रविवार, 27 अक्तूबर 2019

राम का राष्ट्रवाद उपदेश

गतांक से...
विचार यह चल रहा था कि हम अपने प्रभु का गुणगान गाने वाले बने! अपने प्रभु की निहारिका माने, उसके विज्ञान में रत रहना चाहिए! कितनी विशाल ज्ञान-विज्ञान की धाराएं हैं! जिन्हें मानव अपने में धारण करके अंतर्मुखी बन जाता है! तो राम ने कहा कि राजा वह होता है जो अपने विचारों को गोपनीय बना लेता है और गोपनीय जो विषय होते हैं, वही मानव के जीवन का उद्धार करते हैं! इसलिए हम परमपिता परमात्मा की आराधना करते हुए राष्ट्र का पालन करते चले जाएं! राष्ट्र दूसरे के वैभव को संग्रह करने के लिए नहीं है! राष्ट्र को इसलिए निर्धारित किया जाता है कि उसकी प्रतिभा बनी रहे! उसका मानवतम उसका रितु तो बना रहे! तो देखो जब यह वाक्य राजाओं ने श्रवण कर लिया कि बुद्धिमान, बुद्धिजीवी प्राणियों की रक्षा होनी चाहिए! तो बेटा देखो उनके जीवन की बहुत सी घटनाएं इस प्रकार की आती रही है! बेटा मुझे जब स्मरण आती है तो हृदय गदगद हो जाता है! वेद ध्वनि हो रही है! उस ध्वनि को श्रवण करने के लिए हिंसक प्राणी भी आता है अपनी हिंसा को त्याग रहा है! अहिंसा में परिणत हो रहा है अपने अपने कर्तव्य में निहित करके मानव अपने जीवन को ऊंचा बनाता है! समय-समय पर चर्चाएं होती रहती है! एक समय कहीं से भ्रमण का करते हुए महाराजा अश्वपति राम के समक्ष आ पहूचें,वे नाना प्रकार के नियमों में परिणत रहते थे! उन्होंने राम के समीप पहुंचकर कहा भगवान खुश हो, उन्होंने कुशलता का उत्तर दिया, दोनों ने परस्पर अपनी अपनी चर्चा प्रारंभ की, राम ने कहा कहो महाराज मेरे विचार के समीप तुम्हारा आगमन कैसे हुआ? यह मुझे नहीं पता तुम्हारा आगमन क्यों हुआ? महाराजा अश्वपति ने कहा प्रभु मैं अपने आसन पर विद्यमान था! यह प्रेरणा हुई कि चलो राम से अपना मिलन करेंगे! वह वन में कहीं प्राप्त हो जाएंगे, तो हम भगवान आपके समीप आ गए हैं! उन्होंने कहा तो तुम क्या चाहते हो? उन्होंने कहा प्रभु मैं कुछ नहीं चाहता! मैं इधरन्नम: हूं! मेरा जो जीवन है वह आपकी भांति ही रहता है! मेरी कोई इच्छा नहीं है! परंतु मैं कुछ वार्ता प्रकट करने के लिए आया हूं! उन्होंने कहा बोलो क्या वार्ता चाहते हो! उन्होंने कहा मुझे अपने राष्ट्र में ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे राष्ट्र में कुछ क्रांति के अवशेषों का जन्म होने जा रहा है! अब मैं उसमें क्या करूं ?भगवान राम ने कहा कि उसमें प्रीति की प्रतिभा को लाने का प्रयास करो! क्योंकि जिस राजा के राष्ट्र में, प्रजा में क्रांति आ जाती है तो वह राजा का ही दोषारोपण होता है! वह राजा दोषी होता है! तो तुम देखो अपने में दूषित हो! तुमने कहा मैं तो प्रातकाल कृषि उद्गम करके अपना अन्न ग्रहण करता हूं और विज्ञान वेताओं के मध्य में विद्यमान होकर वैज्ञानिक यंत्रों का निर्माण भी होता रहता है! यज्ञशाला में प्रात कालीन यज्ञ करता हूं और यज्ञ में भी मेरी निष्ठा रहती है! परंतु और भी नाना प्रकार के क्रियाकलाप मेरे समीप होते रहते हैं! परंतु मैं आपसे यह जानना चाहता हूं भगवान यह मेरे साथ क्या खिलवाड़ होने जा रहा है? तो उस समय उन्होंने कहा नहीं, कोई बात नहीं! उन प्रजाओ को शिक्षा दो! उन प्रजाओ को महान उपदेश दो और यह कहो प्रजाजनों मैं तुम्हारा स्वामी हूं, मानो स्वामी की सेवा करना तुम्हारा कर्तव्य है और सेवा का अभिप्राय यह है कि राष्ट्र की जो क्रियाकलाप है, नियमावली है! उसके आधार पर क्रियाकलाप करते रहना है तो राष्ट्र में एक महानता की ज्योति अपने आप में प्राप्त हो जाती है! भगवान राम ने जब यह कहा तुम अपनी मानवम ब्रह: वाचो:, उन्होंने कहा यह तो मैंने तुम्हारा वाक्य स्वीकार कर लिया है! परंतु तुम उनको ब्रह्मज्ञान कितना देते हो, अश्वपति ने कहा प्रभु में ब्रह्म ज्ञान तो नहीं दे पाता हूं! उन्होंने कहा नैतिक वाक्य कितने उच्चारण करते हो? कोई नहीं करता हूं! राम ने कहा कि जाओ तुम प्रजा को नैतिकता की शिक्षा दो! तुम दर्शनों की आभा में रत कराओ और उसके पश्चात मन निस्वार्थ हो जाओ!  अश्वपति ने भगवान राम के इन वाक्यों को पान कर लिया! परंतु उनके विचार में यह आया कि यदि यह मेरे विचार को स्वीकार न करें, तो मैं उस समय क्या कर सकता हूं? भगवान राम ने अश्वपति से कहा है कि जिस समय तुम्हारे पुत्र तुम्हारी अवेलना करें, क्योंकि आवेलना की कोई सीमा नहीं होती है! जब सीमा से पार हो जाए तो तुम त्यागने का प्रयास करो! अपने राष्ट्र को त्याग करके और ब्रह्मावेता बनकर के अग्नि के समान तुम भयंकर वन में तपस्या करने चले जाओ!


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