गुरुवार, 30 जनवरी 2020

पतित-पावन 'उपन्यास'

पतित-पावन     'उपन्यास' 
'बसंत-ऋतु' थी चारों दिशाओं में सुहानी हवाओं के मंद-मंद झौंको में, जैसे खुशियां बरस रही थी। फागुन के आगमन की खुशियों में बसंत ने कोई कमी नहीं छोड़ रखी थी। बसंत जैसे रंगों में नहा-धोकर खुशनुमा माहौल बनाए हुए था। होली के रंगों के साथ मिट्टी की सौंधि-सौधि खुशबू वातावरण में घुल मिल गई थी। रह, रह कर गांव में मंद-मधुर मादक-शीतल समीर बह रही थी। सभी वृक्ष, पेड़-पौधों पर हास्यता छाई हुई थी। कहीं अधखिली कली कहीं रंग-बिरंगे फूल, सभी स्वयं में एक अद्भुत कथा का वर्णन करते नजर आ रहे थे। एक मस्त बहने वाला झोंका जैसे गांव के भीतर प्रविष्ट हुआ। गांव की सबसे ऊंची हवेली ही सबसे पहले दिखाई पड़ती थी। वह झौंका मानो उस कोठी की आभा में ही समाहित हो गया। छोटी इंटो से बनी यह हवेली संपूर्ण गांव में अनुपम तथा निराली थी। छोटी-छोटी ईटों से सजी यह भावपूर्ण हवेली, स्वयं में एक सुंदर कहानी थी। सुंदरता की प्रतीक गुलाबी वर्णों से सुशोभित यह हवेली लगभग 2000 वर्ग गज में फैली थी। इसकी तीन बड़ी छतें थी, लगभग 30 बड़े कमरे भी थे। जिनके बीच में एक दलान था, इसी हवेली का ऊपरी हिस्सा इस हवेली को दूसरी हवेली से जोड़ कर रखता था। यहां भी 22 कमरे बड़े बड़े थे। बड़ा-सा बरामदा और आंगन में ढेर लंबी घास की मांद साथ ही दुधारू भैंस, चार हीरे-मोती से बैल, दो यमराज की सवारी से भैंसे और तीन सुंदर-सी गाय थी। उन्हीं के मध्य में उनके बच्चे भी मस्त आनंद में थे। बरामदे में लगभग 15 कढ़ी हुई चारपाई मय तकियों- बिस्तर के पड़ी थी। 4-4 चारइयों के अंतराल में पीतल का हुक्का रखा था। गांव के कई श्रमिक श्रेणियां आव-भगत में लगी रहती थी। रसोई घर से हलवे की मादक सुगंध हवा में उड़ कर अन्य जीव-जंतुओं को भी आमंत्रित कर रही थी। खीर की महक ने मानो पित्र देवो को भी मुग्ध कर दिया था। पूरी और बासमती चावल भी कुछ तो साम्राज्य स्थापित कर ही रहे थे। देसी घी के शुद्ध पकवानों के विषय में और कुछ नहीं कहिएगा कहीं मुंह से लार न टपक जाए। कितना प्रभावमय व्यंजन निर्मित हो रहा था। एक सेवक ने रंग में भंग डाल ही दिया।
सेवक- नंबरदार, हुक्का भरूं। नंबरदार ने मुछें पहनी कर कहा- ताजा भी कर ला, पता नहीं कैंक दिन का पानी सड़गा है। अरे भाई, रोटी टुकड़े का भी कुछ अता-पता है अक नहीं। सेवक ने दास्तां पूर्ण कहा-थोड़ी देर लगेगी।
 सेवक अपने कार्य में लिप्त हो गया। नंबरदार ने एक अन्य सेवक को आवाज दी, बुलाकर कहा- इन आदमियों को कुछ पानी-पात भी दे दो। नाई ने शांत भाव से कहा-पूछ रहा हूं, दे भी रहा। नंबरदार की भाषा जोशीली थी। जिसके कारण सभी कर्मियों में भय सा कांप गया था। एक अन्य सेवक तेज कदमों से आकर बोला- नंबरदार पानी तो पिया दिया, रोटी तैयार है। सभी मेहमानों ने भोजन कर लिया था। शाम का अंधेरा बढ़ रहा था। घुड़चढ़ी की तैयारियां जोर-शोर पर थी। परंपरागत तौर से घुड़चढ़ी गांव में अपने ग्रामीण देवता को पूजने के माध्यम से आज भी उत्तर भारत में की जाती है। मुख्यतः यह कार्य रात्रि के समय में ही किया जाता है। आधुनिक काल में इसका अत्याधिक महत्व न रहकर भी कहीं न कहीं इसका परिचालन स्थित है। घोड़ी पर कसीदो से सजी चादर पड़ी थी। लाल लगाम और रंगीन दूल्हा भी घोड़ी पर बैठकर यह प्रतिपादित कर रहा था की घोड़ी अवश्य ही प्रकृति की अमोल देन है। उस पर छबीला जवान फलारा मारकर बैठा था। टेरिकोट का कुर्ता, नेपाली धोती बांधकर, ऊपर जवाहर कट इतनी खिल रही थी। सिर पर लुधियानवी पगड़ी, लाहोरी जूती क्या लालिमा छाई थी कैसी गरीमा बनी थी। दूल्हा तो रंगीला बना था। लालसा भी रंगों मे व्यग्र हो चली थी। दूल्हा कभी दारूण और कभी विडंब बन रहा था। उसकी मुद्रा आपत्तियों में सिमट रही थी। निराला बांकपन, अद्भुत अनुभव हो रहा था। कभी आंखों में लज्जा होती थी। जब पलके मूंदकर चादर सी ओड लेता था। मानो वह दिख ही नहीं रहा है। क्योंकि बनाव सिंगार की यह निराली परिभाषा थी। इससे पूर्व किसी अन्य का कभी भी ऐसा बनाव न हुआ था। सबसे खास बात तो यह थी कि लालटेन टीम टीमा कर रात को चाट रही थी।
 आधुनिक डिजिटल प्रगति और समसामयिक स्थानांतरण के कारण आज का युवा वर्ग संभवतः ही इस प्रकार का अनुभव करें। समय के साथ-साथ परिवर्तन भी अपनी गति से आगे बढ़ता रहता है। प्रभात में बारात चली गई थी। विवाह का अनुपम लाल जोड़ा पहने माधुरी भी स्वयं में एक निराली कहानी थी। लज्जा में तो उसके समान अकस्मात ही प्रस्तुत रहती थी कि छू दे, तो मिट्टी में मिल जाए। 'कभी भोजन घने, कभी मुट्ठी भर चने' सदा एक जैसे दिन तो रहते नहीं है। कुछ दिन पश्चात ही घर का एक वृद्ध मृत्यु को प्राप्त हो गया और खुशी कुछ दिनों के लिए ठहर सी गई। नंबरदार का प्यादा रानी नामक मौत ने नेस्तनाबूद कर दिया था। खुशियां बिखर अवश्य ही गई थी, परंतु कुछ दिनों के लिए। पृथ्वी पर स्वेच्छा से मृत्यु प्राप्त होना एक वरदान है और शारीरिक कष्ट, भौतिक कष्ट और दैविक कष्ट सहन करने के पश्चात मृत्यु को प्राप्त होना, किसी अभिशाप से कम नहीं है। हालांकि यह बात ज्यादातर लोग आराम से समझ सकते हैं। 'बुढ़ा मरेगा लड्डू तो बनेंगे', कोई बड़ी बात तो थी नहीं।


राधेश्याम 'निर्भय-पुत्र'


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