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बुधवार, 25 जनवरी 2023

गणतंत्र दिवस    'संपादकीय'

गणतंत्र दिवस    'संपादकीय'


'भारत' देश है हमारा,

संविधान पर विवाद नहीं।

'सभ्यता' सबसे पहले आई,

भाषा पर संवाद नहीं।

भारतीय परंपराओं के अनुरूप, भारत में हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में वर्षों पहले 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था। जब से यह परंपरा जारी है। इसके साथ ही आपको बताते चलें, कि भारत में हर साल 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) को राष्ट्रीय अवकाश रहता है। इस बार यह 74वां गणतंत्र दिवस है। इसके पश्चात आपको यह खास एवं महत्वपूर्ण बात भी बताते चलें, कि भारत ही दुनिया का एक ऐसा देश है, जिसकी भारतीय संविधान में लिखित 'राष्ट्रभाषा' कोई भी नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए एक नज़रिए से देखा जाएं, तो यह एक 'गर्व' की बात है और 'चिंता' की भी...।

'गर्व' की बात इसलिए है, क्योंकि दुनिया में केवल भारत ही एक ऐसा देश है, जिसकी भारतीय संविधान में लिखित राष्ट्रभाषा कोई भी नहीं है और हिंदी को राजभाषा की उपाधि दी गई है। ज्यादातर 'हिंदी' भाषा का प्रयोग भारत में किया जाता है। भारत के अलावा, हिंदी का प्रयोग बहुत ही कम देशों में किया जाता है। इसलिए, यह एक गर्व की बात है।

'चिंता' की बात इसलिए है, क्योंकि दुनिया में भारत एक अकेला देश है, जिसकी भारतीय संविधान में लिखित राष्ट्रभाषा कोई भी नहीं है, तथा बाकी सभी देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा है। इसलिए, यह एक चिंता की बात है।बहरहाल, आपको यह जरूर बता दें, कि 'हिंदी' भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, बल्कि राजभाषा है।

चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

सोमवार, 23 जनवरी 2023

गुरबत का सांप    'संपादकीय'

गुरबत का सांप    'संपादकीय'


कभी-कभी जिंदगी में,

ऐसा समय आता है।

एक निर्जीव पत्थर भी,

जीवन बन जाता है।

विश्व के आलेखन के अनुसार,  विश्व में अक्सर अनेकों तरह के अजूबे होते रहते है। इसके अनुरूप पृथ्वी पर प्रकट हुए अनेक प्रकार के सांप पत्थरों पर चलना ही अधिक पसंद करते है। लेकिन, इन सबसे अलग एक सांप, जिसे 'गुरबत का सांप' कहा जाता है। वह ना दिखता है, ना चलता है, ना उड़ता है और ना तैरता है‌‌। वह फिर भी 'गुरबत का सांप' कहलाता है। वर्तमान में देखा जाए, तो भारत में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर 'गुरबत का सांप' सवार है। उसके पश्चात अब 'गुरबत के सांप' के कटघरे में भाजपा आ गई है। हालांकि, यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता है। वैसे, एक नजरिए से देखा जाएं, तो कुछ-कुछ ऐसा ही लगता है। इसके बाद भी इस मामले की गंभीरता से पुष्टि नहीं हुई है। फिर भी यह एक कड़वा सच लगता है। 

कोविड-19 महामारी से बचाव हेतु अभियान चलाया गया था। टीकाकरण अभियान भाजपा की 'भयावह' रणनीति का एक अहम हिस्सा है। इसके अतिरिक्त आपको यह भी बताते चलें, कि (कोविड-19) महामारी को मजाक में लेना, भारी पड़ सकता है। दुनिया भर में अभी तक कोरोना के कुल केसों की संख्या-66,86,46,404 हो गई। इसके साथ-साथ अभी तक कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या-67,38,653 हो गई। इससे अधिक खास बात यह है, कि दुनिया भर में कोरोना की कुल 13,22,61,15,781 खुराकें दी गईं। 

इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है, कि भारत में बीते वर्ष-2020 में कोविड-19 महामारी का आर्थिक प्रभाव काफी हद तक विघटनकारी रहा है। सांख्यिकी मंत्रालय के अनुसार, वित्त वर्ष 2020 की चौथी तिमाही में भारत की विकास दर घटकर 3.1% रह गई। भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने कहा, कि यह गिरावट मुख्य रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोरोना वायरस महामारी के प्रभाव के कारण है। विशेष रूप से, भारत भी महामारी से पहले मंदी का सामना कर रहा था और विश्व बैंक के अनुसार, कोरोना वायरस महामारी ने "भारत के आर्थिक दृष्टिकोण के लिए पहले से मौजूद जोखिमों को बढ़ा दिया है"।

(कोविड-19) महामारी भी एक 'गुरबत के सांप' की तरह ही है, जो अगर किसी पर चिपक जाएं, तो छाप मारकर ही दम लेती है। अगर एक अलग दृष्टिकोण से देखा जाए, तो इसमें भाजपा की एक महत्वपूर्ण भूमिका एवं प्रतिस्पर्धा भी हो सकती है। भाजपा की सख्त नजर भी, एक 'गुरबत के सांप' की तरह ही है।

चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

जीवनकाल    'संपादकीय'

जीवनकाल    'संपादकीय'


'लिबास' देखकर हमें गरीब न समझ,

हमारे 'शौक़' ही तेरी जायदाद से ज्यादा है।

आजकल युवा पीढ़ी फैशन परस्ती में लोक-लाज, लिहाज सब भूलकर भारतीय संस्कृति का अपमार्जन करते हुए, अपमान की सभ्यता को तवज्जो देने लग गई है। जबसे पाश्चात्य सभ्यता ने दस्तक दी है, भारतीय संस्कृति का विलोपन होने लगा है। हर कोई पराया हो गया, कोई भी सगा नहीं है। रहन-सहन, पहनावा दिखावे का प्रचलन जोर पकड़ रहा है। जिधर देखिए देहउघारु कपड़े का चलन है। राह चलते आए दिन छेड़खानी और लफड़े होते हैं। सुन्दर काया लिए आज का आदमी पाश्चात्य पहनावा में जोकर लग रहा है। फिर भी गुमान है, हम आधुनिक इन्सान है? गजब साहब कभी सिर पर पल्लू रखें महिलाओं घर से निकलती थी तो उनके संस्कार का बखान होता था। परिवार का उनका चाल-चलन देखकर नाम होता था वो भी कोशिश करती थी कि राह चलते पैर का अंगूठा भी न दिखे। मगर आज साहब क्या बात है आधुनिक जमाने की पढ़ी लिखी जनरेशन का फैसला देखिए।

कोशिश करती है विवाह के मंडप में ही उसका सब कुछ सब लोग देखे? गजब गिरावट है। अब तो कुछ भी नहीं बचा। जिसमे नहीं होती मिलावट है। पुरानी पीढ़ी जो हिन्दुस्तानी संस्कृति के पहचान थी अब समापन के तरफ है। धोती कुर्ता सदरी का प्रचलन खत्म हो रहा है। फटा जीन्स पैन्ट फटी कमीज़ बिना तमीज सड़कों पर आवारा गर्दी किसी ने रोका तो बिना लाग लपेट बोल देते है यह हमारी मर्जी। अगर सलीके से साड़ी बांधे औरत और धोती कुर्ता में कोई मर्द दिखा तो जाहील गंवार गरीब अनपढ़ कहकर उपहास आज की युवा पीढ़ी करती है। उनको पता ही नहीं है की यही हमारी पहचान यही हमारी धरोहर है। इसी से हमारी शान है। यही आर्यावर्त, भारत, हिन्द,का असली हिन्दुस्तान है? मगर बदलते परिवेश में बदलाव की जो हवा विषाक्त वातावरण का निर्माण कर रही है। उसकी चपेट में आकर आज का वातावरण पूरी तरह प्रदूषित हो चला है।

शहरो में दिखावा फ़ूहड़ पहनावा फैसन मस्ती फैसन परस्ती आम बात है। वहां उनका अलग मिजाज  अलग जज़्बात है। लेकिन गांव जहा भोले भाले लोग आपसी मुखालफत में भी सराफत लिए आपसी भाई चारा के साथ पुरातन परम्परा के अनुगामी रहे है। आज वहां भी फैसन परस्ती ने बदनामी का मंजर तैयार कर दिया है। पूरुष हो या महिलाएं शर्म, हया, लाज लिहाज खत्म होता जा रहा है।पर्दा के भीतर जो मर्यादा सुरक्षित थी। आज बिना पर्दा खुलेआम बेशर्मी की सारी हदें पार कर रही है। नंगापन, फूहडपना,देह शउघारू कपड़ों का प्रचलन, जोर पकड़ लिया है।

अब पहले वाली बात गांवों में नहीं रही निरंकुश ब्यवस्था उफान पर है। घर का मुखिया दुखिया बना बर्बाद होते परिवार को देखकर कूढ रहा है। मगर हालात दिन पर दिन बेकाबू हो रहा है। न किसी का डर न किसी का लिहाज। घर घर बर्बादी का दीपक जल रहा है। आज, कितना बदल गया समाज। जो कुछ पहले था ठीक उसके उल्टा हो गया। इस बदलाव के मौसम में आदमी की पहचान उसके मान सम्मान स्वाभिमान से नहीं उसके  मकान से मापा जा रहा है।उसकी हैसियत उसके कपड़ों से नापा जा रहा है। जिसके पास इज्जत का खजाना है। वह सबसे पिछड़ा है समाज में बेगाना है।जिनका जितना दिखावा आधुनिक पहनावा है उसी का जमाना है। समय के जिस तरह दरिया बदलता उसी तरह वक्त अपना नजरिया बदलता रहता है।अब न पुरातन संस्कार रहे। न पुरातन घर परिवार रहे। न लोगों में आपसी सद्भावना रहा। बिखराव बहाव का अन्धड चल रहा है। मजबूरी में आंखें बन्द करना है। अब न कोई रिश्ता है। न कोई फरिश्ता है। स्वार्थ की दरिया में उफान है।

साथ तभी तक है जब तक जरूरत पूरी नहीं होती है। ज्योही ज़िन्दगी की कश्ती झंझावात करती हवाओं से बचकर साहिल पर लंगर डाली वहीं औलाद बेगाना होगा गई ज्योहीं मिल गई घर वाली। अरमानों का महल बनाकर ख्वाब सजाकर सपनों की दुनियां में हर रात आखरी सफर के सौगात का भ्रम पाले वो मां बाप मुगालते में रहे जिनके अपने-सारे सपने तोड़कर मुंह मोड़कर तन्हाई में रहने को विवश कर दिए। परिवर्तन की पराकाष्ठा में आस्था धाराशाई है। जो कल तक अपना था आज वही बना तमाशाई है। गमों का बोझ लिए हर पल सिसकते हुए जीवन का हर क्षण सुख सम्बृधि की चाहत में आहत मन के साथ अपनों के भविष्य के लिए जिसने होम कर दिया। वहीं, आज आखरी सफर के कंटीले राह में अथाह दर्द की बेदना लिए सम्वेदना शून्य समाज में तिरस्कृत हो गया। उसी घर से वहिष्कृत हो गया, जिसको अपने खून पसीने से संवारा था।

जगदीश सिंह

शनिवार, 19 नवंबर 2022

'यकीन'   संपादकीय

'यकीन'   संपादकीय 

बचपन की ख्वाहिशें आज भी खत लिखती हैं मुझे,

शायद,

बेखबर है इस बात से कि वो जिंदगी अब इस पते पर नहीं रहती है।

बदलाव की बढ़ती शोहरत अनवरत अपनों के बीच गुमनामी की गुस्ताख़ इबारत ग़म की स्याही से गमगीन भरे वातावरण में रोज तहरीर कर रही है। बचपन से पचपन तक आते-आते सब कुछ बदल गया। मौसम का मिज़ाज बदला सियासी ताज बदला,शहर बदली गांव बदला अन्त और आगाज बदला'। इन्सानियत का लोप हो गया। लोगों के दिलो में मनुष्यता पर परजीवी फफूंद जैसे वैमनस्यता का कब्जा हो गया। संस्कार शब्द का अर्थ बदल गया। पुरातन सभ्यता का अर्थ ब्यर्थ हो गया। सम्बन्धों की परिभाषा ‌अभिलाषा के दहलीज पर दम तोड रही है। इस मतलबी जमाने में फरिस्ता भी बदल रहे रिश्ता को देखकर हैरान हैं। लोग बरबस ही कह रहे हैं कैसी दुनियां बनाई भगवान है? अजीब मंजर है। सबके दिल में घुल चुका जहर है। हर चीज में तिजारत है। घर-घर में शकुनी घर-घर में महाभारत है ? स्वार्थ के वशीभूत अपनो के लिए जीवन भर सपना देखने वालों का आखरी सफर का हश्र भी मिश्र की पिरामिड की तरह रहस्यमी बनता जा रहा है। एक ही नदी के दो किनारे है दोस्तों।

दोस्ताना जिन्दगी से मौत से यारी रखो' मालिक की बनाई कारनामा में सबसे बुद्धिमान प्राणी आदमी है लेकिन जिस तरह से आज दुर्दशा झेल रहा है उतना तो पशु भी नहीं झेलते। वो भी मौत के दिन तक अपनी खुशहाली में खेलते हुते मरते! कितना गिर गया है आज का आदमी झूठ फरेब बेइमानी उसके खून के कतरे कतरे में समाहित हो गया है। बाप, मां, भाई जिनके बाजुओं में पलकर जमाने की खुशियां पाई वहीं रिश्ते- होते ही सगाई -कैसे -बदल जाते हैं?

वहीं घर बार सगे सम्बन्धी दिल से कैसे निकल जाते हैं!जीवन भर मर मर कर खून पसीना से पैदा की गई कमाई जिस औलाद पर उसकी खुशियों पर लुटाई वहीं आखरी सफर में बन गया कसाई! घर से निकला शहर के लिए तो फिर कभी वापस नहीं हुआ अपना पता तक गुमनाम कर दिया ?

'क्यों खाक छानते हो शहर की गलियों का'

जो दिल से ताल्लुक तोड़ते हैं फिर कही नही मिलते। हालात इस कदर ग़म जदा हो गया है की कदम कदम पर दर्द का तूफान आसमान पर छा गया। गलती कर रहा है इन्सान आरोप भगवान पर आ गया। आज गांव बीरान हो रहे हैं। कभी सम्बृधि की अलख जगाने वाली मकान सुनसान हो रहे हैं। पढ़-लिखकर ओहदा पाते ही वहीं सन्तान भूल गए जिनके लिए खेत खलिहान तक बिक गये! मकान गिरवी पड गया!सिसकते अरमान के साथ बूढ़े मां बाप का इम्तिहान भी भगवान खूब लेता है!आने वाली नस्लों को नसीहत देता है! सम्हल जा ए मगरुर इन्सान तेरा कोई नहीं! मत रह मुगालते में तेरा कोई नहीं! कोई घर ऐसा नहीं बचा जहां इन्सानियत रोई नहीं!अपना पराया का भेद आज पारिवारिक विच्छेद का जो नजारा पेश कर रहा उसी का दुष्परिणाम हर जगह देखने को मिल रहा है।

समाज में बढ़ रही बुराईयों को देखना हो तो एक बार बृद्धा आश्रमों में कराहती सिसकती आखरी सफर के तन्हा रास्तों पर बेसहारा अश्रु धारा बहाती उन बूढ़ी आंखों में अपनों के लिए गए दर्द की रुसवाईभरी जिन्दगी को जरुर देखें! सच सतह पर आकर आप के   इन्सानियत को जगा देगी! बता देगी देख यही सच्चाई है। वक्त को पहचानिए!वर्ना एक दिन सिर्फ पश्चाताप के आंसू साथ रह जाएंगे।समाज में फैली रही हकीकत को जो करीब से होकर गुजरती है उसी को कलमबद्ध कर लिखता हूं।हो सकता है कुछ भाईयों को ठीक न लगे लेकिन सच हमेशा कड़वा होता है। 

जगदीश सिंह सम्पादक


मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

आस्तीन का सांप  'संपादकीय' 

आस्तीन का सांप 

'संपादकीय' 

कुछ तो जुल्म बाकी है जालिम, 

हाजिर है कतरा-कतरा लहू। 


आधुनिक विकासशील भारत गणराज्य महंगाई, मंदी और बेरोजगारी के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। यह सरकार की अभावग्रस्त नीति का परिणाम है। प्रौद्योगिक विकास की प्रतिस्पर्धा में कम शिक्षित मध्यवर्गीय व्यापारियों का दमन अंतिम छोर तक पहुंच चुका है। आधुनिक परिवर्तनों की सुनामी में मध्यवर्ग का व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इस बात से गुरेज नहीं किया जा सकता है कि भारत विश्व की 5 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सम्मिलित हो गया है। लेकिन इस बात की आड़ लेकर हम सच्चाई को ना छुपा सकते हैं और ना दबा सकते हैं। 

संयुक्त राष्ट्र के सर्वेक्षण के द्वारा बहुआयामी दरिद्रता सूचांक (एमपीआई) 2022 के अनुसार देश की कुल 138 करोड़ की आबादी में लगभग 9.70 करोड (गरीब बालक) नागरिक गरीबी, भुखमरी और कुपोषण से प्रभावित है। ग्रामीण क्षेत्र में लगभग 21.2% वहीं नगरीय क्षेत्र में 5.5% नागरिक दरिद्रता पूर्ण जीवन जी रहे हैं। देश विश्व पटल पर उन्नति कर रहा है, प्रगति की गाथा गाने वाले तांता लगाकर, ढोल पीटकर इस बात का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। क्या किसी के द्रवित हृदय में यह टीस शेष से नहीं रह गई है कि बनावटी मुस्कुराहट वास्तविक पीड़ा के आवरण में भाव-भंगिमा को स्वरूपित करती है। कुल 138 करोड़ की आबादी में भारत के 9.70 करोड़ दरिद्र बच्चे दुर्भाग्यवश भारत में निवास करते हैं। यह जीवन मार्मिक अवस्था  की पराकाष्ठा का अंत है। इतने लोगों का जीवन कष्टदायक होने के बाद हमें कैसा जश्न मनाना चाहिए? किस आधार पर हम सुखी होने का आभाष व्यक्त कर सकते हैं? देश के नागरिकों की इस दुर्दशा का दायित्व किसी को तो स्वीकार करना ही होगा। सरकार गरीबी और भुखमरी उन्मूलन और उध्दार के लिए जनकल्याणकारी योजनाओं का संचालन कर रही है। सरकार का बोझ उठा कर चलने वाले आए दिन कहीं ना कहीं जनकल्याणकारी योजनाओं का उद्घाटन कर, उन्मुक्त योजनाओं को जनता को समर्पित कर रहे हैं। मंच पर गाल बजाना, जनता को जुमले सुनाना आसान काम हो सकता है। 

परंतु जनता की सहृदयता से सेवा करना कल भी दुर्गम कार्य था और आज भी दुर्गम ही बना हुआ है। भारत की जनता की पीड़ा का बखान करना देश के सभी विदूषियों का दायित्व बनता है। सच कड़वा होता है। लेकिन सच से भाग पाना संभव नहीं है। विश्व में भारत के नाम इस प्रकार की विशेष उपाधि प्रभावित नागरिकों की सत्यता स्पष्ट करतीं हैं। किसी राष्ट्र चिंतक ने इस विषय पर आत्मग्लानि प्रतीत नहीं की। 9.70 करोड़ गरीब, कुपोषित वर्ग के लिए कोई सांत्वना, संवेदना शेष नहीं रह गई है। राष्ट्र के नेता तो कर्तव्यनिष्ठा से इस समस्या के समाधान पर दिन-रात बिना रुके, बिना थके कार्य कर रहे हैं। परंतु देश के ठेकेदारों में कोई तो 'आस्तीन का सांप' है जो इस देश को ड़सने का कार्य कर रहा है।

राधेश्याम   'निर्भयपुत्र'


शनिवार, 15 अक्तूबर 2022

चांद बता तेरा मजहब क्या 'संपादकीय'

कभी ईद पर दीदार, कभी करवा चौथ पर इन्तजार

तो चांद बता तेरा मजहब क्या है ?

अगर तू इसका-उसका हैं, सबका है तो फिर

ये ज़मीं पर तमाशा किसका है ?

कभी कभी मन अनायास ही इस देश के भीतर चल रही जाति वादी प्रतिद्वन्दिता पर सोचने का प्रयास करने लगता है। प्रकृति अपनी पुरातन परम्परा पर आज भी कायम है। नियमित समय के अनुसार उसका होता रहता स्वयंमेव संचालन है। मगर मगरुर मानव समाज मुगालता पाले खुद को ही खुदा साबित करने में वह हर काम कर रहा है। जिसको प्रकृति कभी स्वीकार नहीं करती ? तमाम हिस्सों मे बंट गई धरती! मगर न आसमान बंटा! न हवा, न पानी बंटा! जलजला में बंटवारा हुआ। न सुनामी में हिस्सा लगा! न सूरज की गर्मी बंटी! न चांद की  नर्मी में हिस्सा हुआ! कोई चांद का दीदार कर जीवन धन्य समझता है। तो कोई जिन्दगी के खेवनहार की सलामती के लिए चांद का दीदार कर अपने परिवार के सुखमय जीवन की कामना करता है? हवा भी उभयलिंगी है। फिर कीस बात को लेकर समाज धर्म मजहब के ठिकेदार करते रहते हैं कूराफात! जब ईद' दीवाली' वराफात' एक ही साथ एक धरा पर परम्परा बनकर जिवन्तता बनाए हुए हैं। धर्म के भगवान, मजहब के रब को भी सोचना पड़ता होगा जब एक ही धरती एक ही आसमान तो किस बात के लिए बन गये हिन्दू और मुसलमान। जीवन का आखरी सफर भी तन्हा तन्हा गुजरता है, न धार्मिक लोग साथ साथ जाते! न मजहबी लोग साथ आते हैं। हर कोई अकेला अकेला ही कायनात के मालिक के पास पहुंचता है।कर्मों का लेखा जोखा अपना देखता है। इन्सानियत को बांटने वालों औकात हो तो रब और भगवान के सम्विधान को भी बदल दो! वहां क्यों असहाय बन जाते हो! लोगों के दिलो में तफरका का अवसाद भर कर इन्सानियत का कत्लेयाम कराने वालों कुछ तो शर्म करो? इस धरा पर जब अवतरित होते हो तो इन्सान पैदा होते हो लेकिन समाज के स्वार्थी उपर वाले के बिधान में भी हस्तक्षेप कर किसी को हिन्दू किसी को मुसलमान बना देते हैं। कोई मस्जिद में अपनी जीद्द पूरी करने की कसम खाता है! तो कोई मन्दिर में अपनी अहमियत को तबज्जह देने का वीणा उठाता है! इस इन्सानी खेल को देखकर बिधाता हैरान होकर मूस्कराता हैं?धरती एक आसमान एक भगवान एक प्रकृति का सम्विधान एक इन्सानियत का रास्ता नेक, तो फिर मानव समाज कैसे हो गया अनेक? सूरज चांद में बंटवारा क्यों नहीं होता ? हवा पानी में हिस्सा क्यों नहीं लगता?नदीयो तथा समन्दर का नाम आज तक नहीं बदला! पर्वत पहाड़ की दहाड़ आज तक सदियों से एक ही तरह कायम है! पशु पक्षियों का नाम भी न हिन्दू बदल पाए न मुसलमान!!दिशाएं आज भी सदियों से अपने पुरातन नाम के साथ प्रचलन में प्रतिबिम्बित हो रही है। ऋतुएं भी सदियों से एक ही नाम से परिभाषित है। फूल भी अपनी परम्परा के नाम में सुवाषित है। उनके नाम के साथ कोई बदलाव नहीं हुआ! फिर इन्सान क्यों बदल गया! धर्म मजहब के ठीकेदार बताएंगे चांद का धर्म क्या है?सूरज का धर्म क्या है? धरती किस धर्म को मानती है? हवा का धर्म क्या है‌। अगर नहीं बता सकते तो समाज के ठेकेदारों इन्सानियत में विखंडन की सियासत बन्द कर दो!उपर वाला कभी माफ नहीं करेगा? आज मानवता के बिनास‌ के लिए धर्म मजहब के ठेकेदारों केवल तुम जिम्मेदार हो?कायनात के संचालन के लिए बनाए गए कानून का परिवर्तन करने वाले तुम कौन होते हो। न आजतक न कोई अल्लाह को देखा न भगवान को लेकिन इन्सान को तो सभी ने देखा है। फिर भी मन्दिर मस्जिद की जिद्द में इन्सानियत का कत्लेयाम आम बात हो गई है। इन्सानियत का पूजारी बनो नेकी के रास्ते पर चलो मालिक की नजर में दरबदर होने से बचो। कुछ भी साथ नहीं जायेगा! न रियासत न सियासत। मानवता के संरक्षण में सहयोगी बनो। हर खता पर विधाता इन्तकाम ले रहा है। कभी महामारी बन कर तो कभी बिमारी बनकर!जब सब कुछ सबका है, तो दिलों में क्यों तफरका है‌। सम्वेदना के सागर में इन्सानियत की कश्ती पर विडम्बना के भार से बोझिल मानवता के पतवार के सहारे समरसता के साहिल पर एकता के लंगर को मजबूती से स्थापित होने में अवरोध न बने। मतलब की बस्ती में वैमनश्यता की खेती बन्द करें वर्ना मालिक का कहर गांव से लेकर शहर तक को मिनटों में खाक में मिला देगा।

जगदीश सिंह



रविवार, 14 अगस्त 2022

तिरंगा   'संपादकीय'

तिरंगा   'संपादकीय' 

मेरी आन तिरंगा है, मेरी शान तिरंगा है, 
मेरी जान तिरंगा है।
व्यापार तिरंगा है, नवाचार तिरंगा है। 
कितना बदला हमारा देश, गरीब नंगा है।

15 अगस्त, सन 1947 की उस रात जब देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आजाद भारत में अपना पहला भाषण दे रहे थे, तब गांधी ने समारोह में शामिल होने से मना कर दिया। स्वत्रंता दिवस समारोह में शामिल होने के लिए नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने साझा निमंत्रण गांधी को भेजा लेकिन इसके बावजूद गांधी नहीं आए। शायद वो यह सब कुछ देख पा रहे थे, जो धर्म के आधार पे किए गए विभाजन के बाद होने वाला था।
आज ही के दिन हुए इस शर्मनाक विभाजन में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान तो बन गया। लेकिन, थोड़ा हिन्दुस्तान पाकिस्तान में रह गया और थोड़ा पाकिस्तान हिन्दुस्तान में। शायद यह सर्जरी पूरी सफल नहीं हुई थी, बस भौगोलिक विभाजन किया गया। लाहौर और अमृतसर के बीच कुछ तथाकथित जानकारों ने एक लकीर खींच कर समझा कि बस हो गया। सबने ज़मीन तो बाँट ली, लेकिन लोगों का क्या ?
जो अपना घर नहीं छोड़ना चाहते थे, उन्हें लगा कि ये सब समय के साथ धीरे-धीरे समान्य हो जाएगा। वह इस उम्मीद में घरों में रहकर सब बर्दाश्त करते रहे, कि जिन्ना है तो क्या हुआ हमारे पुरखे तो नवाब शाह के ही है, मैं अपना घर छोडकर क्यूं जाऊं ? या इस तरफ़ नेहरू है तो क्या हुआ ? मैं तो यही दिल्ली में पैदा हुआ हूँ, यहाँ मेरा घर है, मैं तो यहीं पैदा हुआ यही मरूंगा। फिर मेरे बाप दादा भी तो यहीं दफन हैं। मैं उन्हें यहाँ ऐसे छोड़कर कैसे चला जाऊँ ?

लेकिन हुआ कुछ और ही...
जिन्होनें घर नहीं छोड़ा वो जबरन निकले गए उनका दर्द तो शब्दों में बयां भी नहीं किया जा सकता। उनकी तो उम्मीद तक ने दम तोड़ दिया था। मुश्किल से अनजान जगह आकर नई शुरुआत करना, उस पार अपना सब कुछ होते हुए भी बेघर मैदानों में एक टेंट में बच्चों के साथ सालों तक जिंदगी गुजारना।

कभी सोचा ? ये सब किस के लिए था ? उन नेताओं की कुर्सी के लिए ? जिन्होनें आजादी तो दिलवा दी, लेकिन सत्ता के स्वार्थ के लिए हिन्दू और मुस्लिम जैसे शर्मनाक धार्मिक आधार पर लोगों को बटवारा स्वीकार कर लिया ? सूखी लकड़ी की तरह सबको वर्षों तक झोंकते रहे दंगों की भट्टी मे अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए ? ताकि, उनकी सात पुश्तों का इन्तेजाम हो जाए। फिर उसकी कीमत चाहे हजारों लाखों बच्चों के सिर से उनके माँ-बाप का साया छिन जानां ही क्यूँ न हो ? लड़ा दो बस, कभी मुस्लमान के पक्ष में खड़े हो जाओ, तो कभी हिन्दू के पक्ष में ?  कितना सब कुछ सबने खोया है।
लेकिन, दुःख इस बात का है, कि आम आदमी को अब तक यह गंदा खेल समझ नहीं आ रहा।
इस मुल्क में सभी मतलब सभी नेताओं ने शुरू से ही अपनी सत्ता की हवस के चलते जो आम लोगों के साथ किया है, वह क्षमा योग्य बिल्कुल नहीं हैं। चाहे वो हिन्दू हो या मुस्लमान, सिंधी हो या दिल्ली के सिक्ख, चाहे वो कश्मीरी पंडित हो या फिर गोधरा के दंगों में मारे गये देश के नागरिक या फिर कश्मीर घाटी अथवा मुंबई की होटल ताज में हुए आतंकी हमले में मारे गए आम नागरिक। सबने कीमत चुकाई है, सत्ता सुख भोगने को लालायित लोगों के अहम की।
राजनीति के पास दिल तो होता नहीं, जो सत्ता की भूख से ऊपर उठ कर य़ह दर्द महसूस कर सके।
जिस तरह से मुस्लिम तुष्टीकरण की बात की जाती रही है इतने सालों तक, और हर सवाल का जवाब वर्षों तक नेताओं द्वारा सर्वधर्म समभाव , अल्पसंख्यक संरक्षण और पिछड़े वर्ग का उत्थान बता कर सत्ता साधने का धूर्त खेल खेला जाता रहा है, बिल्कुल उसी तरह से अब एक नया दौर चल पड़ा है। जिसके चलते जातीय ध्रुवीकरण और इतिहास में की गई गलतियों को सुधारने के नाम पर, सत्ता साधन किया जा रहा है। वैचारिक अभिव्यक्ति की आजादी के रास्ते संकरे हो गए हैं। जिस तरफ देखो उस तरफ लोगों ने अलग-अलग रंग के चश्मे लगा रखे हैं। जिससे उन्हें उसी रंग का भारत दिखाई देता है, जो उन्हें अपनी सत्ता साधने में मशगूल राजनीतिक दल दिखाना चाहते है। मन की बात कहने सुनने से ज्यादा पकड़ कर सुनाने का चलन चल पड़ा है। योग्यता हो या न हो, बस परंपराओं के नाम पर अयोग्य लोगों को देश की बागडोर संभलाने की आतुरता देखी जा रही है। योग्यता अयोग्य के सिंहासन के पाये के तले दम तोड़ रही है। पिछड़े वर्ग के संरक्षण का भारी दंभ भरने वाले लोगों के बीच एक 8 साल के बच्चे को मात्र इसलिए जान से मार दिया जाता है। क्योंकि उसने अपने उच्च जाति है। शिक्षक के मटके में से पानी पी लिया। सही बात खुल कर कहने वालों की राष्ट्रभक्ति पर जातिवाद की चिलम लिए घूम रहे समूह प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं। कौन कितना राष्ट्रभक्त है ? उसका निर्णय सत्ता की ड्योढी पर बैठे हुए स्वामिभक्त कर रहे हैं। लेकिन, इस सबके बीच में भी यह देश किसी भी कीमत पर अपना मूल रूप खोने को तैयार नहीं है।
देश के वैज्ञानिक मंगल तक जा पहुंचे हैं, देश की प्रतिभाएं पूरे विश्व में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का गौरव बड़ा है। विश्व को भारत में विश्व गुरु की आंशिक झलक दिखाई देने लगी है, सोशल मीडिया के माध्यम से सूचना की गति बढ़ी है। जिससे आम आदमी वैचारिक तौर पर पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है। आम आदमी में राष्ट्रीयता का भाव बड़ा है। रुपया कमजोर हुआ है। लेकिन, हमारे उद्यमियों का हौसला अब भी बुलंद है और उम्मीद अब भी कायम है।

राजनीति का क्या है ? 
राजनीति दोष लगाने और श्रेय खाने का खेल है और इस खेल के पारंगत खिलाड़ी इस देश में शुरू से ही बहुत तादाद में रहे है। जिसका शिकार आम आदमी सदा से होता रहा है। लेकिन अब लगता है कि वह समय आ गया है कि इन राजनीतिक खिलाड़ियों को इस देश का आम आदमी सामने बैठकर आंखों में आंखें डाल कर य़ह कह दे कि नेताजी! मैं बेवकूफ नहीं हूँ, मुझे सब दिखाई दे रहा है। तुम्हें राज करना है राज करो। लेकिन, तुम्हारा राज करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण है इस देश में एकता और शांति बनाए रखना।
आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के लिए जिस तरह से 15 अगस्त इस बार आम आदमी के त्योहार के रूप में मनाया जा रहा है। ऐसा आज से पहले कभी भी देखने को नहीं मिला है। जिसके लिए यह देश, आप और हम सब लोग बधाई के पात्र हैं। तिरंगा हमारा स्वाभिमान है, उसका अपमान नहीं होगा।
नरेश राघानी

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

मेरे बच्चे 'संपादकीय'

मेरे बच्चे    'संपादकीय' 

सबसे सुंदर, सबसे अच्छे।
नंगे हो या पहने हो कच्छे।
काले-गौरे, प्यारे-प्यारे बच्चे।

दुनिया में थलचर-जलचर, नभचर-निशाचर आदि कई प्रकार के जीव सार्वभौमिक अनुसरण करते हैं। ज्यादातर लोग इस विषय से परिचित है। सभी पशु-पक्षी, जीव-जंतु प्रजनन करते हैं, अपने बच्चों का पालन पोषण करते हैं, परिवार, जाति और समूह की रक्षा करते हैं। जब तक शिशु सामाजिक परिवेश में ढलने की स्थिति में नहीं होता है, तब तक उसका संरक्षण, पोषण माता-पिता पूरी निष्ठा के साथ करते हैं। यह एक स्वाभाविक गुण है, सभी का यह स्वाभाविक गुण है। सभी जीव-जंतु विवेक और बुद्धि का उपयोग करते हैं। परंतु, केवल मनुष्य एक ऐसा विवेकी जीव हैं, जो सर्वाधिक तीव्रबुद्धि का स्वामी है। मनुष्य की तीव्र बुद्धि के कारण सार्वभौमिक सृष्टि में कुल मानव जाति का 60 प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार है। 
प्रतिस्पर्धा, अत्याधुनिकता, साम्राज्यवाद नीति, प्रभावी वित्त व्यवस्था, शक्तिसंचय एवं अधिकारिक शासन प्रणाली के मकड़ जाल में संपूर्ण मानव जाति फंस गई है। परिणाम स्वरूप केवल भारत में कुपोषण से होने वाली बीमारियों के कारण 17 लाख लोगो की मृत्यु हो जाती है। केवल भारत में 71 प्रतिशत नागरिक कुपोषण की समस्या से जूझ रहे हैं। आयात-निर्यात एवं वैश्विक सामंजस्य में संतुलन स्थापित करने के प्रयास में यह भीमकाय संकट विश्व के साथ-साथ भारत में भी गहराता जा रहा है। एक तरफ जलवायु परिवर्तन संपूर्ण पृथ्वी के लिए संकट बन चुका है। यह समस्या अमीर-गरीब, छोटे-बड़े के भेदभाव से इतर है। किंतु भुखमरी और कुपोषण ऐसी समस्या नहीं है, जो मानव के नियंत्रण से बाहर है।
विश्व में एक करोड़ से अधिक लोग भुखमरी व कुपोषण से उत्पन्न होने वाले रोगों के कारण मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में कोई विकसित या विकासशील देश का प्रत्येक नागरिक मेरे बच्चों की चिंता में व्यस्त है। इसी कारण हमने उन बच्चों को बेगाना कर दिया है, जो हमारे स्नेह और सानिध्य के अधिकारी हैं। यदि समय रहते लालची और स्वार्थी मानव वातानुकूलित समावेशी विचारों की अंतोगत्वा  गृहण नहीं करेगा, तो मानव दुष्कर परिणाम झेलने के लिए तैयार रहें।
चंद्रमौलेश्वर शिवांशु  'निर्भयपुत्र'

शुक्रवार, 24 जून 2022

हमाम में सब नंगे 'संपादकीय'

हमाम में सब नंगे   'संपादकीय' 

देश में कहीं धुआं तो कहीं शोर है, 
चौकीदार बैठा है दर पर या कोई चोर है। 
नमन, खून से राष्ट्र को सिंचने वाले सैनिक, 
सामने दुश्मन ताकतवर और मुंह जोर है। 

सैनिक भर्ती प्रक्रिया में 'अग्निवीर' योजना सम्मिलित करने से देश का युवा आक्रोशित हो गया है। आक्रोश ने आंदोलन का रूप धारण कर लिया है। आंदोलन हिंसक बनने से पूर्व ही राज्यों की सरकारों ने सख्ती बरतनी शुरू कर दी हैं। जिसके कारण युवा वर्ग अपने अधिकार की लड़ाई को विराम लगा कर, मुंह बंद करने के लिए विवश हो गया। युवा वर्ग योजना लागू करने से आहत है। सेना में यह उपयोग किस परिणाम तक पहुंचेगा या 'अग्निवीर' योजना के सामने बेरोजगार युवा नतमस्तक होंगे, यह कहना कठिन है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि राष्ट्र की आधारशिला के दो स्तंभ है, 'जवान और किसान'। इन दोनों वर्गों की उपेक्षा राष्ट्र निर्माण में सदैव बाधा उत्पन्न करती है। 
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि योजना के संबंध में पक्ष-विपक्ष दोनों हमलावर बने हुए हैं। सत्ता पक्ष योजना के लाभ बताते नहीं थकता है। दूसरी तरफ विपक्ष युवा वर्ग की अनदेखी के आरोप लगाने से बाज नहीं आ रहा है। सत्तापक्ष की उदारता और युवा वर्ग के हित को सामान्य तौर पर समझा जा सकता है। 4 वर्ष की सैन्य सेवा का अवसर सरकार की महान सोच का अनुसरण करती है। किंतु पेंशन आदि सुविधाओं को प्रदान न करना, उपेक्षा को उजागर करता है। सैन्य सेवा प्रदान करने वाला कोई भी व्यक्ति सेवा समाप्ति के पश्चात सामान्य जीवन से विरक्त ही रहेगा। कुछ लोग सामान्य जीवन यापन कर सकते हैं, परंतु सभी नहीं। ऐसी परिस्थिति में सैनिक को पेंशन आदि की सुविधा प्रदान करनी चाहिए। 
युवा वर्ग बेरोजगारी की दलदल में धंसा जा रहा है पक्ष और विपक्ष राजनीति का शुद्ध लाभ कमा रहे हैं। विधायक-सांसद 5 वर्ष के लिए निर्वाचित होते हैं और पेंशन, भत्ता आदि सब सुविधाएं प्राप्त करते हैं। किसी विधायक ने किसी राज्य की विधानसभा में यह प्रस्ताव नहीं रखा है कि हमारी पेंशन, भत्ते व अन्य सुविधाएं प्रतिबंधित कर दी जाए। किसी सांसद ने लोकसभा या राज्यसभा में यह आवेदन नहीं किया है। क्योंकि जनता का शोषण हो या कल्याण, दोनों स्थिति में स्वयं का स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए। बयान बाजी के अलावा किसी नेता ने 'अग्निवीर' के विरुद्ध आंदोलन का समर्थन करने की चेष्टा मात्र भी नहीं की है। क्योंकि राजनेताओं का यही काम है। 
4 वर्ष की सेवा के पश्चात 75 प्रतिशत युवा पकौड़े तलना तो सीख ही जाएगा। यह नीति युवा वर्ग के विरुद्ध है। किंतु युवा वर्ग को किसी दल अथवा संगठन का साथ नहीं मिला है। सख्त कार्रवाई का भय दिखाकर मुंह बंद करने का घृणित कार्य किया गया है। युवा वर्ग को अपनी बात शांतिपूर्ण ढंग से रखने चाहिए। आंदोलन का आधार हिंसा नहीं है अहिंसा है। किसी राजनेता से कोई अपेक्षा करना धूल में लट्ठ मारने के जैसा है, क्योंकि हमाम में सब के सब नंगे हैं।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

मंगलवार, 21 जून 2022

योगेश्वर 'संपादकीय'

योगेश्वर    'संपादकीय' 

योग भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। योग-प्राणायाम सनातन संस्कृति में एक विशेष महत्व रखता है। पुरातन काल से योग-साधना का वर्णन किया गया है। कई साधक-तपस्वियों ने योगी पद प्राप्त किया है। भगवान श्री कृष्ण को 'योगेश्वर' नाम से संबोधित भी किया गया है। अर्थात, योगियों के ईश्वर का वर्णन भी किया गया है। इससे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि योग की उत्पत्ति और सामूहिक उपयोग का सदैव भारत में प्रचलन रहा है। योग के महत्व को विश्व स्तर पर प्रचारित करने का श्रेय माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है। आज 'विश्व योग दिवस' पर संपूर्ण विश्व में योगासन अभ्यास किए गए। इस माध्यम से योग-आसन को विश्व में बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा है। आधुनिकता और प्रतिस्पर्धा की होड़ में योग के लाभ को जन-जन तक पहुंचाने का सराहनीय प्रयास किया जा रहा है। यह जनकल्याण की भावना को प्रदर्शित भी करता है। लेकिन दिखावा कुछ ज्यादा हो गया है। योग दिवस पर योगासन करते हुए फोटो-वीडियो को प्रचारित करना योगासन का परिहास हो गया है। योग हमारे जीवन में दैनिक गतिविधियों में सम्मिलित होना चाहिए। असाध्य व जटिल रोग मुक्ति का एक सरल साधन योग हैं। इंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करने का एकमात्र उपाय योग हैं। 
हालांकि इसके विपरीत कुपोषित-अव्यवस्थित वर्ग इस मर्म से अनभिज्ञ हैं।कुपोषण-भुखमरी के कारण चटनी के साथ रूखा-सूखा खाने वाले व्यक्ति को योग की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है। न तो उनके शरीर में इतनी चर्बी चढ़ी होती है और नए कोई वसा वाला भोजन ही उन्हें प्राप्त होता है। जिसके कारण वसा से होने वाला कोई रोग उत्पन्न हो। ऐसी स्थिति में योग के उपभोग का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। परंतु जीवन पर मोटापा बोझ बनने लगता है। शरीर रोगों का घर बन जाता है। ऐसी स्थिति में योग का विशेष महत्व हो जाता है। योग की सख्त आवश्यकता वालों की संख्या भारत की कुल आबादी की 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इसके विपरीत कुपोषण के शिकार, भुखमरी से जुझने वालों की संख्या 80 प्रतिशत के लगभग है। सीधे तौर पर कहा जाए तो योग की सख्त आवश्यकता मात्र 20 प्रतिशत लोगों को ही है। 80 प्रतिशत लोगों को योग कि नहीं पौष्टिक भोजन की है। कुपोषण के शिकार भुखमरी से जुझने वालों की संख्या 4 गुना अधिक है। 
ऐसी स्थिति में जो खर्च योग शिविरों के आयोजनों पर किया जा रहा है। यदि वह धन कुपोषित वर्ग के प्रति खर्च किया जाए तो कुछ लोग, कुछ समय तक भरपेट पौष्टिक भोजन कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि नमक-मिर्च की चटनी और रुखा-सुखा भोजन उनकी जटाग्नि शांत नहीं कर पाता है। पेट तो खूब पानी पीकर भी भर जाता है। किंतु आवश्यक तत्वों की आपूर्ति नहीं हो पाती है। 'योगेश्वर' की इतनी अनुकंपा तो उन पर बनी हुई है। इसके बाद तो हमें खुद के गिरेबान में झांकने की जरूरत है।
राधेश्याम   'निर्भयपुत्र'

रविवार, 22 मई 2022

पहली कल्पना 'संपादकीय'

पहली कल्पना    'संपादकीय' 

क्या तुमने कुछ ऐसा देखा है....
रात भरी अंधेरी में, सूरो सा, 
दिन के उजालों में, गूढ़ सा, 
मैंने गज-लख दूरो से, 
विहीन व्योम में उसको देखा है.... 
जो तेरा है, ना मेरा है सन्यासी है, 
मन फिर भी उसका अभिलाषी है, 
चाहत है मिथ्या, निकृष्ट, 
रख लिया जैसे कोई श्वेत पृष्ठ, 
सबने उठना यूं ही सीखा है....
प्रतीत रहता है तुझमें-मुझमें, 
अतीत रहता है उसी दिन से, 
साये में, काया में हर् फराह में, 
जुर्म-धर्म की सहस्त्र बांहों में, 
लेखों में सारे उसका लेखा है.... 
क्या तुमने कुछ ऐसा देखा है....

संपूर्ण ब्रह्मांड में मनुष्यों के जीवन में साहित्य विशेष महत्व रखता है। गद्य-पध दोनों स्थानों पर रचित कृतियों में कल्पना का सजीव अस्तित्व स्थित है। किसी प्रक्रिया के घटित होने से पूर्व ही विवरण रचना कल्पना ही तो है। किसी पात्र अथवा परिस्थिति की कल्पना का सामान्य जीवन में सीधा संबंध बना रहता है। मात्र, कल्पना की सच्चाई से रूबरू कराना ही है। किसी रचनाकार के मस्तिष्क में कोई कल्पना स्थित हो जाती है। कल्पना के मूल आधार पर कोई रचनाकार कल्पनाओं को स्वरूपित-अंकित करके, पंख लगा देता है। पात्र के साथ न्याय अथवा अन्याय की उधेड़बुन में रचनाकार कल्पना के सागर में डूबता चला जाता है। पात्र हित को ध्यान में रखकर कल्पनाएं गढ़ना, जीवंत करना विषय वस्तु पर यथास्थिति बनाए रखना। कहानी, उपन्यास, नाटक, छंद, चौपाई आदि कोई भी शैली हो। रचना में पात्र की विशेषता को बरकरार रखने की रचनाकार की रचना का विश्लेषण करता है। कोई भी रचनाकार किसी सत्य आधारित रचना को शत प्रतिशत सत्य से जोड़ कर नहीं रख सकता है। किंतु कल्पनाएं रिक्त स्थान को पूर्ण कर लेती है। जो भविष्य में घटित होने वाला है उसकी कल्पना करना, विस्मृत से रोमांच उत्पन्न करने वाला है। जब कोई कल्पना सच में अवतरित हो जाती है। तब रचनाकार मन ही मन कल्पना को उकेरने का हर्ष प्रतीत करता है। परंतु कल्पना के दूसरे कुरूप पहलू को देख कर ठिठक जाता है। कल्पना का आधा सच रचनाकार को निराश करता है। परंतु उसी के साथ अगली कल्पना की गहराइयों में डूब जाने के लिए प्रेरित करता है। महर्षि वेदव्यास के द्वारा महाकाव्य 'महाभारत' एवं महान साहित्यकार बाल्मीकि के द्वारा 'रामायण' की रचना घटना के घटित होने से पूर्व कर ली जाती थी। सूरदास की साहित्य में कल्पना के महत्व को समझना भी एक कल्पना ही है। आप स्वयं देखिए, "नहीं पहुंच पाता रवि, वहां पहुंच जाता है कवि"। कल्पना अद्भुत है, आखिरकार एक कल्पना ही तो है।
 वैसे तो विवेकी मनुष्य कल्पनाएं करता ही रहता है। ज्यादातर कल्पनाएं सच में रूपांतरित नहीं हो पाती है। जो कल्पना सच का रूप ले लेती है, वह कल्पना ही मर जाती है। संसार की पहली कल्पना को श्रद्धा सुमन और नवीन कल्पनाओं का स्वागत करते हैं।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

बुधवार, 18 मई 2022

अमृत महोत्सव 'संपादकीय'

अमृत महोत्सव   'संपादकीय'

जीत किसके लिए, हार किसके लिए‌ ?
जिन्दगी भर तकरार, किसके लिए ?
जो भी आया है, इस जहां से जायेगा !
फिर... इतना अहंकार किसके लिए ?

परिवर्तन की प्रखर बेला में जब हर आदमी अपने को समझ रहा है अकेला‌‌, ऐसे‌ हालात के बीच आधुनिकता की चकाचौंध में दिलों में तफरका,आपसी भाईचारा ,छोटी-छोटी बात परिवार का बंटवारा ,आम बात हो गया है। बर्दास्त करने की क्षमता पर विसमता की मोटी परत चढ़ चुकी है। बड़े-छोटे का लिहाज खत्म है।
फैसन परस्ती की मस्ती में देह ऊघारु कपड़े देखकर नजरें झुकी हुई है। पुरातन व्यवस्था का आधुनिक आस्था में तरपण‌ हो चुका है। पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता में आज की पीढ़ी का समावेश हो चुका है। सनातन धर्म की आस्था आज की व्यवस्था में एक बार फिर अपना पुराना वास्ता तलाश रही है ? अखंड भारत के‌ बिप्लवि इतिहास का हर पन्ना पढ़ा जा रहा है। विदेशी लुटेरों का कलंकित इतिहास मिटाया जा रहा है। समय के सागर में सुनामी चल रही है, तमाम इसकी चपेट में आकर धाराशाई हो रहे हैं।
कहीं करूण क्रन्दन है, कहीं अभिन्नदन है, तो कहीं तबाही है, कही वाह-वाही है! हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक स्मिता के सवाल‌ को लेकर‌ देश के हर कोने मे‌ बवाल‌ मचा‌ हुआ‌ है‌। 'अमृत महोत्सव' आजादी के‌‌ सत्तर‌ साल ने‌ जो‌ बवाल‌‌ पैदा‌ कर‌ दिया, उसका जड़ से उन्मूलन करने में भी वर्षों लग जायेंगे। भारत की सीमाएं धधक रही है। दुश्मन देश मौके की तलाश में हैं। विश्व के बड़े देशों में चल रहे वैचारिक मतभेद के कारण नरसंहार के साथ प्रकृति को मानवी व्यवस्था में दिया जा रहा उपहार, आने वाले नस्लों के लिये घातक साबित होगा। देश के भीतर आजकल वजूद तलाश किया जा रहा है
भाई चारगी बना रहा‌ सबूत दिया जा रहा‌ है।नाजायज‌ को जायज बनाकर मजहबी उन्माद‌ पैदा करने वालो का गिरोह, जिस बिछोह को लेकर छटपटा रहा है। वह कहीं से भी उनके हक में नहीं है। उनका मजहब नाजायज को स्वीकार करने की इजाजत कभी‌ नही देता ? फिर भी एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ ने बेजोड़ दुर्वव्यवस्था पैदा कर दिया है। परिवर्तन के संकीर्तन मे‌ पुरातन आस्था का सवाल, अब स्वाभिमान बन चुका हैं ! हिन्दुस्तान के कलंकित इतिहास‌‌ में अब नई इबारतें प्रतिस्थापित की जा रही है।
अहम का बहम पाले देश के परिवेश में तरक्की का निवेश करने की बात करने वाले कहीं से भी सहयोग करते नहीं देखे जा रहे है‌ ? सामंजस्य को रहस्य बनाकर सर्वस्व पर अनाधिकार‌‌ चेष्टा की चाहत उन्मादी सोचकर के कारण मर्माहत हो रही है। सदियो पहले फ्रांस के भविष्य द्रष्टा ने बता दिया है कि भारत का सब कुछ बदल जायेगा ! जिसका है, उसके पास महल जायेगा। फिर काहे का तकरार ! विदेशी लुटेरे जिसको जी भरकर लुटे, भारतीय संस्कृति को कलंकित किए अगर, आज अपने वजूद में आ रही‌ है तो बवाल क्यो ?
सवाल सौ टका सही है, तो फिर इसमें हमारा तुम्हारा क्या ? जिसका जो है, उसका हिस्सा वापस हो ! सब मिल्लत से रहे टकराव का किस्सा खत्म हो ! शान्ती के मार्ग पर चलने वाला भारत रामायण काल भी देखा, महाभारत भी देखा ! विदेशी लुटेरो का हमला भी देखा, ईसाइयत का रूतबा भी देखा ! यूनान मिश्र रोमा सब मिट गये जहां से! कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी! सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा का तराना सदियों से परवान चढ़ रहा है ! आज का भारत फिर अपनी अखन्डता के तरफ बढ़ रहा है। सब कुछ बदल रहा‌ है ! भारतीय संस्कृति अपनी पुरानी आकृति वापस पा रही है।
जगदीश सिंह

बुधवार, 6 अप्रैल 2022

जलवायु-परिवर्तन 'संपादकीय'

जलवायु-परिवर्तन      'संपादकीय'      

शुद्ध-शाकाहारी जीवन सनातन सभ्यता का उद्बोधन हैं। शाकाहार सनातन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह केवल सनातन संस्कृति की प्रवृति के अनुसार ही लागू होता है‌। यदि, कोई भी व्यक्ति शाकाहार जीवन यापन करने की प्रक्रिया में भागीदारी कर ले, तो संपूर्ण मानव जाति जलवायु-परिवर्तन से निपटने की दिशा में महत्वपूर्ण सहयोग कर सकते हैं। इस निर्णय में राष्ट्र एवं व्यक्तिगत संबंधों से किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होना चाहिए। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उत्पन्न एक समस्या से संबंधित विषय है। यह विषय प्रत्येक धरतीवासी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। जलवायु-परिवर्तन से निपटने की दिशा में एक और वैश्विक पहल आगे कदम बढ़ा रही थी।  
दरअसल, वैश्विक स्तर पर उद्योगों को कार्बन मुक्त करने के एक कार्यक्रम की सालाना बैठक से पहले, भारत में इस कार्यक्रम की प्रारम्भिक सभा का आयोजन हो रहा है। क्लीन एनेर्जी मिनिस्टीरियल (CEM) का इंडस्ट्रियल डीप डीकार्बोनाइजेशन इनिशिएटिव (IDDI) सार्वजनिक और निजी संगठनों का एक वैश्विक गठबंधन है। जो उद्योगों में कम कार्बन सामग्री की मांग को प्रोत्साहित करने के लिए काम करता है। देश की राजधानी, नई दिल्ली, में IDDI की महत्वपूर्ण बैठकों का दौर जारी है। भारत में हो रही यह बैठक सितंबर में अमेरिका के पिट्सबर्ग, में आयोजित होने वाले सीईएम13 बैठक के लिए एक प्रारंभिक सभा है, जहां सरकारें उद्योगों को कार्बन मुक्त करने की अपनी महत्वाकांक्षाओं की घोषणा करेंगी। इनमें हरित सार्वजनिक खरीद नीति प्रतिबद्धताएं और खरीद लक्ष्य निर्धारित करना शामिल है। जो प्रमुख उद्योगों द्वारा तेजी से प्रतिक्रिया देने में मदद कर सकते हैं। 
वैश्विक स्तर पर कुल ग्रीनहाउस गैस (GHG) एमिशन का लगभग तीन-चौथाई बिजली क्षेत्र से आता है। भारी उद्योग से कार्बन एमिशन लगभग 20 से 25 फीसद होता है। विज्ञान कहता है कि जलवायु-परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों से बचने के लिए, हमें 2030 तक नेट ज़ीरो एमिशन तक पहुंचना होगा। इसके लिए उद्योग सहित सभी क्षेत्रों से गहन डीकार्बोनाइजेशन की आवश्यकता होती है। IDDI की यह बैठक इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की उस मिटिगेशन रिपोर्ट के ठीक बाद आती है। जिसमें उद्योगों के लिए डीकार्बोनाइजेशन की दिशा में तेजी से कदम उठाने की आवश्यकता को रेखांकित किया।   
उदाहरण के लिए, स्टील उद्योग को तेजी से डीकार्बोनाइज करने की जरूरत है। अगर हमें ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है। वार्षिक वैश्विक इस्पात उत्पादन लगभग 2बीएमटी है और कुल जीएचजी में 7 प्रतिशत से अधिक का योगदान देता है। स्टील क्षेत्र के उत्सर्जन में 2030 तक कम से कम 50% और 2050 तक 95% तक 2030 के स्तर पर गिरने की आवश्यकता है। ताकि 1.5 डिग्री ग्लोबल वार्मिंग मार्ग के साथ संरेखित किया जा सके। हालांकि, वर्तमान भविष्यवाणियां बताती हैं कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं में उस वृद्धि के बहुमत के साथ 2050 तक स्टील की मांग सालाना 2.5 बीएमटी से अधिक हो जाएगी। ध्यान रहे कि भारत जैसे देशों में, विकास की जरूरतें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और इनसे समझौता नहीं किया जा सकता है। 
भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक है और भारत में उत्पादित अधिकांश इस्पात का उपयोग घरेलू स्तर पर किया जाता है। आईईए के अनुसार, 2050 तक विश्व स्तर पर उत्पादित स्टील का लगभग पांचवां हिस्सा भारत से आने की उम्मीद है, जबकि आज यह लगभग 5% है। भारत के लगभग 80 प्रतिशत बुनियादी ढांचे का निर्माण किया जाना बाकी है, जिसका अर्थ है कि स्टील जैसे कठिन क्षेत्रों को डीकार्बोनाइजेशन लक्ष्य निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ताकि भारत को अपने 2030 और न्यूजीलैंड के लक्ष्यों को पूरा करने में मदद मिल सके। भारत पहले से ही दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है और उम्मीद है कि 2019 में यूरोपीय संघ के कुल उत्पादन के दोगुने के बराबर राशि से 2050 तक अपने वार्षिक उत्पादन की मात्रा में वृद्धि होगी। कोविड -19 संकट देश के इस्पात उद्योग को प्रभावित कर रहा है।  
चूंकि इस्पात निर्माण, मोटर वाहन और यहां तक कि नवीकरणीय क्षेत्रों के लिए रीढ़ की हड्डी है, इसलिए उद्योग को कार्बन मुक्त करना उत्सर्जन को कम करने की कुंजी है। भारत यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है कि उसका स्टील उद्योग एक स्थायी भविष्य के लिए ट्रैक पर है। जो भारत को आईडीडीआई के तहत स्टील सार्वजनिक खरीद लक्ष्यों को 30-50% तक कम करके अपने शुद्ध शून्य लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करता है। 
महिंद्रा ग्रुप के चीफ सस्टेनेबिलिटी ऑफिसर, अनिर्बान घोष कहते हैं, “अगर हमें नेट जीरो लक्ष्यों को पूरा करना है तो स्टील डीकार्बोनाइजेशन के लिए एक मार्ग को सुरक्षित करने की जरूरत है। ऑटो उद्योग के लिए, ग्रीन स्टील भारत के लिए शून्य कार्बन गतिशीलता समाधान बनाने में उत्प्रेरक हो सकता है। हम नेट ज़ीरो भविष्य बनाने के लिए भारत सरकार की प्रतिबद्धता का स्वागत करते हैं और हमें विश्वास है कि CEM-IDDI में भारत का नेतृत्व हमें प्रतिबद्धता का सम्मान करने में मदद करेगा।” 
यूरोपीय संघ के कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (सीबीएएम) जैसे वैश्विक व्यापार नियम यूरोपीय बाजार में कार्बन सघन स्टील को और अधिक महंगा बना देंगे। इसी तरह, अमेरिका के प्रेसिडेंट बाइडेन की बाय क्लीन टास्क फोर्स यह सुनिश्चित करेगी कि अमेरिकी बाजार में ग्रीन स्टील अधिक प्रतिस्पर्धी हो और इसके परिणामस्वरूप भारतीय स्टील कम प्रतिस्पर्धी हो। 
इस क्रम में प्रार्थना बोरा, निदेशक, सीडीपी-इंडिया, ने कहा, “इस क्षेत्र को डीकार्बोनाइज़ करने के लिए तकनीकी व्यवहार्यता और समाधानों के संदर्भ में चुनौतियाँ ज़रूर हैं और उनके बारे में स्टील कंपनियां भी अवगत हैं। लेकिन भारतीय स्टील कंपनियों को अब एक साथ काम करना शुरू करना चाहिए और बेस्ट प्रेक्टिसेज़ को साझा करना चाहिए। क्योंकि, अब यह समय की मांग है।"

चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र' 

मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

व्रत 'संपादकीय'

व्रत     'संपादकीय'            

आर्यवृत राष्ट्र में सनातन संस्कृति में अध्यात्म का विशेष स्थान है। जिस प्रकार पूजा-अर्चना और पर्वों ने स्थाई रूप धारण कर लिया है। विभिन्न धारणाओं के कारण सनातन संस्कृति विविधताओं से परिपूर्ण है। इसी कड़ी में जगत आधार जग-जननी दुर्गा माता की निरंतर 9 दिनों तक विभिन्न रूपों की पूजा, नवरात्रें संपूर्ण देश में हर्षोल्लास के साथ मनाए जातें है। यह सनातन सभ्यता का अद्भुत विहंगम दृश्य है। इसी के साथ कई कुप्रथा भी फलने-फूलने लगी है। उत्सव के स्वरूप का अधिकांशतः भाग हुड़दंग में रूपांतर हो रहा है। प्रश्न यह है कि अध्यात्म से अशांत वातावरण का क्या संबंध हैं ?
अध्यात्म आत्मचिंतन का घोषक है। आत्म मंथन के उत्सव में बहुतायत में लोग उपवास रखते हैं। उपवास से शारीरिक संरचना को कई लाभ होते हैं। किंतु उपवास के पर्यायवाची व्रत का भाव दोनों शब्दों में परस्पर भेदभाव करता है। व्रत का भाव संकल्प के रूप में दृष्टिपात किया जाता है।
कोई निश्चय करने का निर्धारित समय नवरात्रों को मान लेना अनुचित नहीं होगा। व्रत की धारणा और अर्थ पर विचार करने की आवश्यकता है। पवित्रतम नवरात्रें निश्चय और संकल्प को व्रत के रूप में धारण करने की प्रेरणा और सर्वश्रेष्ठ स्रोत है।कल्याण कार्यों से विमुख, कदाचार, दूर्व्यसनों  को त्यागने का निश्चय किया सकता है। प्राकृतिक समस्याओं के विरुद्ध प्रक्रियात्मक संकल्प किया जा सकता है। सदाचार-उपकार और व्यवहार से जुड़े निश्चय कियें जा सकतें हैं। उपासना का स्वरूप सर्वदा निराकार है।
किंतु इसके विपरीत व्रत पूर्ण रूप से साकार है। शक्तिमान महाकाली, गोरी आदि रूपों में देवी प्रत्येक नवरात्रें का व्रत का पातन करने वाला सजीव उदाहरण प्रस्तुत करती है। संस्कृति और सभ्यता के विरुद्ध उत्पन्न होने वाले विकारों का नाश करती हैं। तपस्या, साधना और इच्छाशक्ति का दैविक उदाहरण देती है। संयम, दृढ़ता और त्याग के लिए प्रेरित करती है। सर्वशक्तिमान होने के बाद भी दया, क्षमा और उदारता का प्रतीक बनी रहती है। निश्चय के साथ किए गए संकल्प का सुरक्षित रूप से धारण और निर्वाह ही व्रत का वास्तविक स्वरूप है। व्रत धारण किए बिना कोई व्यक्ति शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। शक्ति का संचय और संचालन, दोनों स्थिति में व्रत धारण करना होता है। अध्यात्म का मुख्य द्वार व्रत है। यदि अध्यात्म से संबंध बनाना है, शक्ति का संचय करना, मानसिक, दैहिक और सभी क्षेत्र के विकास से जुड़ना है, तो व्रत को आत्मसात करना अनिवार्य है। इसके बिना आप की उपासना कोरा दिखावा है। जो स्वेच्छा पूर्ति का परिमार्जन है। वास्तविक उपासना से प्राप्त आनंद विहिन हैं।

चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'      

सोमवार, 4 अप्रैल 2022

अराजकता-लोकतंत्र 'संपादकीय'

अराजकता-लोकतंत्र      'संपादकीय' 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का दुरुपयोग के भिन्न युग का शुभारंभ हो गया है। इस युग का कोई नामकरण तो नहीं किया गया हैं‌। परंतु, यदि इस युग की प्रवाह पर नियंत्रण नहीं किया गया, तो भाजपा के पतन का बीज अंकुरित होने से कोई नहीं रोक पाएगा।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्र प्रगतिशीलता के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है। लोकसभा में प्रति विधेयक पारित होने से पूर्व राष्ट्र और जनहित की कसौटी पर परखा जाता है। यह दूर दृष्टिकोण राष्ट्र प्रगति का आधार स्तंभ है। खामी इंसान का स्वाभाविक गुण है, लेकिन सुधार का नजरिया गलती शेष रहने का आभास खत्म कर देता है। भाजपा दल के दोनों शीर्ष नेता (मोदी-योगी) जनकल्याण और राष्ट्र निर्माण के प्रति समर्पित भाव से सेवारत हैं। इसी मगन शीलता के चलते इसके विपरीत भाजपा के जनप्रतिनिधियों ने संयम का तर्पण कर दिया है। निरंकुश विचार बुद्धि पर हावी हो गए हैं। संवैधानिक और लोकतंत्र के चीर हरण करने पर आमादा हो गए हैं। इसमें नौकरशाही भी संविधान और गणराज्य की मर्यादा लांघकर सहयोग की भावना से साथ-साथ कदम ताल ठोक रहे हैं। उदासीनता का इससे बड़ा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। गाजियाबाद के जनप्रतिनिधियों के पत्रों, व पत्रों में अंकित आदेश स्पष्ट रूप से रूढ़िवादिता के पक्षकार है। शिक्षित समाज का यह भी एक घिनौना चेहरा है। 21वीं शताब्दी में भारतीयों ने किसी प्रकार छुआछूत से तो छुटकारा पा लिया है। लेकिन भेदभाव का जहर अधिक विषाक्तता बनता जा रहा है। मौलिक अधिकारों का दमन किया जा रहा है। सामाजिक सौहार्द और आपसी भाईचारे के विरुद्ध दरार और गहरी करने का प्रयास किया जा रहा है। प्रभावित सहयोगी सरकारी अधिकारी अकारण ही मुंछो पर ताव दे रहे है। तलवे चाटने की कहावत सिद्ध करने से क्या लाभ ? जनता सब कुछ जानती है। समय रहते ही विभागीय सहायक आयुक्त ने नियंत्रणात्मक प्रक्रिया का उपयोग किया। 
परंतु तानाशाही का यह मंजर तो और भी खौफनाक लगता है। भ्रष्टाचार की परत खोलने पर बलिया के जिलाधिकारी ने सूचना प्रदान करने वाले पत्रकारों को कारागार भिजवा दिया। वैसे तो पत्रकार समाज को अधिकारियों से सहयोग की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यदि अपेक्षा रखोगे तो खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इसके विपरीत संबंधित अधिकारी की लापरवाही व हिस्सेदारी को जनता में उजागर करने का प्रयास करना चाहिए। न्याय की अपेक्षा भी बेईमानी होगी। दलालों के लिए सुविधाएं होती होगी, कलमकारों के लिए नहीं होती हैं। पत्रकारिता का वास्तविक स्वरूप संघर्ष हैं, जहां समाज और राष्ट्र में व्याप्त बुराईयों के खिलाफ जंग लड़नी होती हैं। 
हाल ही में घटने वाली घटनाएं गणराज्य की नींव में दीमक के समान है। उत्तर प्रदेश में प्रशासन की लापरवाही स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। लापरवाह प्रशासनिक अधिकारी और अपराधी जनता के साथ खुलेआम लूट-खसौट पर उतर आए हैं। जिम्मेदार जनप्रतिनिधि अपेक्षाकृत प्रक्रिया में संलिप्त हो गए हैं। गणराज्य की गरिमा को तार-तार करने की शुरुआत, प्रतीत हो रहा है उत्तर प्रदेश से ही होगी। न्यायपालिका को उत्तर प्रदेश की संवेदनशीलता पर स्वत: संज्ञान लेने की आवश्यकता है।
राधेश्याम    'निर्भयपुत्र'

बुधवार, 30 मार्च 2022

हरा कबूतर 'संपादकीय'

हरा कबूतर     'संपादकीय' 

उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जनपद का ज्यादातर उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से मिलता है। जिसके कारण यह कुल क्षेत्र घनी-सघन आबादी वाला क्षेत्र है। औद्योगिक एवं व्यापारिक गतिविधियों के ताने-बाने में पूरी तरह डल गया है। प्रति मीटर प्रति व्यक्ति की दर का संभावित अनुमान भी बेईमानी ही साबित होगी। इसी के साथ सघन आबादी में इस विशेषता को यथावत बनाऐं रखने में प्रदूषण का प्रकोप देश में प्रथम स्थान की रेस में पहला स्थान प्राप्त करके इस कीर्तीमान को बनाए रखने का प्रयास जारी है।

जलवायु परिवर्तन, कार्बनिक उत्सर्जन और घने शोर-शराबे ने ज्यादातर पक्षियों को पलायन के लिए विवश कर दिया। ज्यादातर पक्षी क्षेत्र छोड़कर नये स्थान पर चले गये हैं। कुछेक जो नहीं जा सके, उन्हें मानव स्वार्थ द्वारा रचित जंजाल में घुट-घुट कर मरने को विवश कर दिया गया है। यह हाल एक विशेष क्षेत्र का नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर जलवायु परिवर्तन पर प्रत्येक वर्ष एक नई नीति और संकल्प निर्धारित किए जाते हैं। लेकिन मानव स्वार्थचित बुद्धि विकास के नाम पर प्राकृतिक बदलाव करने पर तुली रहती है। 
हमारे देश में प्रतिदिन सैकडो वृक्ष विकास के नाम पर खत्म कर दिए जाते हैं। विकास एक ऐसा राक्षस है जो सैकडो वर्षों से धरती पर जीवर रचने वाले मूल आधार के विनाश पर लगे हुए हैं। वृद्ध वृक्ष इस धरती पर जीवन रचना का आधार है। धरती पर जीवन रचना के मुख्य साक्षी हैं। इसी कारण मनुष्य विकास की आड़ में इन साक्षियों की हत्या करने पर अमादा है। 
संयुक्त राष्ट्र में गत 23 मार्च को कार्बनिक उत्सर्जन एवं जलवायु परिवर्तन को लेकर एक बैठक का आयोजन किया। जिसमें जैविक विविधता संरक्षण को लेकर एक निती निर्माण निर्णय लिया गया। निती का धरातल करण में लगभग दो वर्ष लगेंगे, अथवा उससे अधिक समय भी लग सकता है। जब तक विलुप्ती के कगार पर खड़ी कई प्रजातियां अपना अस्तित्व खो चुकी होगी। प्रमाण के आधार पर  पडुंक कुल के कोलाम्बिडाए वंश के पीले पैर वाले हरे रंग के कबूतर धरती पर इंडोमलयान एवं ऑस्ट्रेलियन जैव भू-क्षेत्र में पाए जाते हैं। कोलंबिड़ाए वंश की 13 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी है। पीले पैरों वाले हरे कबूतर की प्रजाति के साथ कई प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर है। यह प्रजाति शत-प्रतिशत शाकाहारी होती है। 
हालात इतने बदतर है, यह प्रजाति अपनी नस्ल के संरक्षण के लिए जद्दोजहद कर रही है। भारत के एकमात्र तमिलनाडु राज्य में इसका पाया जाना इस बात की पुष्टि करता है कि इसका गृह राज्य तमिलनाडु है। यह कहना अनुचित नहीं होगा। परंतु, वहां जलवायु परिवर्तन की तेज गति ने इन कबूतरों को प्रवासी बना दिया है। जिसके कारण सामूहिक रूप से यह प्रवासी कबूतर उत्तर-भारत में ठिकाने तलाश रहे हैं। लेकिन उत्तर भारत में वृद्ध वृक्षों के कटान के लिए सरकार दृढ़ निश्चय के साथ संकल्पबद्ध हो चुकी है। राष्ट्र के विकास को ध्यान में रखकर निर्माण और विकास के कार्य किए जा रहे हैं। जिनमें हजारों-लाखों की संख्या में वृद्ध वृक्षों को नष्ट किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि इसके अलावा अन्य विकल्प नहीं है। किंतु यह किसको समझना है...?
चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

रविवार, 6 मार्च 2022

कायर रूस 'संपादकीय'

कायर रूस    'संपादकीय'        

रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने दुनिया के एक छोटे स्तर के देश यूक्रेन पर हमला जारी कर रखा हैं एवं यूक्रेन पर कब्जा कर रखा हैं। जिस हमले में लगभग 10 हजार लोगों की मृत्यु हुईं। रूस एक कायर प्रणाली का देश हैं। जो दुनिया को खत्म करना चाहता हैं। लेकिन, अगर दुनिया ही नहीं होगीं, तो रूस कब्जा किस पर करेगा। 'राजनीति की भूख' के लिए गरीब लोगों एवं गरीब बच्चों की हत्या मत करों। यूक्रेन में रूस के आक्रमण से कम से कम 3,000 छोटे बच्चों की भी मृत्यु हुईं हैं। दुनिया एक बहुत बड़े संकट में हैं।
जहां लगभग, 600 यूक्रेनी सैनिक भी मारें गए हैं। क्या रूस अपने-आप को एक बड़ा एवं शक्तिशाली देश समझता हैं ? तो ये उसकी सबसे बड़़ी भूल हैं। रूस एक निचली प्रणाली का भी देश हैं। क्योंकि, दुनिया पर कब्जा करना, और उस पर हत्याचार करना, एक शक्तिशाली एवं विशाल देश की सबसे बड़ी मूर्खता हैं। क्या रूस कायर हो गया हैं ? वह दुनिया पर खतरनाक परमाणु हथियारों से लगातार हमलें कर रहा हैं। दुनिया में लोगों की संख्या कम हो रहीं हैं। ऐसे में रूस किस पर राज करेगा ? 'विस्तारवादी' नीति के अनुसार, रूस एक घटिया राजनीति चल रहा हैं। रूस एक विशाल देश जरूर हैं। लेकिन, वह यूक्रेन पर कब्जा कर एक कायर एवं शक्तिहीन देश के रूप में बदल गया है।
चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

बुधवार, 9 फ़रवरी 2022

शांत लहर 'संपादकीय'

शांत लहर    'संपादकीय' 
राजनीति के भेद ना समझेंं, और जो कुछ रहा अभेद। 
धन-मान गया, चली गई प्रतिष्ठा, स्वास में हो गये छेद।। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर आज भी बरकरार है, वर्तमान में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का शंखनाद हो गया है। आज उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रथम चरण का मतदान किया जा रहा है। लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को सबसे अहम माना जाता है। विधान सभा चुनाव 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर के कारण कई ऐसे चेहरे विधानसभा पहुंच गए। जो अपनी छवि, समाज के प्रति की गई सेवा और स्वयं की विशेषता से कभी भी इस प्रकार लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। 
भाजपा के लिए बौखलाहट में लिया गया निर्णय दुष्परिणाम का करण बना। अकर्मण्य, कर्तव्य विमुख और झगड़ा करने वाला व्यक्ति लोकप्रियता कैसे प्राप्त कर सकता है ? वह स्वयं समस्याएं उत्पन्न करता रहता है और उन विपत्तियों के भय से भयभीत रहता है। दलगत विचारों के विरुद्ध अन्य विषय में संलिप्त रहता है। और अंत में अपने भविष्य को स्वयं गर्त में रख देता है। ऐसी स्थिति में तो यही कहा जाएगा लहर शांत हो गई है। प्रथम चरण के मतदान में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 58 सीटों पर 2.27 करोड़ मतदाता, मतदान कर प्रत्याशियों के भाग्य बदलेगें। 
पश्चिम में मतदाताओं की प्रतिक्रिया भाजपा के प्रति अनुकूल नहीं है। भाजपा के कई प्रत्याशियों की हार सुनिश्चित हो चुकी है। इसमें आप लोग ध्रुवीकरण, एकीकरण या इसके अलावा भाजपा अथवा प्रत्याशी के प्रति जनता में रोष समझे। किंतु यह बात सत्य है, सहयोग से लहर में बने विधायक को क्षेत्र में छवि सुधारने और स्वयं को स्थापित करने का बढ़िया मौका तो मिला। लेकिन उसका सही उपयोग नहीं किया गया। परिणाम स्वरूप बागपत स्थित छपरौली विधानसभा क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी के साथ भीड़ के द्वारा अशोभनीय व्यवहार किया गया। लोनी से भाजपा प्रत्याशी के पुत्रों पर नारी शक्ति से अभद्र व्यवहार का आरोप निर्दलीय प्रत्याशी व पुत्रियों के द्वारा लगाया जाना। यह सब भाजपा से इतना ताल्लुक नहीं रखता है। जितना स्वयं की छवि और व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। यह सब तो ऐसा लग रहा है जैसे अध्ययन पूर्व ही परीक्षा पत्र हल करना। इसमें पार्टी का क्या दोष है ? यह तो स्वयं पर ही निर्भर करता है। जितनी अधिक निराई-गुड़ाई होती है। फसल उतनी ही सुंदर लहराती है। 
राधेश्याम  'निर्भयपुत्र'

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

भिक्षुक कौन 'संपादकीय'

भिक्षुक कौन   'संपादकीय' 
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव देश के सभी राज्यों में सबसे महत्वपूर्ण चुनाव है। इस चुनाव के परिणाम केंद्रीय राजनीति को निर्धारित और प्रभावी करते हैं। यही कारण है भाजपा सरकार के केंद्रीय मंत्री यूपी चुनाव में जान झोंक रहे हैं। यदि यूपी चुनाव में परिणाम अपेक्षा के विरुद्ध रहा तो भाजपा का केंद्र से निष्कासित होना तय है। 
हालांकि भाजपा उत्तर प्रदेश में पुनः सरकार गठन करने के कगार पर है। जनता के मन में भाजपा के प्रति अभी लगाव बाकी है। या यूं भी कह सकते हैं कि सांप्रदायिक तनाव को स्थिर रखने में सफल हुए हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा मुफ्त राशन वितरण योजना लागू करके गरीबों को भिखारी बना दिया है। यह अलग बात है कि सीएम योगी स्वयं भगवा वस्त्र धारण करते हैं और भिक्षुक के रूप में स्वयं को प्रदर्शित भी करते हैं। किंतु वास्तविकता इससे बिल्कुल हटकर है। भिक्षुक हाथ में कटोरा लेकर भिक्षाटन करते हैं। यहां जनता बड़े-बड़े थैले लेकर भिक्षुक की भांति राशन वितरण केंद्रों पर लाइन लगाकर खड़ी रहती है। यदि प्रदेश का युवा वर्ग बेरोजगारी के चरम पर नहीं पहुंचता, मजदूरों और मध्यम वर्ग के व्यापारी का संवर्धन किया जाता। तो यह नौबत नहीं आती। जनता भी इस बात से वाकिफ है। 
परिणाम स्वरूप प्रदेश में एक बड़ा वर्ग भाजपा के विरुद्ध खड़ा हो चुका है। एक तरफ किसान जाट मतदाता, दूसरी तरफ मुस्लिम मतदाता। पश्चिम में भाजपा के लिए परिणाम सुखद नहीं रहेंगे। यदि यही स्थिति पूर्वांचल में रही तब भाजपा का सरकार गठन करना टेढ़ी खीर हो जाएगा। विरोधियों का अनुमानित गठजोड़ हो जाता है तो हो सकता है, भाजपा का प्रदेश से सफाया हो जाएं।
इसी डर के चलते भाजपा के केंद्रीय मंत्री दर-दर जाकर अपने पक्ष में मतदान की भिक्षा मांग रहे हैं। जनता कितनी कातर हो गई है या फिर जनता इस असमंजस में है कि मांगने वाले कई हैं। यदि कई विकल्प है तो उनमें से एक विकल्प का चयन किया जा सकता है। जनता के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। जनता को भिक्षुओं की तरह लाइन में लगाने वाले आज स्वयं भिक्षुक की भांति जनता से मतदान चाहते हैं। जनता के पास मतदान का जनतांत्रिक सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है। अपने पक्ष में मतदान के लिए सभी दल हर संभव प्रयास करने में जुटा है। ऐसी स्थिति में जनता सभी भिक्षुओं को मतदान कैसे कर सकती है ?
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

शनिवार, 15 जनवरी 2022

पलायन 'संपादकीय'

पलायन     'संपादकीय'  
यह तो मेरा ही है बाबा, गेहूं-चावल सब राशन, 
जिब्हा पर गांठ बांध लो, इस पर ना हो भाषण। 

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। चुनाव की सरगर्मियां अपने चरम पर पहुंच चुकी है। चुनाव समर क्षेत्र में सभी महारथी विजय प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार के दांव-पेंच और हथकंडे आजमा रहे हैं। द्वंद में प्रतिद्वंदी को पटखनी देने के लिए तत्पर है। इसी कड़ी में लगभग सभी दलों के द्वारा प्रथम चरण के मतदान वाले प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी गई है। 
सत्तारूढ़ भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ गिरता जा रहा है। जिसके पीछे महामारी, महंगाई और बेरोजगारी को बड़ा कारण माना जा रहा है। इसी कारण भाजपा से जनता का मोह भंग हो रहा है। उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत से भाजपा ने सरकार का गठन कर लिया और बिना किसी रूकावट के पंचवर्षीय योजना का निर्वहन भी कर लिया। परंतु आचार संहिता लागू होते ही स्वेच्छाचारी या असंतुष्ट मंत्री और विधायको ने पार्टी से पलायन शुरु कर दिया। पार्टी प्रवक्ताओं के द्वारा तरह-तरह के जवाब दिए गए। जिनके आधार पर असंतोष की भावना प्रकट हुई है। मंत्री और विधायकों के पलायन से जनता में एक सीधा और स्पष्ट संदेश भी गया है। साधारण भाषा में भाजपा की नीतियों से जनता में आक्रोश व्याप्त है। आक्रोश की परिधि का दायरा बढ़ता देखकर समझदार राजनेताओं ने अपना मार्ग बदल लिया है। बल्कि, यूं कहिए अपना राजनीतिक कैरियर बचाने के लिए अन्य दलों का सहारा लिया जा रहा है। इसमें कहीं ना कहीं निराशा और असंतोष के कारण भाजपा परिवार बिखर रहा है। बिखरते संगठन को नियंत्रित करने की अभिलाषा में शीर्ष नेतृत्व ने स्वयं को असमंजस में फंसा हुआ महसूस किया। इसी कारण 'टिकट काटो' अभियान बंद कर दिया गया और पुराने चेहरों पर फिर से दांव लगा दिया गया। इसमें नेतृत्व का अभाव प्रतीत किया जा रहा है। क्योंकि जहां पर प्रत्याशी का बदलना जरूरी था, वहां पर उसे पुनः प्रत्याशी घोषित करना, दबाव में लिया गया एक फैसला है। जिसके परिणाम पूर्व से निर्धारित है, जिसका खामियाजा भी पार्टी को भुगतना पड़ेगा। 
वर्तमान विधायकों में कईयों के टिकट निश्चित रूप से कटने थे, लेकिन संगठन को विकृत होने के भय से बचाने के प्रयास में कई सीटों पर स्वयं पराजय स्वीकार कर ली गई है। वर्तमान सरकार में धर्मवाद-जातिवाद आधारित राजनीति "स्वच्छ राजनीति" पर हावी रही है। जिससे जनता का विभाजन कर पाना आसान रहा। किंतु नीतिगत रूप से एक वर्ग का शोषण भी हुआ है। वर्तमान चुनाव में मतदान का आधार जनता की मूल समस्या, चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार एवं आर्थिक सुधार को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। संप्रदायिकता, धार्मिक भावना आधारित भाषण से जनता को बरगलाने की कोशिश इस बार नाकाम रहेगी। लंबे समय से समस्या से जूझता मध्यमवर्गीय, निम्न वर्गीय व्यापारी और मजदूर वर्ग का भाजपा से मन भर चुका है। विकल्प चाहे कोई भी रहे, परंतु भाजपा स्वीकार नहीं है। केवल अपराध नियंत्रण के अलावा सरकार कुछ भी साबित कर पाने में असफल है। 
मुफ्त में राशन वितरण योजना मात्र एक दिखावा है। इससे जनता का क्या भला हो सकता है? युवा वर्ग बेरोजगारी की पीड़ा से आहत है। जिसका मुख्य कारण है भाजपा से अलगाव। यदि भाजपा युवा वर्ग को संतुष्ट कर पाने में सफल हो पाती तो आज इस मुकाम पर नहीं पहुंचती। परिणाम स्वरूप भाजपा के घर में ही 'पलायन' का हंगामा शुरू हो गया है। तमाशा देख कर जनता खिलखिला कर हंस रही है। जनता इस बात का भी एहसास कर रही है कि बहुत दिनों के बाद "अच्छे दिन" आए हैं और मौका जो मिला है...
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

किसान गोष्ठी का निरीक्षण कर, जायजा लिया

किसान गोष्ठी का निरीक्षण कर, जायजा लिया ग्राम पंचायत बलकरनपुर एवं सकाढ़ा में आयोजित किसान गोष्ठी का सीडीओ ने किया निरीक्षण ...