सोमवार, 30 सितंबर 2019

उपवास का महत्व और प्रभाव

उपवास में कुछ दिनों तक शारीरिक क्रियाएँ संचित कार्बोहाइड्रेट पर, फिर विशेष संचित वसा पर और अंत में शरीर के प्रोटीन पर निर्भर रहती हैं। मूत्र और रक्त की परीक्षा से उन पदार्थों का पता चल सकता है जिनका शरीर पर उस समय उपयोग कर रहा है। उपवास का प्रत्यक्ष लक्षण है व्यक्ति की शक्ति का निरंतर ह्रास। शरीर की वसा घुल जाती है, पेशियाँ क्षीण होने लगती हैं। उठना, बैठना, करवट लेना आदि व्यक्ति के लिए दुष्कर हो जाता है और अंत में मूत्ररक्तता (यूरीमिया) की अवस्था में चेतना भी जाती रहती है। रक्त में ग्लूकोस की कमी से शरीर क्लांत तथा क्षीण होता जाता है और अंत में शारीरिक यंत्र अपना काम बंद कर देता है।


1943 की अकालपीड़ित बंगाल की जनता का विवरण बड़ा ही भयावह है। इस अकाल के सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण बड़े ही रोमांचकारी हैं। किंतु उसका वैज्ञानिक अध्ययन बड़ा शिक्षाप्रद था। बुभुक्षितों के संबंध में जो अन्वेषण हुए उनसे उपवास विज्ञान को बड़ा लाभ हुआ। एक दृष्टांत यह है कि इन अकालपीड़ित भुखमरों के मुँह में दूध डालने से वह गुदा द्वारा जैसे का तैसा तुरंत बाहर हो जाता था। जान पड़ता था कि उनकी अँतड़ियों में न पाचन रस बनता था और न उनमें कुछ गति (स्पंदन) रह गई थी। ऐसी अवस्था में शिराओं (वेन) द्वारा उन्हें भोजन दिया जाता था। तब कुछ काल के बाद उनके आमाशय काम करने लगते थे और तब भी वे पूर्व पाचित पदार्थों को ही पचा सकते थे। धीरे-धीरे उनमें दूध तथा अन्य आहारों को पचाने की शक्ति आती थी।


इसी प्रकार गत विश्वयुद्ध में जिन देशों में खाद्य वस्तुओं पर बहुत नियंत्रण था और जनता को बहुत दिनों तक पूरा आहार नहीं मिल पाता था उनमें भी उपवसजनित लक्षण पाए गए और उनका अध्ययन किया गया। इन अध्ययनों से आहार विज्ञान और उपवास संबंधी ज्ञान में विशेष वृद्धि हुई। ऐसी अल्पाहारी जनता का स्वास्थ्य बहुत क्षीण हो जाता है। उसमें रोग प्रतिरोधक शक्ति नहीं रह जाती। गत विश्वयुद्ध में उचित आहार की कमी से कितने ही बालक अंधे हो गए, कितने ही अन्य रोगों के ग्रास बने।


उपवास पूर्ण हो या अधूरा, थोड़ी अवधि के लिए हो या लंबी अवधि के लिए, चाहे धर्म या राजनीति पर आधारित हो, शरीर पर उसका प्रभाव अवधि के अनुसार समान होता है। दीर्घकालीन अल्पाहार से शरीर में वे ही परिवर्तन होते हैं जो पूर्ण उपवास में कुछ ही समय में हो जाते हैं।


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