आज संविधान 'संपादकीय'
आज फिर देश के प्रधानमंत्री के द्वारा पूर्व की भांति लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज का रोहण किया गया। परंपरागत निर्धारित कार्यक्रमों का समापन किया गया। देश के विकास, निर्माण और योजनाओं का व्याख्यान भी किया गया। सरकार की उपलब्धियां एवं आगामी योजनाओं पर खूब वाहवाही के साथ तालियों की गड़गड़ाहट ने कुछ समय के लिए, समय को भी बांध लिया। गणतंत्र-दिवस के आयोजन की गूंज संपूर्ण विश्व में गूंजी है। दुनिया की सबसे बड़ी दूसरी लोकतांत्रिक व्यवस्था भारत गणराज्य में गणतंत्र-दिवस अत्यंत महत्वपूर्ण और विशेष है। गणराज्य की परिभाषा के प्रतिकूल होने वाले विकारों पर शायद किसी का ध्यान नहीं है। सरकार अपनी उपलब्धियों के गुणगान में मूलभूत कर्तव्य से पिछड़ गई है। इसके पीछे भाजपा ही है, भाजपा में कुछ नेताओं की नीति स्पष्ट नहीं होती है। जनता की कुछ अपेक्षाओं को पूर्ण करना और अपने दायित्व से मुंह मोड़ लेना, इसे छद्दम कार्य ही कहा जाएगा। जहां जनता का राज्य है। वहां जनता का भीषण शोषण और उत्पीड़न होना, कितना शर्मनाक है ? इसका अनुमान लगाया जा सकता है। आज संविधान के अनुरूप देश में बहुत कुछ नहीं हो रहा है। देश में बेरोजगारी का बढ़ता ग्राफ इतना गंभीर बन चुका है कि इस को व्यवस्थित करने में अभी कई सालों का समय लग सकता है। जनता सरकार से यह आशा तो कर ही सकती है कि जनता को रोजगार के अवसर प्रदान किए जाएं। दैनिक भरण-पोषण में आने वाली समस्याओं का संबंध आर्थिक समस्या से न जुड़ा हो। लेकिन वर्तमान सरकार में इस नीति पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। मजदूर व्यक्ति का इतना शोषण शायद पहले कभी नहीं हुआ है। मजदूरों की हड्डियों का जूस निकालने पर व्यवस्थाएं अमादा है। इसके विपरीत अधिकारी इतने भ्रष्ट हैं कि चश्मा पहन कर रखते हैं कि कहीं किसी से नजर मिलानी पड़ी तो काम आएगा। केसरिया बंधेज बांधकर ट्टपूजिंया नेता जनता के धन पर डाका डाल रहे है। आखिरकार यह कैसा अद्भुत विकास है? क्या गणराज्य में सब के विकास के प्रति कोई नियम निर्धारित नहीं है? आज संविधान और संविधान के शुभचिंतकों को शायद विचारने के लिए विवश होना पडे। जनता को प्रधानमंत्री से जो उम्मीद थी, वह शायद ही पूर्ण हो सके। हालांकि यह बात भी पूरी तरह सत्य है कि सभी को संतुष्ट करना बड़ा कठिन है। लेकिन यह बात भी सही है कि सबकी अपनी क्षमताएं होती है। देश में फैला खुला भ्रष्टाचार और संविधान के विरुद्ध होने वाले अनैतिक कार्य अभी भी एक चुनौती है। इसे स्वीकार करना या इससे भाग जाना, यह स्वविवेक पर निर्भर करता है।
कुर्बानियों का दौर, आज भी नया है।
जज्बात है जिंदा, कतरा-कतरा खून जवां है।
राधेश्याम 'निर्भय-पुत्र'