मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

बिहार के किसानों की आंदोलन में हिस्सेदारी कम

अविनाश श्रीवास्तव  

 पटना। बिहार देश का वह राज्य है जहाँ सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ कुल आबादी का 77 फ़ीसदी हिस्सा कृषि पर आश्रित है, जो पंजाब और उत्तर प्रदेश की तुलना में कहीं अधिक है। पंजाब में कृषि पर निर्भर आबादी का प्रतिशत 75 है जबकि उत्तर प्रदेश में यह 65 फ़ीसदी है। बावजूद इसके किसान आंदोलन में बिहार के किसानों की उल्लेखनीय भागीदारी नहीं है। बिहार के किसानों को संगठित और जागरूक करने के लिए पंजाब के किसान नेता यहाँ आकर प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर रहे हैं। आज़ादी से पहले कई किसान आंदोलनों के जनक रहे बिहार में बीते कई बरसों में न तो कोई किसान संगठन सक्रिय दिखता है और न ही यहाँ के किसानों का कोई नुमाइंदा नज़र आता है।

आख़िर क्या वजह है कि जिस राज्य की तीन चौथाई से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है, वहाँ आज कोई किसान नेता नहीं है? क्या बिहार के किसानों को इसकी ज़रूरत नहीं है या यहाँ किसानी से जुड़ी कोई समस्या ही नहीं है? क्या बिहार के किसानों को नए कृषि क़ानूनों से कोई दिक्कत नहीं है? वैशाली स्मॉल फ़ॉर्मर्स एसोसिएशन से जुड़े वैशाली के किसान यूके शर्मा कहते हैं, 

“बिहार की किसानी का पैटर्न बदल गया है। यहाँ की खेती बटाईदारी और मालगुजारी (लीज़) पर ज़्यादा आधारित हो गई है। ऐसी जोतें कम हैं जिनके मालिक ख़ुद खेती करते हों। महज़ पाँच-सात फ़ीसदी। इसलिए नए कृषि क़ानूनों का असर केवल उन्हीं पाँच-सात फ़ीसदी खेती करने वाले लोगों पर पड़ेगा। यहाँ छोटे, मझोले और सीमांत किसानों की आबादी सबसे अधिक है, जो दो हेक्टेयर या उससे थोड़ी कम-ज़्यादा में खेती करते हैं। यह आबादी मुख्य रूप से खेती केवल इसलिए करती है ताकि परिवार के खाने भर का अनाज पैदा हो जाए। इसलिए इन्हें एमएसपी से कोई ख़ास मतलब वैसे भी नहीं है। और जिसे एमएसपी से मतलब है, उसके लिए यहाँ मंडी का सिस्टम ही नहीं है।”

भंडारण की कोई सुविधा नहीं

हालाँकि अपने 30 क्विंटल धान को बेचने लिए यूके शर्मा पैक्सों (प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों) से मिन्नतें करते रहे हैं। उनके क्षेत्र के पैक्स ने अभी तक धान की ख़रीद शुरू भी नहीं की है। यूके शर्मा बताते हैं कि उनकी जानकारी के कई किसानों ने बाज़ार में मोल-भाव कर 1100-1200 रुपये की दर पर अपने धान बेच दिए हैं क्योंकि उनके पास उसके भंडारण की कोई सुविधा नहीं है और पैसों की ज़रूरत भी थी। बिहार में सरकार के स्तर पर अनाज की ख़रीद-फरोख़्त के लिए साल 2005 के बाद से मंडी की व्यवस्था की जगह प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों की व्यवस्था है। ये समितियाँ न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से गेहूँ-धान ख़रीदती हैं।

  • फिर भी बिहार के किसान आवाज़ क्यों नहीं उठा रहे हैं?

    ऐसा नहीं है कि बिहार के किसान यहाँ की पैक्स की व्यवस्था का भरपूर लाभ उठा रहे हैं, सभी किसानों को अपना अनाज बेचने पर एमएसपी मिल जा रही है और उन्हें किसानी में कोई दिक्कत नहीं हो रही है। सच्चाई तो यह है कि इस साल बिहार सरकार ने फ़रवरी तक 45 लाख टन धान ख़रीद का लक्ष्य रखा है। दिसंबर बीतने को है लेकिन अभी तक लगभग दो लाख टन धान की ख़रीद ही हो सकी है। साथ ही बीते कई बरसों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि सरकार की तरफ़ से पैक्सों के लिए धान-ख़रीद का जो लक्ष्य निर्धारित हुआ, उसका 30 फ़ीसद भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदा गया हो। इसके अलावा भी यहाँ के किसानों को अलग-अलग तरह की समस्याएं हैं। मसलन, अभी भी क़रीब पाँच लाख हेक्टेयर से अधिक ज़मीन पर बाढ़ का पानी जमा है, जिससे वहां रबी की बुआई नहीं हो पा रही है। केवल 30 फ़ीसद खेतों तक ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है।

    बिहार से सबसे अधिक किसानों का पलायन हुआ

    पूर्णिया के किसान गिरीन्द्र नाथ झा कहते हैं, “आवाज़ें तो तब उठतीं, जब यहाँ के किसान यहीं होते। सच्चाई यह है कि बिहार से सबसे अधिक किसानों का पलायन हुआ है। यहाँ अब किसान कम रह गए हैं। जो हैं, वो खेतिहर हैं। जोत को लीज़ पर लेकर या फसल की साझेदारी पर खेती करते हैं। जिसका खेत पर अधिकार नहीं है, वो खेती के लिए मिलने वाले अधिकारों की माँग करने में वैसे भी कम ही दिलचस्पी लेगा।”

    बिहार के तथाकथित किसानों को फ़र्क नहीं पड़ता

    गिरीन्द्र नाथ झा के मुताबिक़ बिहार में ‘गै़रहाज़िर किसानों’ की संख्या ज़्यादा है। जिनका मतलब केवल अपने खेत से मिलने वाली मालगुजारी और फ़सल के शेयर पर होता है। फ़सल कैसे उपज रही है, उसके लिए किन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है और सरकार की तरफ़ से क्या व्यवस्था की जा रही है, इन सब बातों से बिहार के तथाकथित किसानों (जिनकी जोत है) को फ़र्क नहीं पड़ता।

    किसानों से बात करनी पड़ेगी, उन्हें भरोसे में लेना पड़ेगा

    अगर बिहार को खेती में आगे ले जाना है सरकार को पहले उन ग़ैरहाज़िर किसानों को वापस बुलाना होगा, जो अपनी जोत छोड़कर दूसरे राज्यों में रह रहे हैं। जैसे कोई इंडस्ट्री लगाने के लिए सरकार उद्योगपतियों के समूह से वार्ता करती है, वैसे ही खेती के लिए उसे उन ग़ैरहाज़िर किसानों से बात करनी पड़ेगी, उन्हें भरोसे में लेना पड़ेगा। इधर, भाकपा (माले) से जुड़े अखिल भारतीय किसान समन्वय संघर्ष समिति के सदस्य और खुद खेती करने वाले बक्सर के रामदेव यादव कहते हैं, “आंदोलन यहाँ भी हो रहा है। हमारे संगठन के किसान भाई पूरे राज्य में सड़कों पर उतर रहे हैं। 29 मार्च को हमलोग राजभवन मार्च की तैयारी में हैं।”

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