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गुरुवार, 3 जून 2021

त्रासदी में सरकार का दोष नहीं, बताने का प्रयास

वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी के माध्यम से ये बताया जा रहा है कि ये वैश्विक महामारी है और हर देश प्रभावित है, इसलिए मोदी जी बेचारे क्या कर सकते हैं। इस नरेटिव से सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने का प्रयास जारी है, जबकि सच्चाई यह है कि दुनिया में कोविड के दूसरे लहर का सबसे ज़्यादा असर भारत पर ही पड़ा है। जिस देश का जन स्वास्थ्य तंत्र सुदृढ़ है, वहां इसका असर अपेक्षाकृत कम हुआ।

कोरोना वायरस महामारी के काल में भले ही सभी विश्वविद्यालय बंद हैं, लेकिन वॉटसऐप यूनिवर्सिटी की सक्रियता बदस्तूर जारी है। लोग भले ही महामारी से निपटने में सरकार की विफलता और लापरवाही पर सवाल खड़े कर रहे हों लेकिन वॉटसऐप यूनिवर्सिटी का रिसर्च एक अलग ही नरेटिव खड़ा करने की कोशिश में है। पहला नरेटिव लोगों को सकारात्मक बने रहने की सीख देना है। यह सच है कि इस आपदा का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है, लेकिन इस मनोवैज्ञानिक पक्ष को सरकार को बचाने के लिए किया जा रहा है।

इस अभियान में आरएसएस प्रमुख से लेकर तमाम स्वयंभू बाबाओं को लगा दिया गया है। सकारात्मकता के इस अभियान का मक़सद लोगों में यह धारणा उत्पन्न करना है कि कोरोना महामारी का समाधान स्प्रिचुअल यानी आध्यात्मिक है और जब समाधान आध्यात्मिक है तो सरकार से क्यों सवाल जवाब करना? वैक्सीन और ऑक्सीजन को निर्यात कर क्यों विदेश भेजा गया? ‘विश्वगुरु’ किस प्रकार कोरोना से अपने नागरिकों को बचा रहा? क्यों महामारी के बचाव से संबंधित उपकरणों (वेंटिलेटर, टेस्ट किट, पीपीई, ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर) आदि पर जीएसटी लगाया जा रहा है? क्यों नहीं इस महामारी में इन उत्पादों को मुफ्त या बिल्कुल न्यूनतम दरों पर उपलब्ध कराया जा रहा? पीएम केयर्स फंड के पैसे किस मद में खर्च किए गए?

ऐसे तमाम सवाल लोग फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया साइट्स पर सरकार से पूछ रहे हैं। वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी को यह उम्मीद है कि पाज़िटिव अनलिमिटेड जैसे प्रोग्राम के तहत को अधिक से अधिक संदेश फॉर्वर्ड कर ऐसे सवालों से बचा जा सकता है। दूसरा नरेटिव ये बताने का है ये वैश्विक महामारी है और हर देश प्रभावित है इसलिए मोदी जी बेचारे क्या कर सकते हैं। इस नरेटिव से सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने का हरसंभव प्रयास जारी है। जबकि सच्चाई यह है कि दुनिया में कोविड के दूसरे लहर का सबसे ज़्यादा असर भारत पर ही पड़ा है।

इसके साफ़ मायने हैं कि जिस देश का जन स्वास्थ्य तंत्र सुदृढ़ है, वहां इस वायरस का असर अपेक्षाकृत कम हुआ। जिन देशों ने समय रहते अपने नागरिकों को वैक्सीन लगवा दिया, वहां समस्या गंभीर नहीं हुई। दूसरी तरफ़ भारत में मौत और संक्रमण के आंकड़े को ही छिपाने का सरकारी प्रयास जारी है। मिडिया के अनुसार, कोविड-19 की दूसरी लहर से भारत में 42 लाख लोगों की मौत हो चुकी है और 70 करोड़ लोग इस वायरस से संक्रमित हो चुके हैं। देश-दुनिया की मीडिया प्रधानमंत्री मोदी की असफलता और लापरवाही पर सवाल खड़ा कर रहा है। विभिन्न उच्च न्यायालयों ने मोदी सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर सवाल भी उठाया है।

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, फरवरी 2020 के आखिरी हफ़्ते में जब निर्वाचन आयोग ने विधानसभा चुनाव के लिए तारीख़ों का ऐलान किया, तब पश्चिम बंगाल में कोरोना के रोज़ाना 200 से कम पॉज़िटिव केस आ रहे थे, लेकिन आख़िरी चरण तक आते-आते यह आंकड़ा प्रतिदिन क़रीब 900 प्रतिशत बढ़कर 17,500 के ऊपर पहुंच गया। पश्चिम बंगाल में 2 मार्च तक एक भी व्यक्ति की मौत इस वायरस के कारण नहीं हुई थी, लेकिन 2 मई यानी मतगणना के दिन यह आंकड़ा 100 के पार चला गया। डब्ल्यू  तो बड़े धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों को कोरोना फैलाने वाला सुपरस्प्रेडर आयोजन की संज्ञा तक दे दी। इतना ही नहीं अनगिनत तैरती लाशों ने गंगा को शववाहिनी गंगा में तब्दील कर दिया।

तीसरा नरेटिव यह कि केंद्र सरकार की कोई गलती नहीं, सारा दोष राज्य सरकारों का है, जबकि सच्चाई यह है कि महामारी अधिनियम के तहत राज्य सरकार का कार्य लागू करना है। सरकार द्वारा शक्ति का केंद्रीकरण और राज्यों को दोष देना एक साथ नहीं चल सकता। एक तरफ़ तो केंद्र सरकार वैक्सीन प्रमाण पत्र पर प्रधानमंत्री की तस्वीर लगा रही है, वहीं दूसरी तरफ़ वैक्सीन की उपलब्धता बढ़ाने के लिए राज्यों को खुले बाज़ारों के हवाले कर दिया है।

चौथे नरेटिव का प्रोपेगेंडा यह है कि यह दूसरी लहर है ही नहीं, ये तो भारत पर जैविक हमला है, जबकि सच्चाई बिल्कुल भिन्न है। भारत सरकार ने किसी भी स्तर पर ऐसे किसी भी जैविक हमले की बात नहीं की है। रॉ और इंटेलिजेंस ब्यूरो समेत किसी भी सरकारी संस्था ने अब तक ऐसे किसी भी जैविक हमले की आशंका तक ज़ाहिर नहीं की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत समेत दुनिया के हेल्थ एक्सपर्ट ने भी जैविक हमले की संभावना से इनकार किया है। इन सारे झूठे और मनगढ़ंत प्रोपेगेंडा के अतिरिक्त लोगों का ध्यान भटकाने के लिए ट्विटर पर टूलकिट का सहारा भी लिया गया। एक टूलकिट से यह बताने असफल प्रयास किया गया कि कैसे कांग्रेस पार्टी भाजपा और मोदी सरकार को बदनाम कर रही है।

जब ट्विटर ने भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा के टूलकिट वाले ट्वीट को मैनिपुलेटेड मीडिया का टैग दे दिया यानी जान-बूझकर भ्रामक ट्वीट की श्रेणी में रख दिया तो मोदी सरकार ने ट्विटर को ही धमकाते हुए उसके कार्यालय में छापा तक मार दिया। इन सबसे भी पब्लिक ओपिनियन बदलता न देख एक नया शिगूफ़ा छोड़ते हुए आयुर्वेद बनाम एलोपैथी का बहस देश में खड़ा कर दिया गया है और इस कार्य में रामदेव को लगा दिया गया।

जहां आरोप यह लग रहा था कि लोग बिना इलाज के मर रहे हैं, वहीं अब बहस यह खड़ा करने की कोशिश है कि लोग तो एलोपैथी इलाज के कारण मर रहे। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि इस आपदा में जहां सैकड़ों डॉक्टर ने अपनी जान गंवाई आज उन्हीं डॉक्टरो को विरोध प्रदर्शन करना पड़ रहा है। इतना ही नहीं विभिन्न चिकित्सा पद्धति को अलग-अलग धर्मों से जोड़कर दिखाया जा रहा है जिससे कि इस महामारी में भी सांप्रदायिक राजनीति की जा सके। इस आपदा में केंद्र की मोदी सरकार को अपने नागरिकों के सवाल का जवाब देना चाहिए था। स्वास्थ्य व्यवस्था ठीक करनी चाहिए थी, लेकिन सरकार इन सब के बजाय किसी भी क़ीमत पर अपनी छवि बचाने के काम में अधिक गंभीर जान पड़ती है। सवाल यह है कि क्या इस भीषण त्रासदी के बाद भी जनता समझ पाएगी कि उसकी जान की क़ीमत वोट से अधिक कुछ भी नहीं।

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