जल रहा है कण-कण, बरस रहे अंगार।
साधु-संत ना होते तो जल जाता संसार।
ढोंग का आडंबर रच कर, स्वांग का मंच बनाकर, नर्तक-नर्तकी, गीतकार कला का प्रदर्शन करते हैं और अपनी आजीविका निर्वाह करते हैं। परंतु उनका हृदय निर्मल और निश्छल रहता है। पक्षपात रहित सभी को अपने गुणधर्म का आनंद लेने के लिए स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। उसमें किंचित भी लेश मात्र नहीं रहता है। आज देश की स्थिति अत्यंत दयनीय बन गई है। सामर्थ्यवान और उत्तरदायी लोग अपने दोषो को निरीह और कमजोर पर थोपने का कार्य कर रहे हैं। देश की बागडोर संभालने वाले सभी लोग धन्य है। मानव जाति को वर्ग-समूह में बांटकर दृष्टिगत करने वाले नीती धारको की महिमा भी कम नहीं है। विवश और लाचार व्यक्ति की पीड़ा को अपने स्वार्थ की बलि चढ़ाने वाला एक भी व्यक्ति क्षमा प्रार्थी नहीं है। यह भी स्मरण रखना चाहिए, समय की गति कभी नहीं रुकती है। यहां इसी पृथ्वी पर बहुत सारे बलिस्ट, बुद्धिमान, मानव, तपस्वी भी हुए हैं। लेकिन समय सब कुछ निगल गया है और किसी को इसका एहसास भी नहीं हुआ। आज भूख और लाचारी के जन्मदाताओं के मुख पर मुर्दों के जैसी उदासी देखी जा सकती है। बल्कि साफ-साफ दिख रही है। जनता की रक्षा और सुरक्षा के चक्रव्हू की संरचना में कई द्वार खाली छोड़ने के कारण यह पराजय अंत समय तक आत्मग्लानि का दर्पण दिखलाती रहेगी और इसकी विभूति सदियों तक अंकित रहेगी। जिन लोगों का मन संवेदना से परिपूर्ण है। जिन्हें मान, पद, प्रतिष्ठा से कोई लगाव नहीं है। जिन्होंने वस्त्रों को रंगने के बजाय, अपने मन को रंगा है। जो मानव सेवा के महत्व को समझते हैं। उन्होंने सब बंधनों को त्याग कर, सेवा और समर्पण के मार्ग को अपनाया है। लेकिन ऐसे उन्मुक्त प्राणियों की गिनती बहुत कम रह गई है। साधुवाद और तप की परिभाषा का भी ज्ञान नहीं है। ऐसे लोगों से जनता को इस युग में कोई आशा और अपेक्षा रखना उचित नहीं है।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'