शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

भूख से मर जाता है छछूंदर

छछूंदर दुनिया भर में सबसे अधिक पाये जाने वाले जानवरों में से एक है। छछूंदर की करीब ३० प्रजातियाँ होती हैं, लेकिन इनमे से सिर्फ कुछ प्रजातियाँ ही अक्सर देखने को मिलती हैं। जमीन में लम्बी दरारों के अंदर या खेतों के आसपास छछूंदर अक्सर देखे जा सकते हैं। छछूंदर प्राय:धरती के नीचे गहरी सुरंग बनाते हैं और लगभग अपनी पूरी जिंदगी ही जमीन के नीचे अँधेरे में बिता देते हैं। छछूंदर एक ऐसे किलेनुमा बस्ती में रहते हैं, जो जमीन के नीचे ये स्वयं बनाते हैं। इनकी खोदने की क्षमता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यह एक खेत में ही २०० फुट से भी ज्यादा लम्बी एक सुरंग बड़ी आसानी से खोद सकते हैं और एक मिनट से भी कम समय में एक बिल खोदकर उसमे समा सकते हैं। दरअसल छछूंदर के पंजे बहुत शक्तिशाली होते हैं, जिनका आकार फावडे जैसा होता है। छछूंदर की सुरंगों की बनावट इतनी जटिल होती है कि दुसरे जानवरों के लिए इन सुरंगों में जाना सुरक्षित नहीं होता। आपको जानकार हैरानी होती है कि छछूंदर इतना भूखा जीव है कि यदि यह १२ घंटे तक भूखा रह जाये तो यह भूख के कारण दम तोड़ देता है।


जलकाक या पनकौआ

जलकाक (Cormorant) या पनकौआ पक्षियों में बक गण (Order Ciconiformes) के जलकाक कुल (Family Phalacrocoracidae) का प्रसिद्ध पक्षी है जिसकी कई जातियाँ सारे संसार में पाई जाती हैं। इस कुल के पक्षियों का रंग काला, चोंच लंबी, टाँगें छोटी और उँगलियाँ ज़ालपाद होती है। ये अपना अधिक समय पानी में ही बिताते हैं और पानी के भीतर मछलियों की तरह तैर लेते हैं। ये सब मछलीखोर पक्षी हैं।


जलकाक का दूसरा नाम पनकौआ भी है। इसकी एक छोटी जाति भी होती है जो छोटा पनकौआ (Little cormorant) कही जाती हैं। कद की छोटाई के अलावा इन दोनों में कोई भेद नहीं है।


तीसरी जाति के पक्षी बानवर (Darter) कहे जाते हैं। पूर्वोक्त दोनों जातियों से इनकी चोंच अवश्य भिन्न होती है, लेकिन इसके अतिरिक्त इनके रहन सहन, स्वभाव, तथा भोजन आदि में कोई भेद नहीं है। पनकौओं की चोंच जहाँ आगे की ओर थोड़ी मुड़ी रहती है, वहीं बानवर की चोंच सीधी पतली और नुकीली रहती है।


पनकौए 10- 12 इंच लंबे पक्षी हैं जिनके नर और मादा एक ही जैसे होते हैं। ये या तो किसी जलाशय में मछलियाँ पकड़ते रहते हैं या पानी के किनारे या किसी ठूँठ पर डैने फैलाए बैठे अपने पंख सुखाते रहते हैं। इनका जोड़ा बाँधने का समय जुलाई है, जब ये सैकड़ों की संख्या में इकट्ठे होकर अपने बड़े बड़े गिरोह बना लेते हैं। इनका गरोह एक ही जगह मिलकर घोंसला बनाता है, जिसमें मादा 4-5 अंडे देती है।


विटामिन से भरपूर गाजर

गाजर एक सब्ज़ी का नाम है। यह लाल, काली, नारंगी, कई रंगों में मिलती है। यह पौधे की मूल (जड़) होती है।गाजर के रस का एक गिलास पूर्ण भोजन है। इसके सेवन से रक्त में वृद्धि होती है।मधुमेह आदि को छोड़कर गाजर प्रायः हरेक रोग में सेवन की जा सकती है। गाजर के रस में विटामिन 'ए','बी', 'सी', 'डी','ई', 'जी', और 'के' मिलते हैं। गाजर का जूस पीने या कच्ची गाजर खाने से कब्ज की परेशानी खत्म हो जाती है। यह पीलिया की प्राकृतिक औषधि है। इसका सेवन ल्यूकेमिया (ब्लड कैंसर) और पेट के कैंसर में भी लाभदायक है। इसके सेवन से कोषों और धमनियों को संजीवन मिलता है। गाजर में बिटा-केरोटिन नामक औषधीय तत्व होता है, जो कैंसर पर नियंत्रण करने में उपयोगी है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] इसके सेवन से इम्यूनिटी सिस्टम तो मजबूत होता ही है साथ ही आँखों की रोशनी भी बढ़ती है गाजर के सेवन से शरीर को उर्जा मिलती है!


माता के समान हितकारी हरड़

हरीतकी (वानस्पतिक नाम:Terminalia chebula) एक ऊँचा वृक्ष होता है एवं भारत में विशेषतः निचले हिमालय क्षेत्र में रावी तट से लेकर पूर्व बंगाल-आसाम तक पाँच हजार फीट की ऊँचाई पर पाया जाता है। हिन्दी में इसे 'हरड़' और 'हर्रे' भी कहते हैं। आयुर्वेद ने इसे अमृता, प्राणदा, कायस्था, विजया, मेध्या आदि नामों से जाना जाता है। हरड़ का वृक्ष 60 से 80 फुट तक ऊँचा होता है। इसकी छाल गहरे भूरे रंग की होती है, पत्ते आकार में वासा के पत्र के समान 7 से 20 सेण्टीमीटर लम्बे, डेढ़ इंच चौड़े होते हैं। फूल छोटे, पीताभ श्वेत लंबी मंजरियों में होते हैं। फल एक से तीन इंच तक लंबे और अण्डाकार होते हैं, जिसके पृष्ठ भाग पर पाँच रेखाएँ होती हैं। कच्चे फल हरे तथा पकने पर पीले धूमिल होते हैं। प्रत्येक फल में एक बीज होता है। अप्रैल-मई में नए पल्लव आते हैं। फल शीतकाल में लगते हैं। पके फलों का संग्रह जनवरी से अप्रैल के मध्य किया जाता है।कहा जाता है हरीतकी की सात जातियाँ होती हैं। यह सात जातियाँ इस प्रकार हैं: 1. विजया 2. रोहिणी 3. पूतना 4. अमृता 5. अभया 6. जीवन्ती तथा 7. चेतकी।


परिचय:-हरीतकी को वैद्यों ने चिकित्सा साहित्य में अत्यधिक सम्मान देते हुए उसे अमृतोपम औषधि कहा है। राज बल्लभ निघण्टु के अनुसार-


यस्य माता गृहे नास्ति, तस्य माता हरीतकी।
कदाचिद् कुप्यते माता, नोदरस्था हरीतकी ॥
(अर्थात् हरीतकी मनुष्यों की माता के समान हित करने वाली है। माता तो कभी-कभी कुपित भी हो जाती है, परन्तु उदर स्थिति अर्थात् खायी हुई हरड़ कभी भी अपकारी नहीं होती। )
दो प्रकार के हरड़ बाजार में मिलते हैं - बड़ी और छोटी। बड़ी में पत्थर के समान सख्त गुठली होती है, छोटी में कोई गुठली नहीं होती, वैसे फल जो गुठली पैदा होने से पहले ही पेड़ से गिर जाते हैं या तोड़कर सुखा लिया जाते हैं उन्हें छोटी हरड़ कहते हैं। आयुर्वेद के जानकार छोटी हरड़ का उपयोग अधिक निरापद मानते हैं क्योंकि आँतों पर उनका प्रभाव सौम्य होता है, तीव्र नहीं। इसके अतिरिक्त वनस्पति शास्त्रियों के अनुसार हरड़ के 3 भेद और किए जा सकते हैं- पक्व फल या बड़ी हरड़, अर्धपक्व फल पीली हरड़ (इसका गूदा काफी मोटा स्वाद में कसैला होता है।) अपक्व फल जिसे ऊपर छोटी हरड़ नाम से बताया गया है। इसका वर्ण भूरा-काला तथा आकार में यह छोटी होती है। यह गंधहीन व स्वाद में तीखी होती है। फल के स्वरूप, प्रयोग एवं उत्पत्ति स्थान के आधार पर भी हरड़ को कई वर्ग भेदों में बाँटा गया है पर छोटी स्याह, पीली जर्द, बड़ी काबुली ये 3 ही सर्व प्रचलित हैं।


कई रोगों का एक लक्षण 'पीलिया'

रक्तरस में पित्तरंजक (Billrubin) नामक एक रंग होता है, जिसके आधिक्य से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है। इस दशा को कामला या पीलिया (Jaundice) कहते हैं।सामान्यत: रक्तरस में पित्तरंजक का स्तर 1.0 प्रतिशत या इससे कम होता है, किंतु जब इसकी मात्रा 2.5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब कामला के लक्षण प्रकट होते हैं। कामला स्वयं कोई रोगविशेष नहीं है, बल्कि कई रोगों में पाया जानेवाला एक लक्षण है। यह लक्षण नन्हें-नन्हें बच्चों से लेकर 80 साल तक के बूढ़ों में उत्पन्न हो सकता है। यदि पित्तरंजक की विभिन्न उपापचयिक प्रक्रियाओं में से किसी में भी कोई दोष उत्पन्न हो जाता है तो पित्तरंजक की अधिकता हो जाती है, जो कामला के कारण होती है।


रक्त में लाल कणों का अधिक नष्ट होना तथा उसके परिणामस्वरूप अप्रत्यक्ष पित्तरंजक का अधिक बनना बच्चों में कामला, नवजात शिशु में रक्त-कोशिका-नाश तथा अन्य जन्मजात, अथवा अर्जित, रक्त-कोशिका-नाश-जनित रक्ताल्पता इत्यादि रोगों का कारण होता है। जब यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ होती हैं तब भी कामला हो सकता है, क्योंकि वे अपना पित्तरंजक मिश्रण का स्वाभाविक कार्य नहीं कर पातीं और यह विकृति संक्रामक यकृतप्रदाह, रक्तरसीय यकृतप्रदाह और यकृत का पथरा जाना (कड़ा हो जाना, Cirrhosis) इत्यादि प्रसिद्ध रोगों का कारण होती है। अंतत: यदि पित्तमार्ग में अवरोध होता है तो पित्तप्रणाली में अधिक प्रत्यक्ष पित्तरंजक का संग्रह होता है और यह प्रत्यक्ष पित्तरंजक पुन: रक्त में शोषित होकर कामला की उत्पत्ति करता है। अग्नाशय, सिर, पित्तमार्ग तथा पित्तप्रणाली के कैंसरों में, पित्ताश्मरी की उपस्थिति में, जन्मजात पैत्तिक संकोच और पित्तमार्ग के विकृत संकोच इत्यादि शल्य रोगों में मार्गाविरोध यकृत बाहर होता है। यकृत के आंतरिक रोगों में यकृत के भीतर की वाहिनियों में संकोच होता है, अत: प्रत्यक्ष पित्तरंजक के अतिरिक्त रक्त में प्रत्यक्ष पित्तरंजक का आधिक्य हो जाता है।


वास्तविक रोग का निदान कर सकने के लिए पित्तरंजक का उपापचय (Metabolism) समझना आवश्यक है। रक्तसंचरण में रक्त के लाल कण नष्ट होते रहते हैं और इस प्रकार मुक्त हुआ हीमोग्लोबिन रेटिकुलो-एंडोथीलियल (Reticulo-endothelial) प्रणाली में विभिन्न मिश्रित प्रक्रियाओं के उपरांत पित्तरंजक के रूप में परिणत हो जाता है, जो विस्तृत रूप से शरीर में फैल जाता हैस, किंतु इसका अधिक परिमाण प्लीहा में इकट्ठा होता है। यह पित्तरंजक एक प्रोटीन के साथ मिश्रित होकर रक्तरस में संचरित होता रहता है। इसको अप्रत्यक्ष पित्तरंजक कहते हैं। यकृत के सामान्यत: स्वस्थ अणु इस अप्रत्यक्ष पित्तरंजक को ग्रहण कर लेते हैं और उसमें ग्लूकोरॉनिक अम्ल मिला देते हैं यकृत की कोशिकाओं में से गुजरता हुआ पित्तमार्ग द्वारा प्रत्यक्ष पित्तरंजक के रूप में छोटी आँतों की ओर जाता है। आँतों में यह पित्तरंजक यूरोबिलिनोजन में परिवर्तित होता है जिसका कुछ अंश शोषित होकर रक्तरस के साथ जाता है और कुछ भाग, जो विष्ठा को अपना भूरा रंग प्रदान करता है, विष्ठा के साथ शरीर से निकल जाता है।


प्रत्येक दशा में रोगी की आँख (सफेदवाला भाग Sclera) की त्वचा पीली हो जाती है, साथ ही साथ रोगविशेष काभी लक्षण मिलता है। वैसे सामान्यत: रोगी की तिल्ली बढ़ जाती है, पाखाना भूरा या मिट्टी के रंग का, ज्यादा तथा चिकना होता है। भूख कम लगती है। मुँह में धातु का स्वाद बना रहता है। नाड़ी के गति कम हो जाती है। विटामिन 'के' का शोषण ठीक से न हो पाने के कारण तथा रक्तसंचार को अवरुद्ध (haemorrhage) होने लगता है। पित्तमार्ग में काफी समय तक अवरोध रहने से यकृत की कोशिकाएँ नष्ट होने लगती हैं। उस समय रोगी शिथिल, अर्धविक्षिप्त और कभी-कभी पूर्ण विक्षिप्त हो जाता है तथा मर भी जाता है।


कामला के उपचार के पूर्व रोग के कारण का पता लगाया जाता है। इसके लिए रक्त की जाँच, पाखाने की जाँच तथा यकृत-की कार्यशक्ति की जाँच करते हैं। इससे यह पता लगता है कि यह रक्त में लाल कणों के अधिक नष्ट होने से है या यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ हैं अथवा पित्तमार्ग में अवरोध होने से है।


असुविधा में यज्ञ कैसे करें?

गतांक से...


आओ बेटा मैं तुम्हें महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज के विद्यालय में ले जाना चाहता हूं ! विद्यालय में नाना ब्रह्मचारी विद्यमान है और प्रातः कालीन नैतिक शिक्षा देते हुए ब्रह्मचारियों से याज्ञवल्क मुनि ने कहा 'ब्राह्मणे: याज्ञाम् भवितं ब्रव्हा कृत लो काहाम, हे ब्रह्मचारीयो, देखो यज्ञ अपने में कितना विशिष्टतम माना गया है! वेद का एक-एक मंत्र उस यज्ञ का बखान कर रहा है! जिन यगों से मानव के जीवन में महानता का जन्म होता है और जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है तो वह जिज्ञासु बन करके अपने स्वरूप में रमण करने लगता है! मेरे प्यारे देखो वेदाम भू वर्णस्वता: यागाम ब्रहे, प्रातः काल   याज्ञवल्क मुनि महाराज यज्ञ की चर्चा कर रहे थे! एक ब्रह्मचारी यगदत्त ने कहा प्रभु आप यज्ञ को क्या जानते हैं? उन्होंने कहा सब साकलय होना चाहिए और यज्ञ शाला का भव्यता में निर्माण होना चाहिए! जैसे परमपिता परमात्मा ने मानव को सजातीय रूप में प्रकट किया है और आत्मतत्व उसमें विधमान है! परंतु अपने यहां भव्य यज्ञ की विशेषता कृतियां मानी जाती है! उन्होंने कहा संभव प्रव्हा:' वर्णस्वूत  देवत्वाम यज्ञ:, मेरे प्यारे याग वल्क मुनि महाराज ने जब ऐसा कहा तो उन्होंने कहा प्रभु यज्ञशाला होनी चाहिए! ब्रह्मचार्यो का साकल्य होना चाहिए! संमिधा होनी चाहिए और उसमें यजमान का संकल्प भी होना चाहिए! मेरे पुत्रों ब्रह्मचारियों ने स्वीकार कर लिया! परंतु उन्होंने कहा प्रभु यह वाक्य तो आपका बड़ा प्रियतम दृष्टिपात आ रहा है! परंतु मैं यह जानना चाहता हूं कि कहीं हमें यज्ञ की इच्छा है और यह कोई भी सुविधा में प्राप्त नहीं है! तो प्रभु उस समय हम यह कैसे करेंग? उन्होंने कहा हे ब्रह्मचारी यज्ञम् ब्रह्मा याज्ञम् सुतम ब्रह्मा:, मानो यज्ञशाला भी नहीं है और साक्लय  भी नहीं है तो भी यजमान यज्ञ करता है! देखो अग्नि को प्रदीप्त करता हुआ, वह संमिधा ले करके कहता है! अग्नि स्वाहा, प्राणाया स्वाहा, अपानाय स्वाहा,व्यानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा! मेरे प्यारे वह सर्वत्र प्राणों की आहुति देता है हुत कर रहा है! संमिधा के द्वारा अग्नि में परिणत कर रहा है! अग्निम ब्रह्मा:, वही अग्नि हमारे यहां प्रत्येक वस्तु का विभाजन कर देती है! जो काष्ट में रहने वाली अग्नि है! वही पृथ्वी को तपाएमान कर देती है! वहीं मानव के हृदय में प्रवेश करके प्रदीप्त रहती है! वही अग्नि माता के गर्भ में शिशु का निर्माण करती है! उसके तेज का आह्वान करती हुई माता अपने में स्वयं धन्य हो जाती है! मेरे प्यारे उन्होंने कहा कि यज्ञम् ब्रहा: देखो यज्ञम ब्रहे कृतम' संमिधा के द्वारा यज्ञ होना चाहिए! वह मानव अग्नि आहुति देता हुआ, अपने जीवन और ग्रह को उन्नत बनाना चाहता है!


प्राधिकृत प्रकाशन विवरण

यूनिवर्सल एक्सप्रेस    (हिंदी-दैनिक)


नवंबर 02, 2019 RNI.No.UPHIN/2014/57254


1. अंक-89 (साल-01)
2. शनिवार, नवंबर 02, 2019
3. शक-1941, कार्तिक-शुक्ल पक्ष, तिथि- षष्ठी, संवत 2076


4. सूर्योदय प्रातः 06:28,सूर्यास्त 05:48
5. न्‍यूनतम तापमान -18 डी.सै.,अधिकतम-24+ डी.सै., हवा की गति धीमी रहेगी।
6. समाचार-पत्र में प्रकाशित समाचारों से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। सभी विवादों का न्‍याय क्षेत्र, गाजियाबाद न्यायालय होगा।
7. स्वामी, प्रकाशक, मुद्रक, संपादक राधेश्याम के द्वारा (डिजीटल सस्‍ंकरण) प्रकाशित।


8.संपादकीय कार्यालय- 263 सरस्वती विहार, लोनी, गाजियाबाद उ.प्र.-201102


9.संपर्क एवं व्यावसायिक कार्यालय-डी-60,100 फुटा रोड बलराम नगर, लोनी,गाजियाबाद उ.प्र.,201102


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कुएं में मिला नवजात शिशु का शव, मचा हड़कंप

कुएं में मिला नवजात शिशु का शव, मचा हड़कंप  दुष्यंत टीकम  जशपुर/पत्थलगांव। जशपुर जिले के एक गांव में कुएं में नवजात शिशु का शव मिला है। इससे...