रविवार, 15 सितंबर 2019

राष्ट्र की महानता (कर्तव्यवाद)

गतांक से...
 परंतु वायुमंडल में अशुद्ध शब्दों का मिलान हो रहा है। उसके पश्चात भी मैं अपने यजमान का यह वाक्‌ उच्चारण करता रहता हूं। हे यजमान, तेरे जीवन का सौभाग्य अखंड बना रहे। यह जो काल चल रहा है। वाममार्ग का काल चल रहा है। यहां उल्टे मार्ग पर जाने वाला समाज है। जब यह एकांत स्थली में विद्यमान होता है तो वह मांस और सुरा पान की ही चर्चा करता है। यह अपनी कृतियों की चर्चा करता है । परंतु मानवता की चर्चा इस के द्वार से नष्ट होती जा रही है। मैंने बहुत पुरातन काल में अपने पूज्य पाद गुरुदेव को यह वर्णन कराया था कि यह ऐसा विचित्र एक कर्म है जो सृष्टि के प्रारंभ से चला रहा है। सृष्टि के प्रारंभ से यह यज्ञ कर्म चला आ रहा है। सुगंधित होना चाहता है। वह किसी भी स्त्री-पुरुष पर रहता है, किसी भी रूप में रहता है। उसके हृदय में एक आकांक्षा है कि मैं सुगंधित हो जाऊं। सुगंधी की भी नाना अग्नियों का चयन करता रहता है । परंतु जब मैं यह विचारता हूं कि यह नाना प्रकार की जो अग्नि है। वह अपने में निहित हो करके हमें विचित्र बना सकती है। यदि हम उनको जानने का प्रयास करें। परंतु देखो जब यहां ब्रह्म-जगत में महाभारत के काल के पश्चात की वार्ता है। पूज्‍यपाद गुरुदेव तो इन वाक्यों को इतने विस्तृत रूप से जानते नहीं। परंतु मैं इनको परिचय कराता रहता हूं। हमारा यह परिचय रहता है कि महाभारत के काल के पश्चात यहां नाना प्रकार के विचार और वाम मार्ग संप्रदाय का यहां एक उधरवा में रूप धारण किया गया। उस वाम मार्ग में देखो यह और मेरी प्यारी माताओं का तिरस्कार प्रारंभ किया। दोनों का तिरस्कार जब महाभारत के काल के पश्चात हुआ। नाना प्रकार के मत मत-मतातंरो में यह समाज, यह मानव समाज का बंटवारा बन गया। नाना मत-मतंरो का सबसे प्रथम बौद्ध काल में यह कहा गया। जब बोदॄ का काल आया कि मैं ऐसे वेद को स्वीकार नहीं करता। जिस में हिंसा हो, उसका परिणाम यह हुआ कि वाम मार्ग का विस्‍तार हुआ,वह बौद्ध काल के मानव ने यह नहीं विचारा न महात्मा बुध में यह विचार आया कि इस वेद का अध्ययन तो करना चाहिए। जब एक-एक वेद के मंत्रों के जो भी अर्थ है, वैज्ञानिक अर्थ है, मानव के व्यवहारिक अर्थ है। उसको न मानना ही एक बुदॄ समाज का ह्रास हो गया। बुद्ध समाज में बौद्धिक ऋषियों ने उन्होंने भी मांस का आहार प्रारंभ किया। उसका परिणाम यह हुआ कि यहां नाना प्रकार की रूढ़ियों का प्रादुर्भाव हुआ। महात्मा बुध के कार्यकाल के पश्चात नाना प्रकार की रूढियां बनी और वह वाम मार्क का समाज था। उसने वेदों की अवहेलना की, यज्ञो में मांस की आहुतियां प्रदान करने लगे। तो यज्ञ का तिरस्कार हो गया। वैदिक साहित्य का ह्रास हो गया जब विचारा तो हम यहां जैन काल में भी ऐसा हुआ। उन्होंने कहा कि मैं तपस्या को प्रथम स्वीकार करता हूं। वेद के एक अंग को अपनाया है तपस्या का अंग। परंतु देखो सर्वांग अंग वह प्राणी होता है जो यज्ञ जो सुगंधी और विचार सुगंधी और इसका संबंध करके परिणत होता है। तो वह सर्वत्र, पूर्ण, देखो वह एक समिधा के रूप में उसका जीवन बन जाता है। जब मैं यह भी जानता हूं कि कितना तिरस्कार हुआ है? मेरी पुत्रियों को यहां, देवियों का तिरस्कार हुआ। तो देखो यहां दूरी तम, देखो संतान का जन्म होना आरंभ हुआ। परंतु देखो, उनके जन्म के पश्चात वैदिक सिद्धांतों की अवहेलना करने वाला समाज बन गया। जब मैंने विचारा की अश्व तम ब्रह्म महात्मा बुध का परिणाम यह बना कि बौद्ध काल के जानने वालों का राष्ट्र हुआ। महात्मा महावीर के मानने वालों का राष्ट्र हुआ। तो यहां जितना वैदिक साहित्य था वह कुछ को त्याग करके अग्नि के मुख में परिणित कर दिया था कि ऐसे वैदिक साहित्य को हम स्वीकार नहीं करें। इसमें हिंसा है। परंतु उन भोले प्राणियों ने अध्ययन नहीं किया। उसका अध्ययन कर लेते तो यह अज्ञानता या यज्ञ का तिरस्कार नहीं हो सकता था। यज्ञ का तिरस्कार जब होता है जब अज्ञान की प्रतिभा का जन्म होता है। अपनी सुगंधी को नष्ट कर देता है। इसी प्रकार जब देखो यहां वैदिक काल समाप्त हुआ तो इसमें इतनी हीनता को जैन और देखो बौद्ध समाज ने, इस समाज को इतना निर्दयी और ऋणी बना दिया कि उसमें ऐसी निर्लज्जता आ गई। कुरीतियां बन गई। वीरता का देखो स्थान समाप्त हो गया। उसका परिणाम यह हुआ कि नाना प्रकार के देखो या यमनो का कॉल आ गया। यमन के काल में यहां यमन आए। दूसरे राष्ट्रों से आए। परंतु देखो उन्होंने आकर के यहां वैदिकता को नष्ट करना प्रारंभ किया और प्यारी माताओं के श्रृंगार का हनन करने का प्रयास किया। नाना प्रकार के मंत्रों में नाना प्रकार की रूढ़ियों में यह समाज परिणत हो गया। यह संसार पृथ्वी का प्राणी नाना प्रकार की रूढ़ियों में महाभारत के काल के बाद हुआ है। महाभारत के पूर्व का काल साहित्य यह नहीं कहता कि यहां रूढिया जाती या नाना प्रकार के मंत्र वाला समाज था। कोई मंत्र नहीं था मुझे वह काल स्‍मरण है। मेरे पूज्य गुरुदेव के चरणों में रहा हूं। मैंने उस काल को भी दृष्टिपात किया है। उस काल में सर्वमेघ का यज्ञ करने वाले राजा अपने राष्ट्र में यह घोषणा करते रहते थे कि देखो यहां प्रत्येक प्राणी को याज्ञिक बनना चाहिए। प्रत्येक ग्रह में वेद महिमा होनी चाहिए। चाहे किसी का गृह हो,वेद की ध्‍वनि होनी चाहिए। तो वेदवेता होने वाला समाज बन जाएगा। राजाओं के पूर्व के काल में यह घोषणा होती रही है। महाराजा अश्वपति ने तो अपने राष्ट्र में यह घोषणा कराई थी कि मेरे राष्ट्र में प्रत्येक प्राणी याज्ञिक होना चाहिए। याज्ञिक होना यज्ञ में केवल अग्नि में ही आहुति देना नहीं है। यज्ञ का अभिप्राय यह है कि यज्ञ में आहुति होनी चाहिए। परंतु सदाचार और शिष्टाचार भी होना चाहिए। सदाचार और शिष्टाचार की वेदी वाला जो राष्ट्र होता है जो अपने राष्ट्र में वेद के प्रकाश को पनपाता रहता है। परंतु देखो, ऐसा जो विचित्र राष्ट्र है वही तो समाज को महान बना सकता है। जो राजा स्वत: यज्ञ में परिणत होने वाला हो, अपने गृह को सुगंधित बनाने वाला हो, वही तो महान बनेगा।


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