तुमको देखा तो ये ख्याल आया।
ध्रुव गुप्त।
मुंबई। आधुनिक भारतीय सिनेमा की महानतम अभिनेत्रियों में एक शबाना आज़मी ने अपने चार दशक लंबे फिल्म कैरियर में सिनेमा में संवेदनशील और यथार्थवादी अभिनय के जो आयाम जोड़े उसकी मिसाल भारतीय तो क्या, विश्व सिनेमा में भी कम ही मिलती है। उन्होंने बताया कि बिना शारीरिक हावभाव के आंखों और चेहरे से भी अभिनय किया जा सकता है।
महान शायर कैफ़ी आज़मी और रंगमंच अभिनेत्री शौकत आज़मी की इस बेटी को फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट से ग्रेजुएशन के बाद जो पहली फिल्म मिली थी ख्वाजा अहमद अब्बास की 'फ़ासला', लेकिन उनकी जो पहली फिल्म परदे पर आई, वह थी श्याम बेनेगल की 'अंकुर'। इस फिल्म की सफलता और ख्याति ने उन्हें उस दौर की एक दूसरी महान अभिनेत्री स्मिता पाटिल के साथ तत्कालीन समांतर और कला सिनेमा का अनिवार्य हिस्सा बना दिया।
सौ से ज्यादा हिंदी और अंग्रेजी फिल्मों में अभिनय कर चुकी शबाना देश की पहली अभिनेत्री हैं जिन्हें अपनी फिल्मों - अंकुर, अर्थ, खंडहर, पार और गॉडमदर में अभिनय के लिए पांच राष्ट्रीय पुरस्कार और अपनी फिल्मों - अंकुर, थोड़ी सी बेवफाई, मासूम, अवतार, मंडी, स्पर्श, मकड़ी और तहज़ीब के लिए आठ फिल्मफेयर पुरस्कार मिले।
फिल्मों के अलावा वे अपने सामाजिक सरोकारों और जन मुद्दों पर संघर्ष के लिए भी जानी जाती हैं। बाल कल्याण से जुड़े मसलों, एड्स के प्रति जागरूकता और सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में उनकी सक्रिय भागीदारी ने दिखाया कि एक कलाकार की संवेदनशीलता पर्दे पर ही नहीं, वास्तविक जीवन में भी व्यक्त होती है।
जन्मदिन पर शबाना जी के लंबे, सृजनशील जीवन के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।