शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

यमाचार्य नचिकेता वार्ता

गतांक से...
 मेरे प्यारे, वैदिक साहित्य में बहुत सी चर्चाएं आती रहती है। विद्या की विवेचना होती रहती है। आज मैं विशेष विवेचना नहीं दूंगा। देखो केवल अंतरण की विवेचना करूंगा, जो मानव चित्त का मंडल बना हुआ है। उन मंडलों में शब्द निहित रहते हैं चित्त निहित रहते हैं। जिनको मुनिवरो, देखो मनुष्य अपने में धारण करता हुआ अपनत्व की धाराओं को अपनाता है। 'ध्वनि गान्‌न्‌ ब्रह्म वाचा:' मुझे वह काल स्मरण आता रहता है। जब हमारे यहां एक ऋषि हुए हैं, जिन ऋषि का नाम तुगंध्‍वज कहलाता था। उन्हें तुगंध्‍वज ऋषि कहते थे। एक राजा हुए हैं सतयुग के काल में जिनका नाम महाराजा नल कहलाता था। महाराजा नल उनके चरणों में ओत'प्रॏत होता था। बाल अवस्था में उन्हीं के द्वारा शिक्षा अध्ययन करते थे। तो वह जो तुगं ध्वज ऋषि थे। वह दीप मालिका का ज्ञान जानते थे कि कैसे दीपक में प्रकाश आ जाता है। इस ध्वनि के कारण शब्दों से प्रणायाम के द्वारा कैसे मस्तिष्क जल हात्‌ में प्रकट होता हुआ दीप मालिका बन जाती है। तो मुनिवरो, राजा नल का बाल्यकाल का नाम श्वेतकेतु ब्रह्मचारी था, वह श्वेतकेतु ब्रह्मचारी उनके यहां अध्ययन करते थे। बाल अवस्था में उनको दिपमालिका का उन्होंने अध्ययन कराया। अध्ययन में इतने पारंगत हो गए कि वह दीप मालिका जब गाना गाते थे तो दीपक में प्रकाश आ जाता था। जैसे दीप मालिका एक पर्व हमारे यहां पर होता है। जिसको दीप मालिका कहते हैं। दीपको का प्रकाश हो जाता है तो उस समय देखो ध्वनि के द्वारा प्राण और ललाट दोनों का समन्वय करते हुए। जब वह गाना गाते थे तो मुनिवर नगर के दीपक प्रकाशित हो जाते थे। मुझे वह काल, उनका साहित्य स्‍मरण आता रहता है। जब वह बाल्यकाल में परायण हो गए। परायण होते हुए। 'संभव: देवो ब्रह्मवाचा: प्रवचन ब्रह्मवचोसी देवा:' ब्रह्म और चर्य दोनों का समन्वय होता है। क्योंकि वह श्वेतवृत्ति ब्रह्मचारी थे वह सदैव ब्रह्मचर्य में रत रहते थे। 'नरा नृत्‍यम्‌ वृहीव्रताम्‌' उनके गुरु ने जब उसे दीक्षित बनाया तो उसका नामकरण भी नल के रूप में परिणत हो गया। उसका नामकरण नल के रूप में जब परिणत हो गया। जब वह भोजनालय तपाने लगते थे तो अग्नि में ऐसा सुंदर भोजन तपाते थे। यह भी एक विधा होती है। वैदिक साहित्य में भिन्न-भिन्न प्रकार की विधाएं हैं। मेरी प्यारी माता भोजनालय में परिणित हो जाती है तो गायत्री छंदों का पठन-पाठन करती हुई अपने पुत्र को महान बना देती है। मुझे महर्षि गौतम का और अगस्त मुनि का जीवन स्मरण आता रहता है। अगस्त मुनि की माता का नाम श्‍वैशनै था। उनका नाम दिव्‍या कहलाता था। एक समय बाल काल में जब वह बालक 5 वर्ष का था। 5 वर्ष के पुत्र ने माता से यह कहा। हे माता, तुमने मुझे संस्कारों से जन्म दिया है परंतु मैं यह चाहता हूं कि मुझे तू 12 वर्ष का भोजन प्रदान कर। जिससे मेरा अंतरात्मा उसे पवित्र हो जाए। माता ने वह वाक्य स्वीकार कर लिया। स्वीकार करके माता भोजनालय एकांत हृदय की संतुलनता को करती हुई वह भोजन करा, भोजन को तपाती थी अग्नि में, तपाने के पश्चात बालक को भोजन कराती थी। 12 वर्ष के पश्चात मेरे प्यारे ऋषि अगस्त मुनि महाराज आत्मा और परमात्मा की प्रतिभा को जानकर के विज्ञान की धाराओं को अन्य में जितने विज्ञान की तरंगे होती है उनको सबको जान करके वह महान बन गया। तो विचार क्या है माता जब भोजन बनाती है भोजन तपाती है अग्नि में, तो योगेश्वर बना देती है। गायत्री का जपन हो जाता है भोजन बना रही है। ध्‍वनिया वेदो का गाना गा रही है। वह तरंगित भोजन को बालक पान करता है तो बालक महान बन जाता है। पुत्र बन जाता है। माता वही सौभाग्यशाली होती है जिस माता के गर्भ से बालक ब्रह्म वेता या ब्रह्मविचारक बन जाए। जिससे वह परमपिता परमात्मा के क्षेत्र में महानता को प्राप्त हो जाए। महाराजा नल के जीवन का मुझे वह काल स्मरण आता रहता है। मेरे पूज्य पाद गुरुदेव भी मुझे इसकी वार्ता प्रकट कराते रहते थे।  यह वार्ताएं मेरे हृदय  में आती रहती है। महाराजा नल जब वह गान गाते थे तो रात्रि काल में दीपमालिका नगरों की बन जाती थी। वह इतने परायण बन गए थे। जब उनके राष्ट्र के बंटवारे के ऊपर कुछ भिन्नता आई तो महाराजा नल का संस्कार भी हो गया था। महाराजा नल का संस्कार महारानी दमयंती के द्वारा हुआ। तो मुनिवर देखो, 'ब्रह्म वाचपृही लोकाम वसूरधर्म ब्रहे' में  महाराज पुष्कर ने जब उनके राज्य को अपना लिया और 12 वर्ष की प्राप्ति वन प्राप्ति हो गई। तो भयंकर वन में पति-पत्नी दोनों ने गमन किया और भयंकर वनों में महाराजा नल उस  बृह्‍म अस्‍वतो में पत्नी को भी त्याग दिया। त्याग देने के पश्चात वह तो तुगंध्वज राजा के राष्ट्र में चले गए  और महारानी दमयंती गमन करती हुई एकांत रह गई। वनों में भ्रमण करती हुई अपने पिता के द्वार चली गई। जब महारानी दमयंती को यह प्रतीत हो गया कि मेरा स्वामी कहीं है और यह प्रतीत हुआ कि स्वामी तुगंध्वज राजा के यहां है, तो वह कैसे आए?


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