मंगलवार, 27 जून 2023

रिश्तों की बुनियाद   'समसामयिक'

रिश्तों की बुनियाद   'समसामयिक'

यूं असर डाला है, मतलबी लोगों ने दुनियां पर।

हाल भी पूछो तो समझते हैं कुछ काम होगा ?

वक्त के आईने में हर तस्वीर अब धुंधली नजर आती है। लोगों के दिलों में चाहत कम, मुखालिफत का दौर चल रहा है। रिश्तों की बुनियाद दरक रही है, हर आदमी के हाथ से सम्बन्धों की रेत, जरा सा ठोकर लगी बेईंतहा तेजी से सरक रही है। चारों तरफ धुन्ध ही धुन्ध छाया है। उपर वाले की गजब माया है। आज दगाबाज निकल रहा हर हम साया है।बदलती ज़िन्दगी का हर लम्हा दर्द की सौगात देते गुजर रहा है। किसी ने सच कहा है कि इस मतलबी जहां में कोई नहीं अपना है। माया की मृगतृष्णा में मानव समाज, दौलत की प्यास में दर-दर भटक रहा है। उसी दौलत की चकाचौंध में सम्बन्धों का खून कर रहा है। जबकि उसको पता है साथ कुछ नहीं जायेगा? जिसके लिए सम्पूर्ण जीवन दर्द में रहकर, भाग-दौड करता रहा, पाई-पाई जोड़कर, तरक्की की बग्गी पर सवार हो कर, अपने भाग्य पर इतरा रहा था।

वही, जब आखरी सफर के कठिन राह में अकेला छोड़कर चला गया, तो पश्चाताप के आंसू सैलाब बनकर बहने लगे। दुनियां में जो कल तक तमाशाई थे, आज वही तमाशा बनकर निराशा के भंवर में सिसक-सिसक कर दम तोड रहे हैं। आधुनिक जमाने में अपनों की भक्ति तभी तक है, जब तक शरीर में शक्ति है। स्वार्थ की आशक्ति, उम्मीदों का सहारा पाकर जिन्दा है। यह भी सच है कि धन-दौलत चाहत विहीन इन्सान का जीवन भिखारी से भी बद्तर है। मगर रिश्तों की मर्यादा में रहकर सम्मान के साथ सर्वत्र व्याप्त निरंकार की सरपरस्ती के साथ धन-सम्पदा आहरण कर मानवता की राह पर चलते हुए इन्सानियत की आभा से ग्रसित होकर, संयमित जीवन में रहकर, महाप्रयाण तक का सफर जिसने पूरा किया, उसका परिवार भी सुखी रहा।

यह सच है कि सुख के लम्हे तक पहुंचते-पहुंचते हम उन लोगों से जुदा हो जाते हैं‌। जिनके साथ हमने दुःख झेलकर सुख का स्वप्न देखा था। हम अपनो से परखे गयें कि गैरो की तरह। हमने लोगों को बदलते देखा है गुजरते मौसम की तरह। समय के साथ बदलती दुनिया में रिश्तों का मोल खत्म हो रहा है। जिंदगी में सब कुछ दोबारा मिल सकता है। लेकिन वक्त के साथ खोया हुआ रिश्ता और भरोसा दोबारा नहीं मिल सकता। आदमी समय की चक्की में पीस कर रह जाता है। कर भी क्या सकता है? अपनी बेबसी पर हंसता है, रोता है। फिर तन्हाई में जीवन भर के गुजरे लम्हों के यादों मे खोए भाव, शून्य होकर शिथिल पड़ जाता है। 

जिस घर को सजाने में जीवन का अनमोल समय गंवा दिया। वहीं पर अपमान का घूंट पीना मजबूरी बन जाती है। जो कभी सभी के लिए बेहद खास था, आज उसी का उपहास उड़ाया जा रहा है। किसी ने सच कहा है कि कुछ किरदारों से ही निकलती है वफादारी की महक, वक्त का मारा हर इन्सान बेईमान नहीं होता है।

तेजी से बदलते आधुनिक समाज में आज अपनत्व का घनत्व स्वयं के सूत्र पर आधारित हो गया, ममत्व का फार्मूला फेल है। यही तो नये जमाने का खेल है।ज़िन्दगी के सफर में ज्यों ही दोपहर का समय पार होता है, अपार अकुलाहट के साथ वियोग की धूप-छांव खेल करने लगती है। इक अदद वफ़ा की तलास मे यकीने दिल लुटा के आयें है। तुम इश्क-ए-समन्दर कहते हो हम प्यासे वहीं से आये है। आज हालात इसी दौर से गुजर रहे हैं।बदलाव की गंगा में उफान है। रिश्तों की मर्यादा खत्म हो रही है।आदमी बस जरूरत भर का सामान है। कभी फुर्सत में सोचना कि क्या पाया, क्या खोया? ज़िन्दगी जीने की जद्दोजहद में दर्द भरी ज़िन्दगी को गंवाया है। दुनियां की इस सच्ची-झूठी रस्मों में हमने ना जाने  कितनी खुशियों को खोया है? सिर्फ अपनों के उज्जवल भविष्य के लिए। मगर आखरी डगर पर सिर्फ तन्हाई ही साथ रह गई।

जगदीश सिंह

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