बुधवार, 11 अक्तूबर 2023
विरोध की चिंगारी 'संपादकीय'
शनिवार, 26 अगस्त 2023
आधुनिक भारत 'संपादकीय'
रविवार, 20 अगस्त 2023
302 धारा, 301 'संपादकीय'
शुक्रवार, 21 जुलाई 2023
प्यार की परिभाषा 'संपादकीय'
प्यार की परिभाषा 'संपादकीय'
अब सीमा के पास घुटन भरे जीवन के अलावा कोई रास्ता शेष नहीं रह गया है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी जांच में जुट गई है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के तनावपूर्ण संबंधों में सीमा और तनाव बढ़ाने का काम पहले ही कर चुकी है। अवैध रूप से भारत में प्रवेश करने से आशंकाओं का दायरा भी बढ़ गया है।
परंतु जिस धैर्य और विश्वास पूर्ण सहजता से सीमा पत्रकारों से बात करती है। उनके सवालों का रटा-रटाया या सही सही जवाब देती है। इसके कारण दूसरे पहलू पर भी गौर करने की आवश्यकता है। कहा जाता है कि प्रेम मर्यादाओं के बंधन से मुक्त होता है, जिसकी कोई उम्र नहीं होती है, कोई मापदंड या पैमाना भी नहीं होता है। प्यार में उत्पन्न भावनाओं को बांधकर रखने वाले किसी पिंजरे का भी अभी तक अविष्कार नहीं हुआ है। प्यार में लोग कातिल हो गए हैं, प्यार में लोग फना हुए हैं। धरती पर तो ऐसी कोई जगह नहीं है जहां प्यार नहीं है। प्यार है तो कहानियां और किस्से भी बहुत है। आए दिन हम रूबरू होते हैं कि पत्नी ने प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या कर दी। पति ने प्रेमिका के लिए पत्नी की हत्या कर दी। चार बच्चों की मां, 6 बच्चों के मां-बाप, 45-50 साल की औरत या आदमी किसी के साथ चली गईं अथवा लेकर भाग गया ? युवा वर्ग की तो बात छोड़िए, केवल बालिग होने का इंतजार करते हैं फिर वह किसी के बाप की नहीं सुनते हैं। बल्कि यहां तक कहा गया है कि 'प्यार की कोई परिभाषा ही नहीं होती' है।
सीमा के कथन के अनुसार सीमा की कहानी रोमांच तो उत्पन्न करती ही है, साथ ही साथ सोचने के लिए विवश भी करती है। सीमा का आत्मविश्वास जांच एजेंसियों के लिए चुनौती बना हुआ है। यदि सीमा के इस नाटक के पीछे भारत विरोधी सोच अथवा गतिविधियों में संलिप्त है तो उसे अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत दंडित किया जाना चाहिए। परंतु यदि सीमा अपने प्यार को पाने के लिए यह सब कर रही है, तब उसकी हिम्मत की दाद देनी चाहिए। परस्पर एक-दूसरे के विरोधी दो देशों के बीच संबधो को दरकिनार कर, अपनी जान हथेली पर रखकर, दुस्सह रास्ते पर, भयानक झंझावतों को भेदकर, अपने प्यार तक पहुंचने में कितनी यातनाओं का सामना किया होगा ? इसका अनुमान लगाना कठिन है। चार बालकों सहित धर्मांतरण करना और 27 वर्षों तक जिन संस्कारों और सभ्यता में रही है, उसे त्याग कर नवीन संस्कार और सभ्यता का वरन करना साहसिक कार्य है।यदि सीमा सच्चे प्यार के वशीभूत सब बंधन, सीमाएं और मर्यादाओं को त्याग कर, अपना प्यार पाना चाहती है, भारत में अपना जीवन व्यतीत करना चाहती है, ऐसी स्थिति में मानवीय आधार पर उसकी सहायता की जानी चाहिए।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'
बुधवार, 12 जुलाई 2023
रिश्तों का तराजू 'संपादकीय'
रिश्तों का तराजू 'संपादकीय'
मैंने निभाया है हर रिश्ते को ईमानदारी से,
यकीन मानो कुछ नहीं मिलता इस वफादारी से।
अवतरण दिवस के बाद से ही रिश्तों की डोर में बंधा आदमी कदम-कदम पर अपने-पराये की अटूट श्रृंखला की कड़ी बनकर रह जाता है।
जीवन के अग्नि पथ पर हर लम्हा समर्पण भाव लिए स्वभाव के संरक्षण में अपनी निरन्तरता बनाएं रहता है। उम्र के गुजरते लम्हे धीरे-धीर जब परिपक्वता की परिधी में पहुंच जाते हैं, स्वयं की सम्वेदना निज हित को सर्वोपरि मानते हुए दिन रात सामाजिकता के आवरण को मजबूत कर इस स्वार्थी दुनिया के रस्मों रिवाज में अहर्निश सुख सम्पदा के उन्मोचन में सुख-चैन को त्याग कर, सुखद भविष्य की चाहत में खुद आहत रह कर भी
तरक्की की राह पर अपनों को अग्रसर करने के लिए हर दर्द को सह जाता है। बदलता परिवेश जिस विशेष वातावरण का निर्माण कर रहा है, उसमें तो एक निश्चित अवधि के पार होते ही जो कल तक अपने थे सपने कि बात बन जा रहे हैं।परिवर्तन की पराकाष्ठा देखिए साहब! आधुनिकता के इस अघोषित युद्ध में लोगों की मानसिकता जिस तरह प्रबुद्ध होने का एहसास करा रही है, वह भारतीय परम्परा भारतीय संस्कृति में कभी शामिल नहीं रही है।
इस देश में तो सदियों से मातृ देवो भव: पितृ देवो भव: का सारगर्भित सम्मान सर्वोपरि रहा है।
मगर, इस भौतिक वादी युग में रिश्तों की अहमियत खत्म हो गई। डंकल प्रजाति के नए रिश्तों से समाज सम्बृध हो रहा है।पुरातन काल के सम्बन्ध जो पौराणिक अनुबन्ध पर कायम थे, अब विलुप्त हो चले हैं।आधुनिकता के प्रथम चरण में ही सामाजिक सम्बन्धों की परिभाषा बदल गई। अब वह परम्परा परिवर्तित हो गई, जिसमें शान से कहा जाता, जिस जाति धर्म में जन्म लिया, बलिदान उसी में हो जाए !
जननी जन्म भुमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ! खुशहाल जीवन के महकते उपवन में जिस दिन उर्वशी का आगमन हुआ, उसी दिन खुशी पर ग्रहण लग गया। रिश्ते दरकने लगा, घर परिवार खटकने लगा। उसमें भी अगर नौकरी है तो सोने में सुहागा। वह पथिक जो जीवन भर कठिन राहों पर अपनों के लिए नंगे पांव भटकता रहा, उसके नसीब में खुशी करीब आकर दूर चली गई, जिसके आसरे सारे ख्वाब सजाए थे, जीवन उस पर तुषारापात हो गया।
सम्बन्धों की तुरपाई जब मोहब्बत के धागे से होती है, तब जाकर अपनापन वजूद मुस्कराता है ।लेकिन आजकल तो एक नई व्यवस्था ने ऐसी आस्था को प्रतिपादित किया है, जिसके चक्रव्यूह में जो एक बार फंस गया, वह अपना समूल नाश कर मूल को भूल जाता है। जीवन की जगमगाती ज्योति को आंधियों के हवाले करने की नवसृजित परम्परा भारतीय संस्कृति को विनाश के तरफ ले जा रही है। विघटित होते संयुक्त परिवार एकाकी जीवन की संकल्पना का आधार बन रहे हैं। पुरातन भारतीय जीवन पद्धति अब कल की बात हो गई। घर विरान हो रहे है, अनाथ आश्रम तथा बृद्धा आश्रम आबाद हो रहे हैं। शहर से लेकर गांव तक बदल गए। हर तरफ गजब की उदासी है, हर तरफ गम जदा मंजर है। वैमनस्यता की देवी पूजी जा रही घर-घर है।
अब रिश्तों का तोल नहीं,
मां-बाप अनमोल नहीं।
आने वाला कल विकल भाव लिए एकल जीवन का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।
सबके करीब जाना,
मेरी मजबूरी तो नहीं।
हर ज़ख्म दिखाऊं, रोऊं...
ये जरुरी तो नहीं।
देख लिया है जीकर,
मैंने सबके लिए।
बिना मेरे ज़िन्दगी,
किसी की अधूरी तो नहीं।
जगदीश सिंह
बुधवार, 5 जुलाई 2023
एक-एक बूंद पानी 'संपादकीय'
एक-एक बूंद पानी 'संपादकीय'
जिसके पांव न फटी बिवाई,
वो क्या जाने पीर पराई ?
प्रचंड प्रत्यंचा पर आरुढ भीषण गर्मी का प्रहार जन-जन को आहत करने का कार्य कर रहा है। अत्याधुनिक समाज में समर्थवान और सुविधा भोगी वर्ग को दरकिनार कर दिया जाए तो देश की 52 प्रतिशत आबादी इस भीषण गर्मी का तरह-तरह से दंश झेल रही है और विभिन्न तरह की पीड़ा सहती है। "यह विधाता ने जनता के भाग्य में नहीं लिखा है।" यह राज्यों और राष्ट्र में सत्तारूढ़ प्रजापतियों की देन है। जो केवल और केवल किसी भी क्रिया अनुरूप अधिपत्य प्राप्त करना चाहते हैं। राज धर्म से विमुख कोई भी राजनेता जन संरक्षक कैसे हो सकता है?
वर्तमान समय में संपूर्ण देश पेयजल की विकट समस्या से जूझ रहा है। 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश में 14 वर्ष से कम आयु के 1000 बालक प्रत्येक घंटे में अतिसार का शिकार हो जाते हैं। अशुद्ध पेयजल से होने वाली यह बीमारी देश में प्रति घंटा 1000 बच्चों को निगल जाती है। भाजपा सरकार में कई विधायक और सांसद ऐसे हैं, जिन्होंने पेयजल को कभी गंभीरता से नहीं लिया। उत्तर प्रदेश की लोनी विधानसभा से विधायक ने तो 1 प्याऊ तक नहीं लगवाई। हालांकि ऐसे खोखले जनप्रतिनिधित्व को जनता एक सिरे से खारिज कर देती है। किंतु परिणाम स्वरूप भोली-भाली जनता को कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है? जो व्यक्ति अनुभव कर सकता है, वही 'एक-एक बूंद पानी' का मूल्य समझ सकता है।
2014 से मोदी नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने 'स्वच्छ भारत अभियान' का आगाज किया था। जिसमें भारत को 2019 तक स्वच्छ पेयजल प्रदान करने का लक्ष्य रखा गया था। परंतु राजनीतिक चिंताओं में सभी विदूषक इसमें असफल सिद्ध हुए। पेयजल की वस्तुतः परिभाषा को देश की आधे से अधिक आबादी समझती ही नहीं है। इसी कारण किसी राजनेता ने इसे चुनौतीपूर्ण विषय ही नहीं समझा। संपूर्ण भारत के 196 लाख घरों में उपयोग होने वाले पानी में फ्लोराइड और आर्सेनिक जैसे खतरनाक रसायन मौजूद है। जो मानव जीवन को पीड़ा कारक बनाने के लिए काफी है। देश के 718 जनपदों में दो तिहाई हिस्सों में पेयजल की अत्यधिक कमी है।
रिपोर्ट के मुताबिक देश में 3 करोड़ भूजल आपूर्ति केंद्रों (बोरिंग) से ग्रामीण क्षेत्रों में 85 प्रतिशत एवं नगरीय क्षेत्रों में 48 प्रतिशत पेयजल आपूर्ति की जा रही है। कुल आबादी में 30 प्रतिशत आबादी पेयजल संकट से जूझ रही है। इस विषय पर राज्य स्तरीय एवं राष्ट्र स्तरीय कमेटियों का गठन किया जाता रहा है। परंतु इस विकराल समस्या के स्थाई समाधान की कोई योजना धरातल पर उपस्थित नहीं है। देश की जनता की आवश्यकता और अपेक्षा अनुरूप कोई कार्य नहीं किया गया है। जनता को मीठे स्वप्न दिखाने के बजाय कटु सत्य से अवगत कराना चाहिए। संभवत नागरिक स्वयं समस्या का समाधान करने का प्रयास करेगा।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'
बुधवार, 25 जनवरी 2023
गणतंत्र दिवस 'संपादकीय'
गणतंत्र दिवस 'संपादकीय'
'भारत' देश है हमारा,
संविधान पर विवाद नहीं।
'सभ्यता' सबसे पहले आई,
भाषा पर संवाद नहीं।
भारतीय परंपराओं के अनुरूप, भारत में हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में वर्षों पहले 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था। जब से यह परंपरा जारी है। इसके साथ ही आपको बताते चलें, कि भारत में हर साल 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) को राष्ट्रीय अवकाश रहता है। इस बार यह 74वां गणतंत्र दिवस है। इसके पश्चात आपको यह खास एवं महत्वपूर्ण बात भी बताते चलें, कि भारत ही दुनिया का एक ऐसा देश है, जिसकी भारतीय संविधान में लिखित 'राष्ट्रभाषा' कोई भी नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए एक नज़रिए से देखा जाएं, तो यह एक 'गर्व' की बात है और 'चिंता' की भी...।
'गर्व' की बात इसलिए है, क्योंकि दुनिया में केवल भारत ही एक ऐसा देश है, जिसकी भारतीय संविधान में लिखित राष्ट्रभाषा कोई भी नहीं है और हिंदी को राजभाषा की उपाधि दी गई है। ज्यादातर 'हिंदी' भाषा का प्रयोग भारत में किया जाता है। भारत के अलावा, हिंदी का प्रयोग बहुत ही कम देशों में किया जाता है। इसलिए, यह एक गर्व की बात है।
'चिंता' की बात इसलिए है, क्योंकि दुनिया में भारत एक अकेला देश है, जिसकी भारतीय संविधान में लिखित राष्ट्रभाषा कोई भी नहीं है, तथा बाकी सभी देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा है। इसलिए, यह एक चिंता की बात है।बहरहाल, आपको यह जरूर बता दें, कि 'हिंदी' भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, बल्कि राजभाषा है।
चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'
सोमवार, 23 जनवरी 2023
गुरबत का सांप 'संपादकीय'
गुरबत का सांप 'संपादकीय'
कभी-कभी जिंदगी में,
ऐसा समय आता है।
एक निर्जीव पत्थर भी,
जीवन बन जाता है।
विश्व के आलेखन के अनुसार, विश्व में अक्सर अनेकों तरह के अजूबे होते रहते है। इसके अनुरूप पृथ्वी पर प्रकट हुए अनेक प्रकार के सांप पत्थरों पर चलना ही अधिक पसंद करते है। लेकिन, इन सबसे अलग एक सांप, जिसे 'गुरबत का सांप' कहा जाता है। वह ना दिखता है, ना चलता है, ना उड़ता है और ना तैरता है। वह फिर भी 'गुरबत का सांप' कहलाता है। वर्तमान में देखा जाए, तो भारत में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर 'गुरबत का सांप' सवार है। उसके पश्चात अब 'गुरबत के सांप' के कटघरे में भाजपा आ गई है। हालांकि, यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता है। वैसे, एक नजरिए से देखा जाएं, तो कुछ-कुछ ऐसा ही लगता है। इसके बाद भी इस मामले की गंभीरता से पुष्टि नहीं हुई है। फिर भी यह एक कड़वा सच लगता है।
कोविड-19 महामारी से बचाव हेतु अभियान चलाया गया था। टीकाकरण अभियान भाजपा की 'भयावह' रणनीति का एक अहम हिस्सा है। इसके अतिरिक्त आपको यह भी बताते चलें, कि (कोविड-19) महामारी को मजाक में लेना, भारी पड़ सकता है। दुनिया भर में अभी तक कोरोना के कुल केसों की संख्या-66,86,46,404 हो गई। इसके साथ-साथ अभी तक कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या-67,38,653 हो गई। इससे अधिक खास बात यह है, कि दुनिया भर में कोरोना की कुल 13,22,61,15,781 खुराकें दी गईं।
इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है, कि भारत में बीते वर्ष-2020 में कोविड-19 महामारी का आर्थिक प्रभाव काफी हद तक विघटनकारी रहा है। सांख्यिकी मंत्रालय के अनुसार, वित्त वर्ष 2020 की चौथी तिमाही में भारत की विकास दर घटकर 3.1% रह गई। भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने कहा, कि यह गिरावट मुख्य रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोरोना वायरस महामारी के प्रभाव के कारण है। विशेष रूप से, भारत भी महामारी से पहले मंदी का सामना कर रहा था और विश्व बैंक के अनुसार, कोरोना वायरस महामारी ने "भारत के आर्थिक दृष्टिकोण के लिए पहले से मौजूद जोखिमों को बढ़ा दिया है"।
(कोविड-19) महामारी भी एक 'गुरबत के सांप' की तरह ही है, जो अगर किसी पर चिपक जाएं, तो छाप मारकर ही दम लेती है। अगर एक अलग दृष्टिकोण से देखा जाए, तो इसमें भाजपा की एक महत्वपूर्ण भूमिका एवं प्रतिस्पर्धा भी हो सकती है। भाजपा की सख्त नजर भी, एक 'गुरबत के सांप' की तरह ही है।
चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'
मंगलवार, 13 दिसंबर 2022
जीवनकाल 'संपादकीय'
जीवनकाल 'संपादकीय'
'लिबास' देखकर हमें गरीब न समझ,
हमारे 'शौक़' ही तेरी जायदाद से ज्यादा है।
आजकल युवा पीढ़ी फैशन परस्ती में लोक-लाज, लिहाज सब भूलकर भारतीय संस्कृति का अपमार्जन करते हुए, अपमान की सभ्यता को तवज्जो देने लग गई है। जबसे पाश्चात्य सभ्यता ने दस्तक दी है, भारतीय संस्कृति का विलोपन होने लगा है। हर कोई पराया हो गया, कोई भी सगा नहीं है। रहन-सहन, पहनावा दिखावे का प्रचलन जोर पकड़ रहा है। जिधर देखिए देहउघारु कपड़े का चलन है। राह चलते आए दिन छेड़खानी और लफड़े होते हैं। सुन्दर काया लिए आज का आदमी पाश्चात्य पहनावा में जोकर लग रहा है। फिर भी गुमान है, हम आधुनिक इन्सान है? गजब साहब कभी सिर पर पल्लू रखें महिलाओं घर से निकलती थी तो उनके संस्कार का बखान होता था। परिवार का उनका चाल-चलन देखकर नाम होता था वो भी कोशिश करती थी कि राह चलते पैर का अंगूठा भी न दिखे। मगर आज साहब क्या बात है आधुनिक जमाने की पढ़ी लिखी जनरेशन का फैसला देखिए।
कोशिश करती है विवाह के मंडप में ही उसका सब कुछ सब लोग देखे? गजब गिरावट है। अब तो कुछ भी नहीं बचा। जिसमे नहीं होती मिलावट है। पुरानी पीढ़ी जो हिन्दुस्तानी संस्कृति के पहचान थी अब समापन के तरफ है। धोती कुर्ता सदरी का प्रचलन खत्म हो रहा है। फटा जीन्स पैन्ट फटी कमीज़ बिना तमीज सड़कों पर आवारा गर्दी किसी ने रोका तो बिना लाग लपेट बोल देते है यह हमारी मर्जी। अगर सलीके से साड़ी बांधे औरत और धोती कुर्ता में कोई मर्द दिखा तो जाहील गंवार गरीब अनपढ़ कहकर उपहास आज की युवा पीढ़ी करती है। उनको पता ही नहीं है की यही हमारी पहचान यही हमारी धरोहर है। इसी से हमारी शान है। यही आर्यावर्त, भारत, हिन्द,का असली हिन्दुस्तान है? मगर बदलते परिवेश में बदलाव की जो हवा विषाक्त वातावरण का निर्माण कर रही है। उसकी चपेट में आकर आज का वातावरण पूरी तरह प्रदूषित हो चला है।
शहरो में दिखावा फ़ूहड़ पहनावा फैसन मस्ती फैसन परस्ती आम बात है। वहां उनका अलग मिजाज अलग जज़्बात है। लेकिन गांव जहा भोले भाले लोग आपसी मुखालफत में भी सराफत लिए आपसी भाई चारा के साथ पुरातन परम्परा के अनुगामी रहे है। आज वहां भी फैसन परस्ती ने बदनामी का मंजर तैयार कर दिया है। पूरुष हो या महिलाएं शर्म, हया, लाज लिहाज खत्म होता जा रहा है।पर्दा के भीतर जो मर्यादा सुरक्षित थी। आज बिना पर्दा खुलेआम बेशर्मी की सारी हदें पार कर रही है। नंगापन, फूहडपना,देह शउघारू कपड़ों का प्रचलन, जोर पकड़ लिया है।
अब पहले वाली बात गांवों में नहीं रही निरंकुश ब्यवस्था उफान पर है। घर का मुखिया दुखिया बना बर्बाद होते परिवार को देखकर कूढ रहा है। मगर हालात दिन पर दिन बेकाबू हो रहा है। न किसी का डर न किसी का लिहाज। घर घर बर्बादी का दीपक जल रहा है। आज, कितना बदल गया समाज। जो कुछ पहले था ठीक उसके उल्टा हो गया। इस बदलाव के मौसम में आदमी की पहचान उसके मान सम्मान स्वाभिमान से नहीं उसके मकान से मापा जा रहा है।उसकी हैसियत उसके कपड़ों से नापा जा रहा है। जिसके पास इज्जत का खजाना है। वह सबसे पिछड़ा है समाज में बेगाना है।जिनका जितना दिखावा आधुनिक पहनावा है उसी का जमाना है। समय के जिस तरह दरिया बदलता उसी तरह वक्त अपना नजरिया बदलता रहता है।अब न पुरातन संस्कार रहे। न पुरातन घर परिवार रहे। न लोगों में आपसी सद्भावना रहा। बिखराव बहाव का अन्धड चल रहा है। मजबूरी में आंखें बन्द करना है। अब न कोई रिश्ता है। न कोई फरिश्ता है। स्वार्थ की दरिया में उफान है।
साथ तभी तक है जब तक जरूरत पूरी नहीं होती है। ज्योही ज़िन्दगी की कश्ती झंझावात करती हवाओं से बचकर साहिल पर लंगर डाली वहीं औलाद बेगाना होगा गई ज्योहीं मिल गई घर वाली। अरमानों का महल बनाकर ख्वाब सजाकर सपनों की दुनियां में हर रात आखरी सफर के सौगात का भ्रम पाले वो मां बाप मुगालते में रहे जिनके अपने-सारे सपने तोड़कर मुंह मोड़कर तन्हाई में रहने को विवश कर दिए। परिवर्तन की पराकाष्ठा में आस्था धाराशाई है। जो कल तक अपना था आज वही बना तमाशाई है। गमों का बोझ लिए हर पल सिसकते हुए जीवन का हर क्षण सुख सम्बृधि की चाहत में आहत मन के साथ अपनों के भविष्य के लिए जिसने होम कर दिया। वहीं, आज आखरी सफर के कंटीले राह में अथाह दर्द की बेदना लिए सम्वेदना शून्य समाज में तिरस्कृत हो गया। उसी घर से वहिष्कृत हो गया, जिसको अपने खून पसीने से संवारा था।
जगदीश सिंह
शनिवार, 19 नवंबर 2022
'यकीन' संपादकीय
'यकीन' संपादकीय
बचपन की ख्वाहिशें आज भी खत लिखती हैं मुझे,
शायद,
बेखबर है इस बात से कि वो जिंदगी अब इस पते पर नहीं रहती है।
बदलाव की बढ़ती शोहरत अनवरत अपनों के बीच गुमनामी की गुस्ताख़ इबारत ग़म की स्याही से गमगीन भरे वातावरण में रोज तहरीर कर रही है। बचपन से पचपन तक आते-आते सब कुछ बदल गया। मौसम का मिज़ाज बदला सियासी ताज बदला,शहर बदली गांव बदला अन्त और आगाज बदला'। इन्सानियत का लोप हो गया। लोगों के दिलो में मनुष्यता पर परजीवी फफूंद जैसे वैमनस्यता का कब्जा हो गया। संस्कार शब्द का अर्थ बदल गया। पुरातन सभ्यता का अर्थ ब्यर्थ हो गया। सम्बन्धों की परिभाषा अभिलाषा के दहलीज पर दम तोड रही है। इस मतलबी जमाने में फरिस्ता भी बदल रहे रिश्ता को देखकर हैरान हैं। लोग बरबस ही कह रहे हैं कैसी दुनियां बनाई भगवान है? अजीब मंजर है। सबके दिल में घुल चुका जहर है। हर चीज में तिजारत है। घर-घर में शकुनी घर-घर में महाभारत है ? स्वार्थ के वशीभूत अपनो के लिए जीवन भर सपना देखने वालों का आखरी सफर का हश्र भी मिश्र की पिरामिड की तरह रहस्यमी बनता जा रहा है। एक ही नदी के दो किनारे है दोस्तों।
दोस्ताना जिन्दगी से मौत से यारी रखो' मालिक की बनाई कारनामा में सबसे बुद्धिमान प्राणी आदमी है लेकिन जिस तरह से आज दुर्दशा झेल रहा है उतना तो पशु भी नहीं झेलते। वो भी मौत के दिन तक अपनी खुशहाली में खेलते हुते मरते! कितना गिर गया है आज का आदमी झूठ फरेब बेइमानी उसके खून के कतरे कतरे में समाहित हो गया है। बाप, मां, भाई जिनके बाजुओं में पलकर जमाने की खुशियां पाई वहीं रिश्ते- होते ही सगाई -कैसे -बदल जाते हैं?
वहीं घर बार सगे सम्बन्धी दिल से कैसे निकल जाते हैं!जीवन भर मर मर कर खून पसीना से पैदा की गई कमाई जिस औलाद पर उसकी खुशियों पर लुटाई वहीं आखरी सफर में बन गया कसाई! घर से निकला शहर के लिए तो फिर कभी वापस नहीं हुआ अपना पता तक गुमनाम कर दिया ?
'क्यों खाक छानते हो शहर की गलियों का'
जो दिल से ताल्लुक तोड़ते हैं फिर कही नही मिलते। हालात इस कदर ग़म जदा हो गया है की कदम कदम पर दर्द का तूफान आसमान पर छा गया। गलती कर रहा है इन्सान आरोप भगवान पर आ गया। आज गांव बीरान हो रहे हैं। कभी सम्बृधि की अलख जगाने वाली मकान सुनसान हो रहे हैं। पढ़-लिखकर ओहदा पाते ही वहीं सन्तान भूल गए जिनके लिए खेत खलिहान तक बिक गये! मकान गिरवी पड गया!सिसकते अरमान के साथ बूढ़े मां बाप का इम्तिहान भी भगवान खूब लेता है!आने वाली नस्लों को नसीहत देता है! सम्हल जा ए मगरुर इन्सान तेरा कोई नहीं! मत रह मुगालते में तेरा कोई नहीं! कोई घर ऐसा नहीं बचा जहां इन्सानियत रोई नहीं!अपना पराया का भेद आज पारिवारिक विच्छेद का जो नजारा पेश कर रहा उसी का दुष्परिणाम हर जगह देखने को मिल रहा है।
समाज में बढ़ रही बुराईयों को देखना हो तो एक बार बृद्धा आश्रमों में कराहती सिसकती आखरी सफर के तन्हा रास्तों पर बेसहारा अश्रु धारा बहाती उन बूढ़ी आंखों में अपनों के लिए गए दर्द की रुसवाईभरी जिन्दगी को जरुर देखें! सच सतह पर आकर आप के इन्सानियत को जगा देगी! बता देगी देख यही सच्चाई है। वक्त को पहचानिए!वर्ना एक दिन सिर्फ पश्चाताप के आंसू साथ रह जाएंगे।समाज में फैली रही हकीकत को जो करीब से होकर गुजरती है उसी को कलमबद्ध कर लिखता हूं।हो सकता है कुछ भाईयों को ठीक न लगे लेकिन सच हमेशा कड़वा होता है।
जगदीश सिंह सम्पादक
मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022
आस्तीन का सांप 'संपादकीय'
आस्तीन का सांप
'संपादकीय'
कुछ तो जुल्म बाकी है जालिम,
हाजिर है कतरा-कतरा लहू।
आधुनिक विकासशील भारत गणराज्य महंगाई, मंदी और बेरोजगारी के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। यह सरकार की अभावग्रस्त नीति का परिणाम है। प्रौद्योगिक विकास की प्रतिस्पर्धा में कम शिक्षित मध्यवर्गीय व्यापारियों का दमन अंतिम छोर तक पहुंच चुका है। आधुनिक परिवर्तनों की सुनामी में मध्यवर्ग का व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इस बात से गुरेज नहीं किया जा सकता है कि भारत विश्व की 5 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सम्मिलित हो गया है। लेकिन इस बात की आड़ लेकर हम सच्चाई को ना छुपा सकते हैं और ना दबा सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र के सर्वेक्षण के द्वारा बहुआयामी दरिद्रता सूचांक (एमपीआई) 2022 के अनुसार देश की कुल 138 करोड़ की आबादी में लगभग 9.70 करोड (गरीब बालक) नागरिक गरीबी, भुखमरी और कुपोषण से प्रभावित है। ग्रामीण क्षेत्र में लगभग 21.2% वहीं नगरीय क्षेत्र में 5.5% नागरिक दरिद्रता पूर्ण जीवन जी रहे हैं। देश विश्व पटल पर उन्नति कर रहा है, प्रगति की गाथा गाने वाले तांता लगाकर, ढोल पीटकर इस बात का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। क्या किसी के द्रवित हृदय में यह टीस शेष से नहीं रह गई है कि बनावटी मुस्कुराहट वास्तविक पीड़ा के आवरण में भाव-भंगिमा को स्वरूपित करती है। कुल 138 करोड़ की आबादी में भारत के 9.70 करोड़ दरिद्र बच्चे दुर्भाग्यवश भारत में निवास करते हैं। यह जीवन मार्मिक अवस्था की पराकाष्ठा का अंत है। इतने लोगों का जीवन कष्टदायक होने के बाद हमें कैसा जश्न मनाना चाहिए? किस आधार पर हम सुखी होने का आभाष व्यक्त कर सकते हैं? देश के नागरिकों की इस दुर्दशा का दायित्व किसी को तो स्वीकार करना ही होगा। सरकार गरीबी और भुखमरी उन्मूलन और उध्दार के लिए जनकल्याणकारी योजनाओं का संचालन कर रही है। सरकार का बोझ उठा कर चलने वाले आए दिन कहीं ना कहीं जनकल्याणकारी योजनाओं का उद्घाटन कर, उन्मुक्त योजनाओं को जनता को समर्पित कर रहे हैं। मंच पर गाल बजाना, जनता को जुमले सुनाना आसान काम हो सकता है।
परंतु जनता की सहृदयता से सेवा करना कल भी दुर्गम कार्य था और आज भी दुर्गम ही बना हुआ है। भारत की जनता की पीड़ा का बखान करना देश के सभी विदूषियों का दायित्व बनता है। सच कड़वा होता है। लेकिन सच से भाग पाना संभव नहीं है। विश्व में भारत के नाम इस प्रकार की विशेष उपाधि प्रभावित नागरिकों की सत्यता स्पष्ट करतीं हैं। किसी राष्ट्र चिंतक ने इस विषय पर आत्मग्लानि प्रतीत नहीं की। 9.70 करोड़ गरीब, कुपोषित वर्ग के लिए कोई सांत्वना, संवेदना शेष नहीं रह गई है। राष्ट्र के नेता तो कर्तव्यनिष्ठा से इस समस्या के समाधान पर दिन-रात बिना रुके, बिना थके कार्य कर रहे हैं। परंतु देश के ठेकेदारों में कोई तो 'आस्तीन का सांप' है जो इस देश को ड़सने का कार्य कर रहा है।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'
शनिवार, 15 अक्तूबर 2022
चांद बता तेरा मजहब क्या 'संपादकीय'
कभी ईद पर दीदार, कभी करवा चौथ पर इन्तजार
तो चांद बता तेरा मजहब क्या है ?
अगर तू इसका-उसका हैं, सबका है तो फिर
ये ज़मीं पर तमाशा किसका है ?
कभी कभी मन अनायास ही इस देश के भीतर चल रही जाति वादी प्रतिद्वन्दिता पर सोचने का प्रयास करने लगता है। प्रकृति अपनी पुरातन परम्परा पर आज भी कायम है। नियमित समय के अनुसार उसका होता रहता स्वयंमेव संचालन है। मगर मगरुर मानव समाज मुगालता पाले खुद को ही खुदा साबित करने में वह हर काम कर रहा है। जिसको प्रकृति कभी स्वीकार नहीं करती ? तमाम हिस्सों मे बंट गई धरती! मगर न आसमान बंटा! न हवा, न पानी बंटा! जलजला में बंटवारा हुआ। न सुनामी में हिस्सा लगा! न सूरज की गर्मी बंटी! न चांद की नर्मी में हिस्सा हुआ! कोई चांद का दीदार कर जीवन धन्य समझता है। तो कोई जिन्दगी के खेवनहार की सलामती के लिए चांद का दीदार कर अपने परिवार के सुखमय जीवन की कामना करता है? हवा भी उभयलिंगी है। फिर कीस बात को लेकर समाज धर्म मजहब के ठिकेदार करते रहते हैं कूराफात! जब ईद' दीवाली' वराफात' एक ही साथ एक धरा पर परम्परा बनकर जिवन्तता बनाए हुए हैं। धर्म के भगवान, मजहब के रब को भी सोचना पड़ता होगा जब एक ही धरती एक ही आसमान तो किस बात के लिए बन गये हिन्दू और मुसलमान। जीवन का आखरी सफर भी तन्हा तन्हा गुजरता है, न धार्मिक लोग साथ साथ जाते! न मजहबी लोग साथ आते हैं। हर कोई अकेला अकेला ही कायनात के मालिक के पास पहुंचता है।कर्मों का लेखा जोखा अपना देखता है। इन्सानियत को बांटने वालों औकात हो तो रब और भगवान के सम्विधान को भी बदल दो! वहां क्यों असहाय बन जाते हो! लोगों के दिलो में तफरका का अवसाद भर कर इन्सानियत का कत्लेयाम कराने वालों कुछ तो शर्म करो? इस धरा पर जब अवतरित होते हो तो इन्सान पैदा होते हो लेकिन समाज के स्वार्थी उपर वाले के बिधान में भी हस्तक्षेप कर किसी को हिन्दू किसी को मुसलमान बना देते हैं। कोई मस्जिद में अपनी जीद्द पूरी करने की कसम खाता है! तो कोई मन्दिर में अपनी अहमियत को तबज्जह देने का वीणा उठाता है! इस इन्सानी खेल को देखकर बिधाता हैरान होकर मूस्कराता हैं?धरती एक आसमान एक भगवान एक प्रकृति का सम्विधान एक इन्सानियत का रास्ता नेक, तो फिर मानव समाज कैसे हो गया अनेक? सूरज चांद में बंटवारा क्यों नहीं होता ? हवा पानी में हिस्सा क्यों नहीं लगता?नदीयो तथा समन्दर का नाम आज तक नहीं बदला! पर्वत पहाड़ की दहाड़ आज तक सदियों से एक ही तरह कायम है! पशु पक्षियों का नाम भी न हिन्दू बदल पाए न मुसलमान!!दिशाएं आज भी सदियों से अपने पुरातन नाम के साथ प्रचलन में प्रतिबिम्बित हो रही है। ऋतुएं भी सदियों से एक ही नाम से परिभाषित है। फूल भी अपनी परम्परा के नाम में सुवाषित है। उनके नाम के साथ कोई बदलाव नहीं हुआ! फिर इन्सान क्यों बदल गया! धर्म मजहब के ठीकेदार बताएंगे चांद का धर्म क्या है?सूरज का धर्म क्या है? धरती किस धर्म को मानती है? हवा का धर्म क्या है। अगर नहीं बता सकते तो समाज के ठेकेदारों इन्सानियत में विखंडन की सियासत बन्द कर दो!उपर वाला कभी माफ नहीं करेगा? आज मानवता के बिनास के लिए धर्म मजहब के ठेकेदारों केवल तुम जिम्मेदार हो?कायनात के संचालन के लिए बनाए गए कानून का परिवर्तन करने वाले तुम कौन होते हो। न आजतक न कोई अल्लाह को देखा न भगवान को लेकिन इन्सान को तो सभी ने देखा है। फिर भी मन्दिर मस्जिद की जिद्द में इन्सानियत का कत्लेयाम आम बात हो गई है। इन्सानियत का पूजारी बनो नेकी के रास्ते पर चलो मालिक की नजर में दरबदर होने से बचो। कुछ भी साथ नहीं जायेगा! न रियासत न सियासत। मानवता के संरक्षण में सहयोगी बनो। हर खता पर विधाता इन्तकाम ले रहा है। कभी महामारी बन कर तो कभी बिमारी बनकर!जब सब कुछ सबका है, तो दिलों में क्यों तफरका है। सम्वेदना के सागर में इन्सानियत की कश्ती पर विडम्बना के भार से बोझिल मानवता के पतवार के सहारे समरसता के साहिल पर एकता के लंगर को मजबूती से स्थापित होने में अवरोध न बने। मतलब की बस्ती में वैमनश्यता की खेती बन्द करें वर्ना मालिक का कहर गांव से लेकर शहर तक को मिनटों में खाक में मिला देगा।
जगदीश सिंह
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