सोमवार, 24 जून 2019

पत्रकार की वेदना (विवेचना )

एक पत्रकार की वेदना उस की कलम से


मुझे ऐसा लगता है कि जिस तरह पुलिस वालों की छवि आम जनता की निगाह में बेईमान , लालची और पद और शक्ति का दुरूपयोग करने वाले लोगों की बन चुकी है , लगभग वैसी ही छवि पत्रकारों की भी बन गई है । इस छवि के कारण सच्चे और निष्ठावान पत्रकारों को भी लोग शक की निगाह से देखते हैं तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है । जिस तरह कुछ पुलिसवाले रेहड़ी , ठेले वालों व ट्रक चालकों से सौ- दो सौ रूपये की उगाही करते देखे जाते हैं , वैसे ही कुछ पत्रकार भी लोगों से खबरें छापने के नाम पर उगाही करते मिल जाते हैं । मगर एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ लोगों का कतईध्यान नहीं है । वह यह कि पुलिस वालों को पूरा वेतन मिलता है , जबकि 80 फीसदी पत्रकारों को किसी तरह का कोई वेतन व भत्ता नहीं मिलता । बड़े महानगरों में चंद बड़े मीडिया हाऊसिज में काम करने वाले बड़े व नामीगिरामी पत्रकारों , एंकरों , संपादकों व कुशल तकनीशियनों आदि को ही वेज बोर्ड की सिफारिशों के अनुरूप वेतन मिल पाता है । अधिकांश मीडिया हाऊसिज में पत्रकारों का खुलेआम शोषण होता है और उन्हें बस इतना ही वेतन मिल पाता है कि वे मुश्किल से एक बैडरूम का घर अफोर्ड कर पाते हैं । हकीकत यह है कि ज्यादातर पत्रकारों की हालत किसी भवन निर्माण मजदूर से बेहतर नहीं होती । जिला व तहसील स्तर के पत्रकारों की दयनीय हालत का तो आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते । इन्हें कोई वेतन नहीं मिलता । मीडिया हाऊसिज के प्रबंधक इन्हें यह अफाडेविट लेकर काम पर रखते हैं कि पत्रकारिता उनका पेशा नहीं है और वे महज शौकिया तौर पर ही पत्रकारिता करते हैं । इससे पत्रकार भविष्य में किसी तरह के वेतन व भत्ते क्लेम करने की स्थिति में नहीं रहता । मीडिया हाऊस इन पत्रकारों को विज्ञापन लाकर देने की शर्त पर खबरें भेजने की अथारिटी देते हैं । बेचारा पत्रकार परिवार का पेट पालने के लिए विज्ञापन बटोरने के लिए व्यापारियों ,कारखानेदारों , प्रशासनिक अधिकारियों व सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े नेताओं की ड्योढ़ी पर हाजिरी भरने में ही लगे रहते हैं । इन हालात में कोई भी व्यक्ति कब तक ईमानदार रह सकता है । प्रभावशाली लोग ही जनता का खून चूसते हैं और उनका शोषण करते हैं और इन्हीं लोगों के पास विज्ञापन देने की शक्ति हैं । ऐसे में बेचारा पत्रकार - माफिया , सत्ता , नौकरशाही और गुंडों के ताकतवर गठजोड़ से टकराव मोल ले कर अपने परिवार को मुसीबत के जाल में फंसाये या इनके आगे आत्मसमर्पण कर विज्ञापन की भीख प्राप्त कर परिवार की जिम्मेदारियों को पूरा करे । करोड़ों अरबों की डील करने वाले मीडिया हाऊसिज का तो समाज के ठेकेदार नोटिस तक नहीं लेते , लेकिन विषम परिस्थितियों में काम करके आप तक सूचनाएं पहुंचाने वाले गरीब पत्रकारों को हम गालियां देने और जी भर कर कोसने में अपनी शान समझते हैं । हम करोड़ों रूपये हड़पने वाले 'डकैत' मीडिया हाऊसिज पर भरोसा करते हैं और उनके गुणगान करते हैं जबकि अपने भूखे परिवार को रोटी खिलाने के लिए दिनरात सूचनाएं एकत्र करने वाले पत्रकारों को हम हेय दृष्टि से देखते हैं । इसमें दोष आम जनता का भी है । जब सच का साथ देने वाले पत्रकारों पर ताकतवर लोगों का कहर टूटता है तो हम में से कितने लोग सच्चे पत्रकारों का साथ देने के लिए खड़े होते हैं । मैंने खुद भुगता है कि बुरे दौर में कोई भी नागरिक पत्रकारों का साथ नहीं देता और उन्हें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है । लोग ऐसे जूझारू पत्रकारों की खिल्ली उड़ाते है तथा उसे बेवकूफ तक करार देते हैं । अगर गरीब व बेबस पत्रकारों को कहीं से थोड़ी सी सुविधा या राहत मिल जाती है तो बहुत से लोगों के पेट में ऐसे मरोड़े लगते हैं कि जैसे पत्रकारों ने देश लूट लिया हो । अरे पहले पत्रकारों की दशा तो देख लो, फिर उन पर सवाल उठाना । मैं अपने दो साल के पत्रकार जीवन में अनेकों बार जुल्मों का शिकार हुआ हूं , लेकिन कोई माई का लाल आज तक जुबानी दिलासा देने भी नहीं आया । मेरी वजह से मेरा परिवार न जाने कितनी परेशानियों से गुजरा है , मगर समाज का कोई भी व्यक्ति कभी साथ देने नहीं आया । अपने मुकदमे खुद झेलने पड़े हैं । सारी लड़ाईयां अकेले लड़नी पड़ी हैं । समाज के लोग तो बस गालियां देने , सवाल करने जरूर आ जाते हैं !


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