। उनके साथ पार्वती जी की भी पूजा की जाती है। इस दिन निराहार रहकर सायंकाल स्नान करने के बाद सफेद वस्त्रों में संध्या आदि करके शिव का पूजन किया जाता है। प्रदोष व्रत को करने से हर प्रकार का दोष मिट जाता है।
व्रत महात्म्य
इस व्रत के महात्म्य को गंगा नदी के तट पर किसी समय वेदों के ज्ञाता और भगवान के भक्त श्री सूत जी ने सौनकादि ऋषियों को सुनाया था। सूत जी ने कहा है कि कलियुग में जब मनुष्य धर्म के आचरण से हटकर अधर्म की राह पर जा रहा होगा, हर तरफ अन्याय और अत्याचार का बोलबाला होगा, मानव अपने कर्त्तव्य से विमुख होकर नीच कर्म में संलग्न होगा, उस समय प्रदोष व्रत ऐसा व्रत होगा जो मानव को शिव की कृपा का पात्र बनाएगा और नीच गति से मुक्त होकर मनुष्य उत्तम लोक को प्राप्त होगा। त्रयोदशी की रात्रि के प्रथम प्रहर में जो व्यक्ति किसी भेंट के साथ शिव प्रतिमा का दर्शन करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। सूत जी ने सौनकादि ऋषियों को यह भी कहा कि प्रदोष व्रत के पुण्य से कलियुग में मनुष्य के सभी प्रकार के कष्ट और पाप नष्ट हो जाएंगे। यह व्रत अति कल्याणकारी है, इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य को अभीष्ट की प्राप्ति होगी। इस व्रत में अलग-अलग दिन के प्रदोष व्रत से क्या लाभ मिलता है, यह भी सूत जी ने बताया। सूत जी ने सौनकादि ऋषियों को बताया कि इस व्रत के महात्म्य को सर्वप्रथम भगवान शंकर ने माता सती को सुनाया था। मुझे यही कथा और महात्म्य महर्षि वेदव्यास जी ने सुनाया और यह उत्तम व्रत महात्म्य मैंने आपको सुनाया है।
प्रदोष व्रत विधान
सूत जी ने कहा है कि प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी के व्रत को प्रदोष व्रत कहते हैं। सूर्यास्त के पश्चात रात्रि के आने से पूर्व का समय प्रदोष काल कहलाता है। इस व्रत में महादेव भोले शंकर की पूजा की जाती है। इस व्रत में व्रती को निर्जल रहकर व्रत रखना होता है। प्रातःकाल स्नान करके भगवान शिव की बेलपत्र, गंगाजल, अक्षत, धूप, दीप सहित पूजा करें। संध्या काल में पुनः स्नान करके इसी प्रकार से शिव जी की पूजा करना चाहिए। इस प्रकार प्रदोष व्रत करने से व्रती को पुण्य मिलता है।
महत्त्व
सप्ताह के सातों दिन के प्रदोष व्रत का अपना विशेष महत्त्व है। रविवार के दिन प्रदोष व्रत आप रखते हैं तो सदा निरोग रहेंगे। सोमवार के दिन व्रत करने से आपकी इच्छा फलित होती है। मंगलवार को प्रदोष व्रत रखने से रोग से मुक्ति मिलती है और आप स्वस्थ रहते हैं। बुधवार के दिन इस व्रत का पालन करने से सभी प्रकार की कामना सिद्ध होती है। बृहस्पतिवार के व्रत से शत्रु का नाश होता है। शुक्रवार प्रदोष व्रत से सौभाग्य की वृद्धि होती है। शनिवार प्रदोष व्रत से पुत्र की प्राप्ति होती है। जो व्रत करना हो, उस वार को पड़ने वाली त्रयोदशी का चयन करें तथा उसी वार के अनुसार कथा पढ़ें-सुनें।
रवि त्रयोदशी प्रदोष व्रत
किसी समय सभी प्राणियों के हितार्थ परम् पुनीत गंगा के तट पर ऋषि समाज द्वारा एक विशाल सभा का आयोजन किया गया, जिसमें व्यास जी के परम् प्रिय शिष्य पुराणवेत्ता सूत जी महाराज हरि कीर्तन करते हुए पधारे। सौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि-मुनिगण ने सूत जी को दंडवत् प्रणाम किया। सूत जी ने भक्ति भाव से ऋषिगण को आशीर्वाद देकर अपना स्थान ग्रहण किया। ऋषिगण ने विनीत भाव से पूछा, ‘हे परम् दयालु! कलियुग में शंकर भगवान की भक्ति किस आराधना द्वारा उपलब्ध होगी? कलिकाल में जब मनुष्य पाप कर्म में लिप्त हो, वेद-शास्त्र से विमुख रहेंगे।
दीनजन अनेक कष्टों से त्रस्त रहेंगे। हे मुनिश्रेष्ठ! कलिकाल में सत्कर्म में किसी की रुचि न होगी, पुण्य क्षीण हो जाएंगे एवं मनुष्य स्वतः ही असत् कर्मों की ओर प्रेरित होगा। इस पृथ्वी पर तब ज्ञानी मनुष्य का यह कर्त्तव्य हो जाएगा कि वह पथ से विचलित मनुष्य का मार्गदर्शन करे, अतः हे महामुने! ऐसा कौन-सा उत्तम व्रत है जिसे करने से मनवांछित फल की प्राप्ति हो और कलिकाल के पाप शांत हो जाएं?’ सूत जी बोले, ‘हे सौनकादि ऋषिगण! आप धन्यवाद के पात्र हैं। आपके विचार प्रशंसनीय व जनकल्याणकारी हैं। आपके हृदय में सदा परहित की भावना रहती है, आप धन्य हैं। हे सौनकादि ऋषिगण! मैं उस व्रत का वर्णन करने जा रहा हूं जिसे करने से सब पाप और कष्ट नष्ट हो जाते हैं तथा जो धन वृद्धि-कारक, सुख प्रदायक, संतान व मनवांछित फल प्रदान करने वाला है। इसे भगवान शंकर ने सती जी को सुनाया था।’ सूत जी आगे बोले, ‘आयु वृद्धि व स्वास्थ्य लाभ हेतु रवि त्रयोदशी प्रदोष का व्रत करें। इसमें प्रातः स्नान कर निराहार रहकर शिव जी का मनन करें। मंदिर जाकर शिव आराधना करें। माथे पर त्रिपुण धारण कर बेल, धूप, दीप, अक्षत व ऋतु फल अर्पित करें। रुद्राक्ष की माला से सामर्थ्यानुसार ‘ओउम नमः शिवाय’ जपें। ब्राह्मण को भोजन कराएं और दान-दक्षिणा दें। तत्पश्चात्त मौन व्रत धारण करें। संभव हो तो यज्ञ-हवन कराएं। ‘ओउम हृं क्लीं नमः शिवाय स्वाहा’ मंत्र से यज्ञ-स्तुति दें। इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। प्रदोष व्रत में व्रती एक बार भोजन करे और पृथ्वी पर शयन करे। इससे सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। श्रावण मास में इस व्रत का विशेष महत्त्व है। सभी मनोरथ इस व्रत को करने से पूर्ण होते हैं।’
व्रत कथा
एक ग्राम में एक दीन-हीन ब्राह्मण रहता था। उसकी धर्मनिष्ठ पत्नी प्रदोष व्रत करती थी। उनके एक पुत्र था। एक बार वह पुत्र गंगा स्नान को गया। दुर्भाग्यवश मार्ग में उसे चोरों ने घेर लिया और डराकर उससे पूछने लगे कि उसके पिता का गुप्त धन कहां रखा है। बालक ने दीनतापूर्वक बताया कि वे अत्यंत निर्धन और दुःखी हैं। उनके पास गुप्त धन कहां से आया? चोरों ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसे छोड़ दिया। बालक अपनी राह हो लिया। चलते-चलते वह थककर चूर हो गया और बरगद के एक वृक्ष के नीचे सो गया। तभी उस नगर के सिपाही चोरों को खोजते हुए उसी ओर आ निकले। उन्होंने ब्राह्मण-बालक को चोर समझकर बंदी बना लिया और राजा के सामने उपस्थित किया। राजा ने उसकी बात सुने बगैर उसे कारावास में डलवा दिया। उधर बालक की माता प्रदोष व्रत कर रही थी। उसी रात्रि राजा को स्वप्न आया कि वह बालक निर्दोष है। यदि उसे नहीं छोड़ा गया तो तुम्हारा राज्य और वैभव नष्ट हो जाएगा। सुबह जागते ही राजा ने बालक को बुलवाया। बालक ने राजा को सच्चाई बताई। राजा ने उसके माता-पिता को दरबार में बुलवाया। उन्हें भयभीत देख राजा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘तुम्हारा बालक निर्दोष और निडर है। तुम्हारी दरिद्रता के कारण हम तुम्हें पांच गांव दान में देते हैं।’ इस तरह ब्राह्मण आनंद से रहने लगा। शिव जी की दया से उसकी दरिद्रता दूर हो गई।
शिवांशु 'निर्भयपुत्र'