जीवनकाल 'संपादकीय'
'लिबास' देखकर हमें गरीब न समझ,
हमारे 'शौक़' ही तेरी जायदाद से ज्यादा है।
आजकल युवा पीढ़ी फैशन परस्ती में लोक-लाज, लिहाज सब भूलकर भारतीय संस्कृति का अपमार्जन करते हुए, अपमान की सभ्यता को तवज्जो देने लग गई है। जबसे पाश्चात्य सभ्यता ने दस्तक दी है, भारतीय संस्कृति का विलोपन होने लगा है। हर कोई पराया हो गया, कोई भी सगा नहीं है। रहन-सहन, पहनावा दिखावे का प्रचलन जोर पकड़ रहा है। जिधर देखिए देहउघारु कपड़े का चलन है। राह चलते आए दिन छेड़खानी और लफड़े होते हैं। सुन्दर काया लिए आज का आदमी पाश्चात्य पहनावा में जोकर लग रहा है। फिर भी गुमान है, हम आधुनिक इन्सान है? गजब साहब कभी सिर पर पल्लू रखें महिलाओं घर से निकलती थी तो उनके संस्कार का बखान होता था। परिवार का उनका चाल-चलन देखकर नाम होता था वो भी कोशिश करती थी कि राह चलते पैर का अंगूठा भी न दिखे। मगर आज साहब क्या बात है आधुनिक जमाने की पढ़ी लिखी जनरेशन का फैसला देखिए।
कोशिश करती है विवाह के मंडप में ही उसका सब कुछ सब लोग देखे? गजब गिरावट है। अब तो कुछ भी नहीं बचा। जिसमे नहीं होती मिलावट है। पुरानी पीढ़ी जो हिन्दुस्तानी संस्कृति के पहचान थी अब समापन के तरफ है। धोती कुर्ता सदरी का प्रचलन खत्म हो रहा है। फटा जीन्स पैन्ट फटी कमीज़ बिना तमीज सड़कों पर आवारा गर्दी किसी ने रोका तो बिना लाग लपेट बोल देते है यह हमारी मर्जी। अगर सलीके से साड़ी बांधे औरत और धोती कुर्ता में कोई मर्द दिखा तो जाहील गंवार गरीब अनपढ़ कहकर उपहास आज की युवा पीढ़ी करती है। उनको पता ही नहीं है की यही हमारी पहचान यही हमारी धरोहर है। इसी से हमारी शान है। यही आर्यावर्त, भारत, हिन्द,का असली हिन्दुस्तान है? मगर बदलते परिवेश में बदलाव की जो हवा विषाक्त वातावरण का निर्माण कर रही है। उसकी चपेट में आकर आज का वातावरण पूरी तरह प्रदूषित हो चला है।
शहरो में दिखावा फ़ूहड़ पहनावा फैसन मस्ती फैसन परस्ती आम बात है। वहां उनका अलग मिजाज अलग जज़्बात है। लेकिन गांव जहा भोले भाले लोग आपसी मुखालफत में भी सराफत लिए आपसी भाई चारा के साथ पुरातन परम्परा के अनुगामी रहे है। आज वहां भी फैसन परस्ती ने बदनामी का मंजर तैयार कर दिया है। पूरुष हो या महिलाएं शर्म, हया, लाज लिहाज खत्म होता जा रहा है।पर्दा के भीतर जो मर्यादा सुरक्षित थी। आज बिना पर्दा खुलेआम बेशर्मी की सारी हदें पार कर रही है। नंगापन, फूहडपना,देह शउघारू कपड़ों का प्रचलन, जोर पकड़ लिया है।
अब पहले वाली बात गांवों में नहीं रही निरंकुश ब्यवस्था उफान पर है। घर का मुखिया दुखिया बना बर्बाद होते परिवार को देखकर कूढ रहा है। मगर हालात दिन पर दिन बेकाबू हो रहा है। न किसी का डर न किसी का लिहाज। घर घर बर्बादी का दीपक जल रहा है। आज, कितना बदल गया समाज। जो कुछ पहले था ठीक उसके उल्टा हो गया। इस बदलाव के मौसम में आदमी की पहचान उसके मान सम्मान स्वाभिमान से नहीं उसके मकान से मापा जा रहा है।उसकी हैसियत उसके कपड़ों से नापा जा रहा है। जिसके पास इज्जत का खजाना है। वह सबसे पिछड़ा है समाज में बेगाना है।जिनका जितना दिखावा आधुनिक पहनावा है उसी का जमाना है। समय के जिस तरह दरिया बदलता उसी तरह वक्त अपना नजरिया बदलता रहता है।अब न पुरातन संस्कार रहे। न पुरातन घर परिवार रहे। न लोगों में आपसी सद्भावना रहा। बिखराव बहाव का अन्धड चल रहा है। मजबूरी में आंखें बन्द करना है। अब न कोई रिश्ता है। न कोई फरिश्ता है। स्वार्थ की दरिया में उफान है।
साथ तभी तक है जब तक जरूरत पूरी नहीं होती है। ज्योही ज़िन्दगी की कश्ती झंझावात करती हवाओं से बचकर साहिल पर लंगर डाली वहीं औलाद बेगाना होगा गई ज्योहीं मिल गई घर वाली। अरमानों का महल बनाकर ख्वाब सजाकर सपनों की दुनियां में हर रात आखरी सफर के सौगात का भ्रम पाले वो मां बाप मुगालते में रहे जिनके अपने-सारे सपने तोड़कर मुंह मोड़कर तन्हाई में रहने को विवश कर दिए। परिवर्तन की पराकाष्ठा में आस्था धाराशाई है। जो कल तक अपना था आज वही बना तमाशाई है। गमों का बोझ लिए हर पल सिसकते हुए जीवन का हर क्षण सुख सम्बृधि की चाहत में आहत मन के साथ अपनों के भविष्य के लिए जिसने होम कर दिया। वहीं, आज आखरी सफर के कंटीले राह में अथाह दर्द की बेदना लिए सम्वेदना शून्य समाज में तिरस्कृत हो गया। उसी घर से वहिष्कृत हो गया, जिसको अपने खून पसीने से संवारा था।
जगदीश सिंह