रविवार, 14 अगस्त 2022

तिरंगा   'संपादकीय'

तिरंगा   'संपादकीय' 

मेरी आन तिरंगा है, मेरी शान तिरंगा है, 
मेरी जान तिरंगा है।
व्यापार तिरंगा है, नवाचार तिरंगा है। 
कितना बदला हमारा देश, गरीब नंगा है।

15 अगस्त, सन 1947 की उस रात जब देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आजाद भारत में अपना पहला भाषण दे रहे थे, तब गांधी ने समारोह में शामिल होने से मना कर दिया। स्वत्रंता दिवस समारोह में शामिल होने के लिए नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने साझा निमंत्रण गांधी को भेजा लेकिन इसके बावजूद गांधी नहीं आए। शायद वो यह सब कुछ देख पा रहे थे, जो धर्म के आधार पे किए गए विभाजन के बाद होने वाला था।
आज ही के दिन हुए इस शर्मनाक विभाजन में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान तो बन गया। लेकिन, थोड़ा हिन्दुस्तान पाकिस्तान में रह गया और थोड़ा पाकिस्तान हिन्दुस्तान में। शायद यह सर्जरी पूरी सफल नहीं हुई थी, बस भौगोलिक विभाजन किया गया। लाहौर और अमृतसर के बीच कुछ तथाकथित जानकारों ने एक लकीर खींच कर समझा कि बस हो गया। सबने ज़मीन तो बाँट ली, लेकिन लोगों का क्या ?
जो अपना घर नहीं छोड़ना चाहते थे, उन्हें लगा कि ये सब समय के साथ धीरे-धीरे समान्य हो जाएगा। वह इस उम्मीद में घरों में रहकर सब बर्दाश्त करते रहे, कि जिन्ना है तो क्या हुआ हमारे पुरखे तो नवाब शाह के ही है, मैं अपना घर छोडकर क्यूं जाऊं ? या इस तरफ़ नेहरू है तो क्या हुआ ? मैं तो यही दिल्ली में पैदा हुआ हूँ, यहाँ मेरा घर है, मैं तो यहीं पैदा हुआ यही मरूंगा। फिर मेरे बाप दादा भी तो यहीं दफन हैं। मैं उन्हें यहाँ ऐसे छोड़कर कैसे चला जाऊँ ?

लेकिन हुआ कुछ और ही...
जिन्होनें घर नहीं छोड़ा वो जबरन निकले गए उनका दर्द तो शब्दों में बयां भी नहीं किया जा सकता। उनकी तो उम्मीद तक ने दम तोड़ दिया था। मुश्किल से अनजान जगह आकर नई शुरुआत करना, उस पार अपना सब कुछ होते हुए भी बेघर मैदानों में एक टेंट में बच्चों के साथ सालों तक जिंदगी गुजारना।

कभी सोचा ? ये सब किस के लिए था ? उन नेताओं की कुर्सी के लिए ? जिन्होनें आजादी तो दिलवा दी, लेकिन सत्ता के स्वार्थ के लिए हिन्दू और मुस्लिम जैसे शर्मनाक धार्मिक आधार पर लोगों को बटवारा स्वीकार कर लिया ? सूखी लकड़ी की तरह सबको वर्षों तक झोंकते रहे दंगों की भट्टी मे अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए ? ताकि, उनकी सात पुश्तों का इन्तेजाम हो जाए। फिर उसकी कीमत चाहे हजारों लाखों बच्चों के सिर से उनके माँ-बाप का साया छिन जानां ही क्यूँ न हो ? लड़ा दो बस, कभी मुस्लमान के पक्ष में खड़े हो जाओ, तो कभी हिन्दू के पक्ष में ?  कितना सब कुछ सबने खोया है।
लेकिन, दुःख इस बात का है, कि आम आदमी को अब तक यह गंदा खेल समझ नहीं आ रहा।
इस मुल्क में सभी मतलब सभी नेताओं ने शुरू से ही अपनी सत्ता की हवस के चलते जो आम लोगों के साथ किया है, वह क्षमा योग्य बिल्कुल नहीं हैं। चाहे वो हिन्दू हो या मुस्लमान, सिंधी हो या दिल्ली के सिक्ख, चाहे वो कश्मीरी पंडित हो या फिर गोधरा के दंगों में मारे गये देश के नागरिक या फिर कश्मीर घाटी अथवा मुंबई की होटल ताज में हुए आतंकी हमले में मारे गए आम नागरिक। सबने कीमत चुकाई है, सत्ता सुख भोगने को लालायित लोगों के अहम की।
राजनीति के पास दिल तो होता नहीं, जो सत्ता की भूख से ऊपर उठ कर य़ह दर्द महसूस कर सके।
जिस तरह से मुस्लिम तुष्टीकरण की बात की जाती रही है इतने सालों तक, और हर सवाल का जवाब वर्षों तक नेताओं द्वारा सर्वधर्म समभाव , अल्पसंख्यक संरक्षण और पिछड़े वर्ग का उत्थान बता कर सत्ता साधने का धूर्त खेल खेला जाता रहा है, बिल्कुल उसी तरह से अब एक नया दौर चल पड़ा है। जिसके चलते जातीय ध्रुवीकरण और इतिहास में की गई गलतियों को सुधारने के नाम पर, सत्ता साधन किया जा रहा है। वैचारिक अभिव्यक्ति की आजादी के रास्ते संकरे हो गए हैं। जिस तरफ देखो उस तरफ लोगों ने अलग-अलग रंग के चश्मे लगा रखे हैं। जिससे उन्हें उसी रंग का भारत दिखाई देता है, जो उन्हें अपनी सत्ता साधने में मशगूल राजनीतिक दल दिखाना चाहते है। मन की बात कहने सुनने से ज्यादा पकड़ कर सुनाने का चलन चल पड़ा है। योग्यता हो या न हो, बस परंपराओं के नाम पर अयोग्य लोगों को देश की बागडोर संभलाने की आतुरता देखी जा रही है। योग्यता अयोग्य के सिंहासन के पाये के तले दम तोड़ रही है। पिछड़े वर्ग के संरक्षण का भारी दंभ भरने वाले लोगों के बीच एक 8 साल के बच्चे को मात्र इसलिए जान से मार दिया जाता है। क्योंकि उसने अपने उच्च जाति है। शिक्षक के मटके में से पानी पी लिया। सही बात खुल कर कहने वालों की राष्ट्रभक्ति पर जातिवाद की चिलम लिए घूम रहे समूह प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं। कौन कितना राष्ट्रभक्त है ? उसका निर्णय सत्ता की ड्योढी पर बैठे हुए स्वामिभक्त कर रहे हैं। लेकिन, इस सबके बीच में भी यह देश किसी भी कीमत पर अपना मूल रूप खोने को तैयार नहीं है।
देश के वैज्ञानिक मंगल तक जा पहुंचे हैं, देश की प्रतिभाएं पूरे विश्व में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का गौरव बड़ा है। विश्व को भारत में विश्व गुरु की आंशिक झलक दिखाई देने लगी है, सोशल मीडिया के माध्यम से सूचना की गति बढ़ी है। जिससे आम आदमी वैचारिक तौर पर पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है। आम आदमी में राष्ट्रीयता का भाव बड़ा है। रुपया कमजोर हुआ है। लेकिन, हमारे उद्यमियों का हौसला अब भी बुलंद है और उम्मीद अब भी कायम है।

राजनीति का क्या है ? 
राजनीति दोष लगाने और श्रेय खाने का खेल है और इस खेल के पारंगत खिलाड़ी इस देश में शुरू से ही बहुत तादाद में रहे है। जिसका शिकार आम आदमी सदा से होता रहा है। लेकिन अब लगता है कि वह समय आ गया है कि इन राजनीतिक खिलाड़ियों को इस देश का आम आदमी सामने बैठकर आंखों में आंखें डाल कर य़ह कह दे कि नेताजी! मैं बेवकूफ नहीं हूँ, मुझे सब दिखाई दे रहा है। तुम्हें राज करना है राज करो। लेकिन, तुम्हारा राज करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण है इस देश में एकता और शांति बनाए रखना।
आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के लिए जिस तरह से 15 अगस्त इस बार आम आदमी के त्योहार के रूप में मनाया जा रहा है। ऐसा आज से पहले कभी भी देखने को नहीं मिला है। जिसके लिए यह देश, आप और हम सब लोग बधाई के पात्र हैं। तिरंगा हमारा स्वाभिमान है, उसका अपमान नहीं होगा।
नरेश राघानी

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