सोमवार, 4 नवंबर 2019

धूल-कण से फेफड़े की रक्षा

गुड़ एक मीठा ठोस खाद्य पदार्थ है जो ईख, ताड़ आदि के रस को उबालकर कर सुखाने के बाद प्राप्त होता है। इसका रंग हल्के पीले से लेकर गाढ़े भूरे तक हो सकता है। भूरा रंग कभी-कभी काले रंग का भी आभास देता है। यह खाने में मीठा होता है। प्राकृतिक पदार्थों में सबसे अधिक मीठा कहा जा सकता है। अन्य वस्तुओं की मिठास की तुलना गुड़ से की जाती हैं। साधारणत: यह सूखा, ठोस पदार्थ होता है, पर वर्षा ऋतु जब हवा में नमी अधिक रहती है तब पानी को अवशोषित कर अर्धतरल सा हो जाता है। यह पानी में अत्यधिक विलेय होता है और इसमें उपस्थित अपद्रव्य, जैसे कोयले, पत्ते, ईख के छोटे टुकड़े आदि, सरलता से अलग किए जा सकते हैं। अपद्रव्यों में कभी कभी मिट्टी का भी अंश रहता है, जिसके सूक्ष्म कणों को पूर्णत: अलग करना तो कठिन होता हैं किंतु बड़े बड़े कण विलयन में नीचे बैठ जाते हैं तथा अलग किए जा सकते हैं। गरम करने पर यह पहले पिघलने सा लगता है और अंत में जलने के पूर्व अत्यधिक भूरा काला सा हो जाता है।


गुड़ का उपयोग मूलतः दक्षिण एशिया में किया जाता है। भारत के ग्रामीण इलाकों में गुड़ का उपयोग चीनी के स्थान पर किया जाता है। गुड़ लोहतत्व का एक प्रमुख स्रोत है और रक्ताल्पता (एनीमिया) के शिकार व्यक्ति को चीनी के स्थान पर इसके सेवन की सलाह दी जाती है। गुड़ के एक अन्य हिन्दी शब्द जागरी का प्रयोग अंग्रेजी में इसके लिए किया जाता है।कुछ लोगों द्वारा गुड़ को विशेष रूप से परिशुद्ध चीनी से अधिक पौष्टिक माना जाता है, परिशुद्ध चीनी के विपरीत, इसमें अधिक खनिज लवण होते है। इसके अतिरिक्त, इसकी निर्माण प्रक्रिया में रासायनिक वस्तुएं इस्तेमाल नहीं की जाती है। भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा के अनुसार गुड़ का उपभोग गले और फेफड़ों के संक्रमण के उपचार में लाभदायक होता है; साहू और सक्सेना ने पाया कि चूहों में गुड़ के प्रयोग से कोयले और सिलिका धूल से होने वाली फेफड़ों की क्षति को रोका जा सकता है। गांधी जी के अनुसार चूँकि गुड़ तेजी से रक्त में नही मिलता है इसलिए यह चीनी की तुलना में, अधिक स्वास्थ्यवर्धक है। वैसे, वह अपने स्वयं के व्यक्तिगत आहार में भी इसका प्रयोग करते थे साथ ही वह दूसरो को भी इसके प्रयोग की सलाह देते थे।


पीपल अथवा ग्रहपुष्पक वृक्ष

पीपल (अंग्रेज़ी: सैकरेड फिग, संस्कृत:अश्वत्थ) भारत, नेपाल, श्री लंका, चीन और इंडोनेशिया में पाया जाने वाला बरगद, या गूलर की जाति का एक विशालकाय वृक्ष है जिसे भारतीय संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है तथा अनेक पर्वों पर इसकी पूजा की जाती है। बरगद और गूलर वृक्ष की भाँति इसके पुष्प भी गुप्त रहते हैं अतः इसे 'गुह्यपुष्पक' भी कहा जाता है। अन्य क्षीरी (दूध वाले) वृक्षों की तरह पीपल भी दीर्घायु होता है। इसके फल बरगद-गूलर की भांति बीजों से भरे तथा आकार में मूँगफली के छोटे दानों जैसे होते हैं। बीज राई के दाने के आधे आकार में होते हैं। परन्तु इनसे उत्पन्न वृक्ष विशालतम रूप धारण करके सैकड़ों वर्षो तक खड़ा रहता है। पीपल की छाया बरगद से कम होती है, फिर भी इसके पत्ते अधिक सुन्दर, कोमल और चंचल होते हैं। वसंत ऋतु में इस पर धानी रंग की नयी कोंपलें आने लगती है। बाद में, वह हरी और फिर गहरी हरी हो जाती हैं। पीपल के पत्ते जानवरों को चारे के रूप में खिलाये जाते हैं, विशेष रूप से हाथियों के लिए इन्हें उत्तम चारा माना जाता है। पीपल की लकड़ी ईंधन के काम आती है किंतु यह किसी इमारती काम या फर्नीचर के लिए अनुकूल नहीं होती। स्वास्थ्य के लिए पीपल को अति उपयोगी माना गया है। पीलिया, रतौंधी, मलेरिया, खाँसी और दमा तथा सर्दी और सिर दर्द में पीपल की टहनी, लकड़ी, पत्तियों, कोपलों और सीकों का प्रयोग का उल्लेख मिलता है। पीपल देववृक्ष है, इसके सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अन्त: चेतना पुलकित और प्रफुल्लित होती है। स्कन्द पुराण में वर्णित है कि अश्वत्थ (पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं।[क] पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप है। भगवान कृष्ण कहते हैं- समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ।[ख] स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्व को व्यक्त किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं।[ग] पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं। पीपल वृक्ष की प्रार्थना के लिए अश्वत्थस्तोत्र में पीपल की प्रार्थना का मंत्र भी दिया गया है। [घ] प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज में अश्वत्थोपासना में पीपल वृक्ष की महिमा का उल्लेख है। अश्वत्थोपनयनव्रत में महर्षि शौनक द्वारा इसके महत्त्व का वर्णन किया गया है। अथर्ववेदके उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। पीपल के वृक्ष के नीचे मंत्र, जप और ध्यान तथा सभी प्रकार के संस्कारों को शुभ माना गया है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित है कि द्वापर युग में परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण इस दिव्य पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हुए। यज्ञ में प्रयुक्त किए जाने वाले 'उपभृत पात्र' (दूर्वी, स्त्रुआ आदि) पीपल-काष्ट से ही बनाए जाते हैं। पवित्रता की दृष्टि से यज्ञ में उपयोग की जाने वाली समिधाएं भी आम या पीपल की ही होती हैं। यज्ञ में अग्नि स्थापना के लिए ऋषिगण पीपल के काष्ठ और शमी की लकड़ी की रगड़ से अग्नि प्रज्वलित किया करते थे। ग्रामीण संस्कृति में आज भी लोग पीपल की नयी कोपलों में निहित जीवनदायी गुणों का सेवन कर उम्र के अंतिम पडाव में भी सेहतमंद बने रहते हैं।


हरसिंगार के गुण व लाभ

प्राजक्ता एक पुष्प देने वाला वृक्ष है। इसे हरसिंगार, शेफाली, शिउली आदि नामो से भी जाना जाता है। इसका वृक्ष 10 से 15 फीट ऊँचा होता है। इसका वानस्पतिक नाम 'निक्टेन्थिस आर्बोर्ट्रिस्टिस' है। पारिजात पर सुन्दर व सुगन्धित फूल लगते हैं। इसके फूल, पत्ते और छाल का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। यह पूरे भारत में पैदा होता है। यह पश्चिम बंगाल का राजकीय पुष्प है।यह 10 से 15 फीट ऊँचा और कहीं 25-30 फीट ऊँचा एक वृक्ष होता है और पूरे भारत में विशेषतः बाग-बगीचों में लगा हुआ मिलता है। विशेषकर मध्यभारत और हिमालय की नीची तराइयों में ज्यादातर पैदा होता है। इसके फूल बहुत सुगंधित, सफेद और सुन्दर होते हैं जो रात को खिलते हैं और सुबह मुरझा कर गिर जाते हैं।


विभिन्न भाषाओं में नाम : संस्कृत- शेफालिका। हिन्दी- हरसिंगार। मराठी- पारिजातक। गुजराती- हरशणगार। बंगाली- शेफालिका, शिउली। असमिया- शेवालि। तेलुगू- पारिजातमु, पगडमल्लै। तमिल- पवलमल्लिकै, मज्जपु। मलयालम - पारिजातकोय, पविझमल्लि। कन्नड़- पारिजात। उर्दू- गुलजाफरी। इंग्लिश- नाइट जेस्मिन। मैथिली- सिंघार, सिंगरहार |


गुण:-यह हलका, रूखा, तिक्त, कटु, गर्म, वात-कफनाशक, ज्वार नाशक, मृदु विरेचक, शामक, उष्णीय और रक्तशोधक होता है। सायटिका रोग को दूर करने का इसमें विशेष गुण है।


रासायनिक संघटन : इसके फूलों में सुगंधित तेल होता है। रंगीन पुष्प नलिका में निक्टैन्थीन नामक रंग द्रव्य ग्लूकोसाइड के रूप में 0.1% होता है जो केसर में स्थित ए-क्रोसेटिन के सदृश्य होता है। बीज मज्जा से 12-16% पीले भूरे रंग का स्थिर तेल निकलता है। पत्तों में टैनिक एसिड, मेथिलसेलिसिलेट, एक ग्लाइकोसाइड (1%), मैनिटाल (1.3%), एक राल (1.2%), कुछ उड़नशील तेल, विटामिन सी और ए पाया जाता है। छाल में एक ग्लाइकोसाइड और दो क्षाराभ होते हैं।


उपयोग:-हरसिंगार की पत्तियाँ व टहनी
इस वृक्ष के पत्ते और छाल विशेष रूप से उपयोगी होते हैं। इसके पत्तों का सबसे अच्छा उपयोग गृध्रसी (सायटिका) रोग को दूर करने में किया जाता है।


विधि: हरसिंगार के ढाई सौ ग्राम पत्ते साफ करके एक लीटर पानी में उबालें। जब पानी लगभग 700 मिली बचे तब उतारकर ठण्डा करके छान लें, पत्ते फेंक दें और 1-2 रत्ती केसर घोंटकर इस पानी में घोल दें। इस पानी को दो बड़ी बोतलों में भरकर रोज सुबह-शाम एक कप मात्रा में इसे पिएँ। ऐसी चार बोतलें पीने तक सायटिका रोग जड़ से चला जाता है। किसी-किसी को जल्दी फायदा होता है फिर भी पूरी तरह चार बोतल पी लेना अच्छा होता है। इस प्रयोग में एक बात का खयाल रखें कि वसन्त ऋतु में ये पत्ते गुणहीन रहते हैं अतः यह प्रयोग वसन्त ऋतु में लाभ नहीं करता।


चिंपैंजी के विकास पर शोध

 चिंपांज़ी (डिसएम्बिगेशन) और चिम्प (डिसएम्बिगेशन)।
चिंपैंजी ( पान ट्रगलोडाइट्स ), जिसे आम चिंपांज़ी , मजबूत चिंपांज़ी या बस " चिम्प " के रूप में भी जाना जाता है, उष्णकटिबंधीय अफ्रीका के जंगलों और सवानाओं के लिए महान वान मूल का एक प्रजाति है। इसमें चार पुष्टियाँ उप-प्रजातियाँ और पाँचवीं प्रस्तावित उप-प्रजातियाँ हैं। चिंपांज़ी और बारीकी से संबंधित बोनोबो (जिसे कभी-कभी "पैग्मी चिंपांज़ी" कहा जाता है) को जीनस पैन में वर्गीकृत किया जाता है।


चिंपांज़ी मोटे काले बालों में ढँकी होती है, लेकिन उसके नंगे चेहरे, उंगलियाँ, पैर की उंगलियाँ, हाथों की हथेलियाँ और पैर के तलवे होते हैं। यह बोनोबो की तुलना में अधिक बड़ा और अधिक मजबूत है, पुरुषों के लिए 40-60 किलोग्राम (88-132 पौंड) और महिलाओं के लिए 27-50 किलोग्राम (60-110 पौंड) और 100 से 140 सेमी (3.3 से 4.6 फीट) तक है। इसकी गर्भावधि अवधि आठ महीने है। शिशु लगभग तीन साल का है, लेकिन आमतौर पर वह अपनी मां के साथ कई वर्षों तक घनिष्ठ संबंध बनाए रखता है। चिंपांजी उन समूहों में रहता है जो आकार में 15 से 150 सदस्यों तक होते हैं, हालांकि व्यक्ति दिन के दौरान बहुत छोटे समूहों में यात्रा करते हैं और उनका पीछा करते हैं। प्रजाति एक सख्त पुरुष-प्रधान पदानुक्रम में रहती है, जहां आमतौर पर विवादों को हिंसा की आवश्यकता के बिना सुलझाया जाता है। लगभग सभी चिंपांज़ी आबादी को उपकरण का उपयोग करते हुए दर्ज किया गया है, लाठी, चट्टानों, घास और पत्तियों को संशोधित करते हुए और उन्हें शिकार और प्राप्त करने के लिए शहद, दीमक, चींटियों, नट और पानी का उपयोग करते हुए। प्रजाति को छोटे स्तनधारियों को पालने के लिए नुकीली छड़ें बनाते हुए भी पाया गया है।


चिंपांज़ी IUCN रेड लिस्ट में लुप्तप्राय प्रजातियों के रूप में सूचीबद्ध है। 170,000 और 300,000 व्यक्तियों के बीच इसकी सीमा का अनुमान है। चिंपैंजी के लिए सबसे बड़ा खतरा निवास नुकसान, अवैध शिकार और बीमारी है। चिंपांज़ी पश्चिमी लोकप्रिय संस्कृति में रूढ़िवादी विदूषक के रूप में दिखाई देते हैं, और चिंपाज़ियों की चाय पार्टियों , सर्कस कृत्यों और स्टेज शो जैसे मनोरंजन में दिखाई देते हैं। उन्हें कभी-कभी पालतू जानवरों के रूप में रखा जाता है, हालांकि उनकी ताकत और आक्रामकता उन्हें इस भूमिका में खतरनाक बनाती है। कुछ सैकड़ों को अनुसंधान के लिए प्रयोगशालाओं में रखा गया है, विशेष रूप से अमेरिका में। सीमित सफलता के साथ चिम्पांजी को अमेरिकी सांकेतिक भाषा जैसी भाषाएं सिखाने के लिए कई प्रयास किए गए हैं; उदाहरण के लिए, वाक्य अधिक प्रशिक्षण के साथ लंबाई में नहीं बढ़ते हैं।


पक्षियों का असाधारण ऋतु परिवर्तन

स्थानीय प्रव्रजन 
कुछ चिड़ियाँ देश के अंदर ही एक भाग से दूसरे भाग में स्थानपरिवर्तन करती हैं, जैसे शाह बुलबुल या दुधणजु (paradise flycatcher), सुनहरा पोलक (golden oriole) और नौरंग (pitta)। यह स्थानीय प्रव्रजन देश के उत्तरी भाग या पहाड़ों की तलहटी में अधिक होता है, जहाँ भूमध्यरेखा की अपेक्षा ऋतुपरिवर्तन अत्यधिक प्रभावकारी होता है। वास्तविक प्रव्रजन करनेवाली चिड़ियों की भाँति इनमें भी प्रव्रजन क्रमिक और नियमित होता है। देश के किसी भाग में कोई जाति ग्रीष्म ऋतु में, कोई जाति बरसात में और कोई जाति शरद् में आगमन करती है। इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार का भी स्थानपरिवर्तन बराबर होता रहता है, जो आहार पर प्रभाव डालनेवाली स्थानीय परिस्थितियों, जैसे गर्मी, सूखा या बाढ़ इत्यादि, अथवा किसी विशेष प्रकार के फूल लगने और फल पकने की ऋतु, के कारण होता है। उस समय चिड़ियाँ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चली जाती हैं।


असाधारण स्थानीय प्रव्रजन
कभी-कभी असाधारण परिस्थितियों से बाध्य होकर अपने उपयुक्त निवासस्थान की छोड़कर भोजन की तलाश में चिड़ियाँ किसी अन्य क्षेत्रों में भी भ्रमण करती हुई पाई जाती हैं। अतएव किसी क्षेत्र में किसी भी समय में पक्षियों की जनसंख्या स्थायी नहीं रहती, क्योंकि सभी क्षेत्रों में पक्षियों का आगमन और निर्यमन सर्वदा होता रहता है।


ऊँचाई संबंधी प्रव्रजन (Altitudinal Migration) 
हिमालय के ऊँचे पहाड़ों में रहनेवाली चिड़ियाँ जाड़े में नीचे उतर आती है और इस प्रकार तूफानी मौसम और हिमरेखा से नीचे चली आती है। वसंत के आगमन पर जब बरफ गलने लगती है और हिमरेखा ऊपर की ओर बढ़ जाती है, तब वे अंडे देने के लिए पहाड़ों के ऊपरी भाग में पुन: चढ़ जाती हैं। यह क्रम केवल ऊँचाई में रहनेवाले पक्षियों में ही नहीं वरन् नीचे रहनेवाली चिड़ियों में भी चलता रहता है।


चिड़ियों के प्रव्रजन का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के अतिरिक्त प्रकार के अवलोकनों के लिए भी ब्रिटेन तथा अमरीका में बहुसंख्यक चिड़ियों के पैर में ऐल्यूमिनियम की हल्की और अंकित अंगूठियां पहना दी जाती है। यह विधि अमरीका में पक्षिवलयन (birdringing) अथवा पक्षिपटबंधन (bird banding) कहलाती है। इसमें क्रमसंख्या के अतिरिक्त स्थान का पता भी अंकित रहता है। चिड़ियों को अँगूठी पहनाकर उनका पूर्ण विवरण एक पुस्तिका में लिख कर उन्हें छोड़ दिया जाता है। अब इन चिड़ियों के सुदूर स्थानों पहुँचने पर इन्हें मारकर अथवा फँसाकर इनकी अंगूठी उतार ली जाती है और ये जिस स्थान से उड़ी थीं, उस पते पर भेज दी जाती है। जब काफी संख्या में इस प्रकार की तालिका इकट्ठी हो जाती है तब इन तालिकाओं का विश्लेषण करके उसके आधार पर किसी विशेष जाति की चिड़िया के प्रव्रजन के मार्ग अथवा अन्य किसी समस्या का हल निर्धारित किया जाता है। अतएव पश्चिमी जर्मनी और पूर्वी प्रशा में श्वेत बक के बलयन के फलस्वरूप यह निश्चित और नि:संदिग्ध रूप से स्थापित हो चुका है कि पूर्वी एशिया की चिड़ियाँ दक्षिण-पूर्वी मार्ग से बालकन होती हुई अफ्रीका का भ्रमण करती है, जबकि पश्चिम जर्मनी के श्वेत बक दक्षिण पश्चिमी मार्ग से स्पेन होकर अफ्रीका जाते हैं। बीकानेर में इसी प्रकार की अँगूठीधारी चिड़ियों के प्राप्त होने से हमें पता चला है कि कुछ श्वेत बक जो हमारे देश में, शरद् ऋतु में, आते हैं, वे जर्मनी के होते हैं। भारत में इस प्रकार का पक्षिवलयन का कार्य बहुत थोड़ा हुआ है। किंतु जितना कुछ हुआ है उससे प्राप्त सूचनाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हुई हैं।


प्रव्रजन के समय उड़ान की ऊँचाई और गति 
प्रव्रजन करनेवाली चिड़ियों की गति विभिन्न चिड़ियों में विभिन्न होती है और यह गति कई बातों, जैसे वायु की दिशा, मौसम इत्यादि पर निर्भर करती है। बतखों और हंसों में उड़ान की गति (cruising speed) 64 से 80 किलोमीटर प्रति घंटे पाई गई है और अनुकूल मौसम में यह गति 90 से 97 किलोमीटर या इससे अधिक पाई गई है। दिन रात निरंतर उड़कर यात्रा करनेवाली चिड़ियों में यह गति 9.5 से 17.7 किलोमीटर प्रति घंटा होती है। निम्नलिखित सारणी से यह अनुमान किया जा सकता है कि एक बार की उड़ान की दूरी कितनी हो सकती है!


असुविधा में यज्ञ का निदान

गतांक से...
 जब ऋषि ने ऐसा वर्णन किया तो यग दत्त ब्रह्मचारी ने कहा, कहीं ऐसा हो जल ही न प्राप्त हो तो हम कैसे यज्ञ करें? उन्होंने कहा कि जब जल ही नहीं है तो पृथ्वी के रसों को ले करके उसको परो क्षण करो और जैसे यज्ञ की यज्ञशाला में सर्वत्र देवताओं का पूजन करता है, उसका अर्थ ही एक पूजन है और वह देव पूजा करता रहता है, तो हम अपने में वृवको: संभवप्रव्हे' मानो उसी में हम रात हो जाएं तो जो हूत करने वाला अग्रणीय बन रहा है! मेरे प्यारे ऋषि कहता है 'याज्ञम भू अब्रव्हे, ब्रह्म: ब्रहे कृतम् देवा:, मानो यज्ञ करना है यदि राज्य से हम यज्ञ करें तो उसे पृथ्वी में परोक्षण करते चले जाए! उन्होंने कहा यदि यह सुविधा भी नहीं प्राप्त हो, तो जल भी आपोमयी है! यह पृथ्वी के कण भी प्राप्त न हो तो तुम हृदय से यज्ञ करो, शांत मुद्रा में विद्यमान हो एकता में मंत्रों से अपने में परोक्षण करते रहो! प्राण की आहुति प्राण को प्रदान करते रहो, व्यान को आहुति व्यान में प्रविष्ट हो रही है! सामान की संपूर्ण आहुति समानता में लाने को तत्पर है! व्यानाय प्राण भी इसी में रहता है! सामान्य प्राण इसकी आभा के लिए हुए रहते हैं! बेटा यह कैसा विचित्र जगत है, यह कैसी विचित्रता? मानव एक दूसरे से कटिबद्ध है, माला है और सार्थक माला बनकर के हृदय में प्रविष्ट हो जाती है! मेरे प्यारे विचार देते हुए मानव अपना मंतव्य अवश्य प्रकट करता है! इसलिए आज मैं तुम्हें यह वाक्य प्रकट करने के लिए आया हूं कि हम अपने जीवन में एक महानता को जन्म देने वाले बने! हम एक महानता की प्रतिभा में रत हो जाए! ऐसा जब ऋषि ने वर्णन किया तो ब्रह्मचारी अपने आसनों पर निहित हो गये, तो मेरे प्यारे मुझे स्मरण आता रहता है कि यह ऐसा क्यों है,देखो इसका एक दूसरे से तारम्य लगा रहता है एक दूसरे से कटिबद्ध रहता है! इसलिए माला है और उस माला को धारण करने वाले अपने मानत्व में रत हो जाते हैं! मैं इस संदर्भ में विशेषता में ले जाना नहीं चाहता हूं! विचार केवल यह है कि हमारा जीवन महानता की वेदी पर रमण करना चाहिए! ताकि हमारे जीवन में एक महानता की उपलब्धि हो जाए! देखो हम जितना भी खादान-खादम वर्णित करते रहते हैं! उसमें कुछ न कुछ जगत की दशा परिवर्तित होती जा रही है! मैं विशेष चर्चा में प्रकट करने नहीं आया हूं! विचार केवल यह है कि मुनिवरो, देखो याज्ञिक बनना चाहिए और यज्ञ में होना चाहिए! यज्ञ अपनी आभा में सदैव रहता है और यज्ञ करने वाला मृत्युंजय ब्रव्हे कृतम देवा:, वह मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है वह मृत्युंजय बन जाता है! वह मृत्यु को अपने में धारण करता हुआ सागर से पार होने का प्रयास करता है! यज्ञ से संबंध में तो बहुत कुछ विचार आते रहते हैं! परंतु अब मेरे प्यारे महानंद जी दो शब्द उच्चारण करेंगे!


प्राधिकृत प्रकाशन विवरण

यूनिवर्सल एक्सप्रेस    (हिंदी-दैनिक)


नवंबर 05, 2019 RNI.No.UPHIN/2014/57254


1. अंक-91 (साल-01)
2. मंगलवार, नवंबर 05, 2019
3. शक-1941, कार्तिक-शुक्ल पक्ष, तिथि- नंवमी, संवत 2076


4. सूर्योदय प्रातः 06:28,सूर्यास्त 05:41
5. न्‍यूनतम तापमान -16 डी.सै.,अधिकतम-23+ डी.सै., हवा की गति बढ़नेे की संभावना रहेगी।
6. समाचार-पत्र में प्रकाशित समाचारों से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। सभी विवादों का न्‍याय क्षेत्र, गाजियाबाद न्यायालय होगा।
7. स्वामी, प्रकाशक, मुद्रक, संपादक राधेश्याम के द्वारा (डिजीटल सस्‍ंकरण) प्रकाशित।


8.संपादकीय कार्यालय- 263 सरस्वती विहार, लोनी, गाजियाबाद उ.प्र.-201102


9.संपर्क एवं व्यावसायिक कार्यालय-डी-60,100 फुटा रोड बलराम नगर, लोनी,गाजियाबाद उ.प्र.,201102


https://universalexpress.page/
email:universalexpress.editor@gmail.com
cont.935030275
 (सर्वाधिकार सुरक्षित


 


पायलट ने फ्लाइट अटेंडेंट को प्रपोज किया

पायलट ने फ्लाइट अटेंडेंट को प्रपोज किया  अखिलेश पांडेय  वारसॉ। अक्सर लोग अपने प्यार का इजहार किसी खास जगह पर करने का सोचते हैं। ताकि वो पल ज...