गुरुवार, 11 जून 2020

चिंताः संक्रमण के मुंह में धकेली दिल्ली

अनिल अनूप


नई दिल्ली। देश की राजधानी दिल्ली परमाणु बम पर बैठी है, जो कभी भी फट सकता है। दिल्ली में 31 जुलाई तक कोरोना के 5.5 लाख संक्रमित मरीज हो सकते हैं। 15 जुलाई तक 2.25 लाख संक्रमित होने का आकलन है। यह खुलासा दिल्ली सरकार के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने तब किया, जब वह उपराज्यपाल की अध्यक्षता वाली आपदा प्रबंधन बैठक में शिरकत के बाद सार्वजनिक हुए थे। उपराज्यपाल के साथ उनके कुछ संवादों का ब्योरा भी उन्होंने दिया। कमोबेश इस स्तर पर संवैधानिक शख्सियत झूठ नहीं बोल सकती, क्योंकि पलट कार्रवाई के लिए संविधान उपस्थित है। उपराज्यपाल ने अस्पतालों पर केजरीवाल सरकार के फैसले को ‘संविधान-विरोधी’ करार देते हुए उसे खारिज कर दिया, लेकिन कोई वैकल्पिक आकलन नहीं दिया कि यदि दिल्ली में संक्रमण की विस्फोटक स्थितियां पैदा होती हैं, जिनके आसार अब पूरे लगते हैं, तो दिल्ली सरकार क्या करेगी? कोई भी उपराज्यपाल या मुख्यमंत्री देश और उसके नागरिकों से बड़ा और महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता। पदेन सुविधाएं और गरिमा संविधान के कारण नसीब होती हैं। उसी संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 आम नागरिक के मौलिक अधिकारों की व्याख्या करते हैं। कोई उपराज्यपाल या मुख्यमंत्री उसे लांघ नहीं सकता। यदि उप मुख्यमंत्री के एक सवाल पर, कोरोना वायरस की संभावित भयावह स्थितियों के संदर्भ में, उपराज्यपाल जवाब देते हैं-‘देखते हैं’, तो फिर कहा जा सकता है कि व्यवस्था के संचालकों और सूत्रधारों ने देश की राजधानी तक को ‘रामभरोसे’ छोड़ दिया है। दूसरी ओर, विश्व स्वास्थ्य संगठन का ताजा आकलन है कि कोरोना महामारी ‘बदतर’ होती जा रही है। दिल्ली में ही कोरोना के मरीज 31,000 को पार कर चुके हैं और मौतें भी 900 से अधिक हो चुकी हैं। विश्लेषण ऐसे भी सामने आए हैं कि यदि कोरोना संक्रमण की गति और उसका विस्तार यही रहे, तो देश में 26 जून तक पांच लाख, 11 जुलाई तक 10 लाख और 28 जुलाई तक 20 लाख संक्रमित मरीज होंगे। क्या उन्हें संभालने और उचित इलाज मुहैया कराने के बंदोबस्त किए गए हैं? देश के औसत आदमी को डराने की मंशा हमारी नहीं है, लेकिन विस्फोटक हालात के प्रति आगाह जरूर कर रहे हैं। आश्चर्य है कि ऐसे चेतावनीपूर्ण हालात के बावजूद केंद्र सरकार के स्वास्थ्य और कोरोना महामारी से संबद्ध अधिकारी ‘सामुदायिक संक्रमण’ की हकीकत मानने को सहमत नहीं हैं, लिहाजा उपराज्यपाल वाली आपदा प्रबंधन की बैठक में इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा की ही नहीं गई। अजीब विरोधाभासी समीकरण हैं कि दिल्ली सरकार के उप मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ने ‘सामुदायिक संक्रमण’ की बात कही है, लेकिन उपराज्यपाल और केंद्र सरकार इसे नकार रहे हैं। आखिर केंद्र इसे स्वीकार कैसे सकता है? मोदी सरकार की फजीहत होगी और लगातार सवाल पूछे जाएंगे कि इतने लंबे लॉकडाउन के बावजूद संक्रमण इस हद तक कैसे फैल गया कि संभावित आंकड़े दहशत पैदा कर रहे हैं और सामुदायिक संक्रमण की बहस छिड़ गई है? यह भी बेनकाब हो जाएगा कि 24 मार्च के बाद क्या किया गया। मुद्दों से भटकाने के लिए दूसरे कौन से मुद्दे पैदा किए गए। अब देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर भी चर्चा छिड़ सकती है। हम जीडीपी का मात्र दो फीसदी भी स्वास्थ्य पर खर्च नहीं कर पाते हैं। कितनी आबादी पर कितने अस्पताल हैं, कितने डॉक्टर और दूसरे कर्मी हैं, यह आंकड़ा भी बेहद शर्मनाक है। अब चर्चा यहां तक सुगबुगाने लगी है कि स्वास्थ्य सेवाओं का ‘राष्ट्रीयकरण’ किया जाए। एक छोटा-सा देश क्यूबा इसका उदाहरण माना जा रहा है, जहां एक भी निजी अस्पताल नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में भारत विश्व में 145वें स्थान पर है। बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और म्यांमार सरीखे पड़ोसी देशों की स्थितियां हमसे बेहतर हैं। बहरहाल कोरोना बार-बार करवट बदल रहा है। वह बहुत तेजी से फैलने वाला वायरस है। गर्मी, सर्दी, गीलापन, सूखा और मरुस्थल सरीखी जलवायु और मौसम का इस पर प्रभाव नहीं दिखा है, लिहाजा यह विकराल रूप धारण करता जा रहा है। मुंबई के आंकड़े चीन के वुहान शहर को पार कर 51,000 से अधिक हो गए हैं। क्या अब यह ‘कोरोना राजधानी’ होगी? भारत में कोरोना का कहर कुछ शहरों तक ज्यादा सिमटा है। अब जून के अंत और जुलाई में क्या होगा, वह यथार्थ भी स्पष्ट हो जाएगा। उसके बाद ही हम कह सकेंगे कि भारत में कोरोना वायरस का समापन किस कदर होगा?


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