बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

चीड़ से मिलता है स्वादिष्ट चिलगोजा

चिलगोजा, चीड़ या सनोबर जाति के पेड़ों का छोटा, लंबोतरा फल है, जिसके अंदर मीठी और स्वादिष्ट गिरी होती है और इसीलिए इसकी गिनती मेवों में होती है। स्थानीय भाषा में चिलगोजे को न्योजा कहते हैं। किन्नौर तथा उसके समीपवती प्रदेश में विवाह के अवसर पर मेहमानों को सूखे मेवे की जो मालाएँ पहनाई जाती हैं उसमें अखरोट और चूल्ही के साथ चिलगोजे की गिरी भी पिरोई जाती है। सफेद तनों वाला इनका पेड़ देवदार से कुछ कम लंबाई वाला, हरा भरा होता है।


इसका वानस्पतिक नाम पाइंस जिराडियाना है। चिलगोजा समुद्रतल से लगभग २००० फुट की ऊँचाई वाले दुनिया के इने गिने इलाकों में ही मिलता है। यह कुछ गहरी और पहाड़ी घाटियों के आरपार उन जंगलों में उगता है, जहाँ ठंडा व सूखा मौसम एक साथ होता हो, ऐसे जंगलों के आसपास कोई नदी भी हो सकती है और वहाँ से तेज हवाएँ गुजरती हों। चट्टानी, पर्वत मालाएँ सीथी खड़ी मिलती हों और वृक्ष चट्टानों को फाड़कर उगने के अभ्यासी हों। ऐसी जलवायु में जहाँ भी इसका बीज अंकुरित हो जाय यह सदाबहार हो उठता है।


चिलगोजे के पेड़ पर चीड़ की ही तरह भूरे रंगरूप वाला तथा कुछ ज्यादा गोलाई वाला लक्कड़फूल लगता है। मार्च अप्रैल में आकार लेकर यह फूल सितंबर अक्तूबर तक पक जाता है। यह बेहद कड़ा होता है। इसे तोड़कर इसकी गिरियाँ बाहर निकाली जा सकती हैं लेकिन ये गिरियाँ भी एक मजबूत आवरण से ढकी रहती है। इस भूरे या काले आवरण को दाँत से कुतर कर हटाया जा सकता है। भीतर पतली व लंबी गिरी निकलती है जो सफेद मुलायम व तेलयुक्त होती है। इसे चबाना बेहद आसान होता है। इसका स्वाद किसी भी अन्य कच्ची गिरी से तो मिलता ही है, मगर काफी अलग तरह का होता है। मूँगफली या बादाम से तो यह बहुत भिन्न होता है। छिले हुए चिलगोजे जल्दी खरीब हो जाते हैं लेकिन बिना छिले हुए चिलगोजे बहुत दिनों तक रखे जा सकता है।


दुनिया के अधिकतर देश इस फल से वंचित हैं लेकिन किन्नर कैलास के पास वास्पा और सतलुज की घाटी में कड़छम नामक स्थान पर चिलगोजे के पेड़ों का भरा पूरा जंगल है। रावी के निकट के कुछ इलाकों तथा गढ़वाल के उत्तर पश्चिम के क्षेत्र, किन्नौर में कल्पा व सांगला की घाटी तथा चंबा में पांगी-भरमौर की घाटी इनके लिये प्रसिद्ध है। चिनाब नदी के कुछ ऊँचे बहाव वाले स्थानों पर भी यह मिलता है। अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान में भी यह मिलता है। इसके अतिरिक्त दक्षिण पश्चिम अमेरिका में इसे पाया जाता है। लेकिन एशियन और अमेरिकन चिलगोजे स्वाद और आकार में भिन्नता पाई जाती है।


चिलगोजा भूख बढ़ाता है इसका स्पर्श नरम लेकिन मिजाज गरम है। इसमें पचास प्रतिशत तेल रहता है। इसलिये ठंडे इलाकों में यह अधिक उपयोगी माना जाता है। सर्दियों में इसका सेवन हर जगह लाभदायक है। यह पाचन शक्ति को बढ़ाता है, इसको खाने से बलगम की शिकायत दूर होती है। मुँह में तरावट लाने तथा गले को खुश्की से बचाने में भी यह उपयोगी है।


वनस्पति शास्त्र का इतिहास लिखने वालों का मानना है कि चिलगोजे को भोजन में शामिल करने का इतिहास पाषाण काल जितना पुराना है। इन्हें मांस, मछली और सब्जी में डालकर पकाया जाता है तथा ब्रेड में बेक किया जाता है। इटली में इसे पिग्नोली कहते हैं और इसे इटालियन पेस्टो सॉस की प्रमुख सामग्री माना गया है। जबकि अमेरिका में इसे पिनोली नाम से जाना जाता है और पिनोली कुकीज़ में इसका ही प्रयोग किया जाता है। अँग्रेजी में इसे आमतौर पर पाइन नट कहा जाता है। स्पेन में भी बादाम और चीनी से बनी एक मिठाई के ऊपर इसे चिपकाकर बेक किया जाता है। यह मिठाई स्पेन में हर जगह मिलती है। हिंदी में इसे चिलगोजे के लड्डू कह सकते हैं। कुछ स्थानों पर इसका प्रयोग सलाद के लिये किया जाता है।


चिलगोजे की काफी जिसे पिनोन कहा जाता है दक्षिण पश्चिम अमेरिका में न्यू मेक्सिको के आसपास बहुत लोकप्रिय होती है जो काली और मेवे के गहरे स्वाद वाली होती है। हल्के भुने और नमक लगे चिलगोजे तो आज सारी दुनिया में बिकने लगे हैं। दक्षिण पश्चिम अमेरिका में नेवादा के ग्रेट बेसिन का चिलगोजा अपने मीठे और फल जैसे स्वाद, बड़े आकार तथा आसानी से छीले जाने के लिये प्रसिद्ध है। मध्यपूर्व में भी चिलगोजे का प्रयोग भोजन के रूप में बहुतायत से होता है तथा किब्बेह, संबुसेक जैसे व्यंजन तथा बकलावा जैसी मिठाइयों की यह प्रमुख सामग्रियों में से एक है।


सूअर की विभिन्न प्रजातियां

पालतू सूअर संसार के प्राय: सभी देशों में फैले हुए हैं और भिन्न-भिन्न देशों में इनकी अलग-अलग जातियाँ पाई जाती हैं। यहाँ उनमें से केवल कुछ जातियों का संक्षिप्त वर्णन दिया जा रहा है जो बहुत प्रसिद्ध हैं।


1. बर्क शायर (Berkshire)-इस जाति के सूअर काले रंग के होते हैं जिनका चेहरा, पैर और दुम का सिरा सफेद रहता है। यह जाति इंग्लैंड में बनाई गई है। जहाँ से यह अमरीका में फैली। इनका माँस बहुत स्वादिष्ट होता है।


2. चेस्टर ह्वाइट (Chester white)-इस जाति के सूअरों का रंग सफेद होता है और खाल गुलाबी रहती है। यह जाति अमरीका के चेस्टर काउन्टी में बनाई गई और केवल अमरीका में ही फैली है।


3. ड्यूराक (Duroc)- यह जाति भी अमरीका से ही निकली है। इस जाति के सूअर लाल रंग के होते हैं जो काफी भारी और जल्द बढ़ जाने वाले जीव हैं।


4. हैंपशायर (Hampshire)-यह जाति इंग्लैंड में निकाली गई है लेकिन अब यह अमरीका में भी काफी फैल गई है। इस जाति के सूअर काले होते हैं जिनके शरीर के चारों और एक सफेद पट्टी पड़ी रहती है। यह बहुत जल्द बढ़ते और चरबीले हो जाते हैं।


5. हियरफोर्ड (Hereford)- यह जाति भी अमरीका में निकाली गई है। ये लाल रंग के सूअर हैं जिनका सिर, कान, दुम का सिरा और शरीर का निचला हिस्सा सफेद रहता है। ये कद में अन्य सूअरों की अपेक्षा छोटे होते हैं और जल्द ही प्रौढ़ हो जाते हैं।


6. लैंडरेस (Landrace)-इस जाति के सूअर डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, जर्मनी और नीदरलैंड में फैले हुए हैं। ये सफेद रंग के सूअर हैं जिनका शरीर लंबा और चिकना रहता है।


7. लार्ज ब्लैक (Large Black)- इस जाति के सूअर काले होते हैं जिनके कान बड़े और आँखों के ऊपर तक झुके रहते हैं। यह जाति इंग्लैंड में निकाली गई और ये वहीं ज्यादातर दिखाई पड़ते हैं।


8. मैंगालिट्जा (Mangalitza) -यह जाति बाल्कन स्टेट में निकाली गई है और इस जाति के सूअर हंगरी, रूमानियाँ और यूगोस्लाविया आदि देशों में फैले हुए हैं। ये या तो घुर सफेद होते या इनके शरीर का ऊपरी भाग भूरापन लिए काला और नीचे का सफेद रहता है। इनको प्रौढ़ होने में लगभग दो वर्ष लग जाते हैं और इनकी मादा कम बच्चे जनती है।


9. पोलैंड चाइना (Poland China)-यह जाति अमर को ओहायो (Ohio) प्रदेश की बट्लर और वारेन (Butler and Warren) काउंटी में निकाली गई है। ड्यूराक जाति की तरह यह सूअर भी अमरीका में काफी संख्या में फैले हुए हैं। ये काले रंग के सूअर हैं जिनकी टाँगें, चेहरा और दुम का सिरा सफेद रहता है। ये भारी कद के सूअर हैं जिनका वजन 12-13 मन तक पहुँच जाता है। इनकी छोटी, मझोली और बड़ी तीन जातियाँ पाई जाती हैं।


10. स्पाटेड पोलैंड चाइना (Spotted Poland China)-यह जाति भी अमरीका में निकाली गई है और इस जाति के सूअर पोलैंड चाइना के अनुरूप ही होते हैं। अंतर सिर्फ यही रहता है कि इन सूअरों का शरीर सफेद चित्तियों से भरा रहता है।


11. टैम वर्थ (Tam Worth)-यह जाति इंग्लैंड में निकाली गई जो शायद इस देश की सबसे पुरानी जाति है। इस जाति के सूअरों का रंग लाल रहता है। इसका सिर पतला और लंबोतरा, थूथन लंबे और कान खड़े और आगे की ओर झुके रहते हैं। इस जाति के सूअर इंग्लैंड के अलावा कैनाडा और यूनाइटेड स्टेट्स में फैले हुए हैं।


12. वैसेक्स सैडल बैक (Wessex Saddle Back)-यह जाति भी इंग्लैंड में निकाली गई हैं। इस जाति के सूअरों का रंग काला होता है और उनकी पीठ का कुछ भाग और अगली टाँगें सफेद रहती हैं। ये अमरीका के हैंपशायर सूअरों से बहुत कुछ मिलते-जुलते और मझोले कद के होते हैं।


13. यार्कशायर (Yorkshire)-यह प्रसिद्ध जाति वैसे तो इंग्लैंड में निकाली गई है लेकिन इस जाति के सूअर सारे यूरोप, कैनाडा और यूनाइटेड स्टेट्स में फैल गए हैं। ये सफेद रंग के बहुत प्रसिद्ध सूअर हैं जिनकी मादा काफी बच्चे जनती है। इनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है।


भारतीय जंगली मुर्गी

छोटी जंगली मुर्गी (Red Spurfowl) (Galloperdix spadicea) फ़ीज़ेन्ट कुल का पक्षी है जो भारत का ही मूल निवासी है। इसकी पूँछ तीतर (जो स्वयं फ़िज़ेन्ट कुल का पक्षी है) की तुलना में लंबी होती है और जब यह ज़मीन पर बैठा होता है, तो इसकी पूँछ साफ़ दिखाई देती है। हालांकि इसका मुर्गी से दूर का भी संबन्ध नहीं है, लेकिन भारत में इसे जंगली मुर्गा ही माना जाता है।इस पक्षी के नर और मादा चेहरे और उसके आस-पास थोड़ा भिन्न दिखते हैं। नर की लंबाई ३५ से ३७ से.मी. और वज़न ३४० से ३७० ग्राम होता है जबकि मादा का आकार छोटा होता है और वह कम ही ३३ से.मी. की लंबाई पार कर पाती है। नर की टांगों में दो से तीन नुकीले नाख़ून-नुमा उभार होते हैं और मादा की टांगों में एक से दो उभार होते हैं, जिससे इसको इसका अंग्रेज़ी नाम Spurfowl मिला है।


आवास:-यह पक्षी भारत में ही पाया जाता है जहाँ यह गंगा के दक्षिण में ही देखा गया है और मध्य भारत में भी कम ही देखने को मिलता है जबकि दक्षिण भारत में इसकी आबादी काफ़ी है और स्थिर भी है। यह घने जंगलों और बांस के इलाकों में रहना पसन्द करता है। रात को आराम के लिए यह पेड़ों की शाखाओं की शरण लेता है।


आहार:-यह विभिन्न प्रकार के अनाज एवं बीज खाता है और छोटे कीड़े इसे बहुत पसन्द हैं। यह भोजन के लिए खुले में आना पसन्द नहीं करता है और घने झुरमुट में ही अपना भोजन ढूंढ लेता है।


फबासिए महत्वपूर्ण पादप

फ़बासिए (Fabaceae), लेग्युमिनोसी (Leguminosae) या पापील्योनेसी (Papilionaceae) एक महत्त्वपूर्ण पादप कुल है जिसका बहुत अधिक आर्थिक महत्त्व है। इस कुल में लगभग ४०० वंश तथा १२५० जातियाँ मिलती हैं जिनमें से भारत में करीब ९०० जातियाँ पाई जाती हैं। इसके पौधे उष्ण प्रदेशों में मिलते हैं। शीशम, काला शीशम, कसयानी, सनाई, चना, अकेरी, अगस्त, मसूर, खेसारी, मटर, उरद, मूँग, सेम, अरहर, मेथी, मूँगफली, ढाक, इण्डियन टेलीग्राफ प्लाण्ट, सोयाबीन एवं रत्ती इस कुल के प्रमुख पौधे हैं। लेग्युमिनोसी द्विबीजपत्री पौधों का विशाल कुल है, जिसके लगभग ६३० वंशों (genera) तथा १८,८६० जातियों का वर्णन मिलता है। इस कुल के पौधे प्रत्येक प्रकार की जलवायु में पाए जाते हैं, परंतु प्राय: शीतोष्ण एवं उष्ण कटिबंधों में इनका बाहुल्य है। इस कुल के अंतर्गत शाक (herbs), क्षुप (shrubs) तथा विशाल पादप आते हैं। कभी कभी इस कुल के सदस्य आरोही, जलीय (aquatic), मरुद्भिदी (xerophytic) तथा समोद्भिदी (mescphytic) होते हैं।


इस कुल के पौधों में एक मोटी जड़ होती है, जो आगे चलकर मूलिकाओं (rootlets) एवं उपमूलिकाओं में विभक्त हो जाती है। अनेक स्पीशीज़ की जड़ों में ग्रंथिकाएँ (nodules) होती हैं, जिनमें हवा के नाइट्रोजन का यौगिकीकरण (fixing) करनेवाले जीवाणु विद्यमान रहते हैं। ये जीवाणु नाइट्रोजन का स्थायीकरण कर, खेतों को उर्वर बनाने में पर्याप्त योग देते हैं। अत: ये अधिक आर्थिक महत्व के हैं। इसी वर्ग के पौधे अरहर, मटर, ऐल्फेल्फा (alfalfa) आदि हैं।


लेग्युमिनोसी कुल के पौधों के तने साधारण अथवा शाखायुक्त तथा अधिकतर सीधे, या लिपटे हुए होते है। पत्तियाँ साधारणतया अनुपर्णी (stipulate), अथवा संयुक्त (compound), होती हैं। अनुपर्णी पत्तियाँ कभी कभी पत्रमय (leafy), जैसे मटर में, अथवा शूलमय (spiny), जैसे बबूल में, होती हैं। आस्ट्रेलिया के बबूल की पत्तियाँ, जो डंठल सदृश दिखलाई पड़ती हैं, पर्णाभवृंत सदृश (phyllode-like) होती है।


पुष्पक्रम (inflorescence) कई फूलों का गुच्छा होता है। फूल या तो एकाकी (solitary) होता है या पुष्पक्रम में लगा रहता है। पुष्पक्रम असीमाक्षी (racemose) अथवा ससीमाक्षी (cymose) होता है। पुष्प प्राय: एकव्याससममित (zygomorphic), द्विलिंगी (bisexual), जायांगाधर (hypogynous), या परिजायांगी (perigynous) होते हैं। बाह्यदलपुंज (calyx) पाँच दलवाला तथा स्वतंत्र, या कभी-कभी थोड़ा जुड़ा, रहता है। पुमंग (androecium) में १० या अधिक पुंकेसर (stamens) होते हैं। जायांग (gynaeceum) एक कोशिकीय तथा असमबाहु (inequilateral) होता है। एकलभित्तीय (parietal) बीजांडासन (placenta) अभ्यक्ष (ventral) होता है, पर अपाक्षीय (dorsally) घूम जाता है। बीजांड (ovules) एक, या अनेक होते हैं। फल या फली गूदेदार तथा बीज अऐल्बूमिनी (exalbuminous) होते हैं।


ऊतको की संरचना

ऊतक विज्ञान या ऊतिकी (Histology) की परिभाषा देते हुए स्टोरर ने लिखा है : ऊतक विज्ञान या सूक्ष्म शरीर (microscopic anatomy) अंगों के भीतर ऊतकों की संरचना तथा उनके विन्यास (arrangement) के अध्ययन को कहते हैं। अँगरेजी का हिस्टोलॉजी शब्द यूनानी भाषा के शब्द हिस्टोस्‌ (histos) तथा लॉजिया (logia) से मिलकर बना है, जिनका अर्थ होता है ऊतकों (tissues) का अध्ययन। अत: ऊतक विज्ञान वह विज्ञान है, जिसके अंतर्गत ऊतकों की सूक्ष्म संरचना तथा उनकी व्यवस्था अथवा विन्यास का अध्ययन किया जाता है। 'ऊतक' शब्द फ्रांसीसी भाषा के शब्द टिशू (tissu) से निकला है, जिसका अर्थ होता है संरचना या बनावट (texture)। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांसीसी शारीर वैज्ञानिक (anatomist) बिशैट (Bichat) ने 18वीं शताब्दी के अंत में शारीर या शरीर-रचना विज्ञान के प्रसंग में किया था। उन्होंने अपनी पुस्तक में लगभग बी प्रकार के ऊतकों का उल्लेख किया है। किंतु, आजकल केवल चार प्रकार के मुख्य ऊतकों को मान्यता प्राप्त है, जिनके नाम हैं : इपीथिलियमी (epithelial), संयोजक (connective), पेशीय (musclar) और तंत्रिकीय ऊतक (nervous tissues)।


परिचय:-कोशिका, कोशिकाओं से ऊतक, ऊतकों से अंग, अंगो से तंत्र बनते हैं।आदिकाल से ही मनुष्य पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों को उनकी आकृति तथा आकार के द्वारा पहचानता रहा है। विज्ञान के विकास के साथ वनस्पतियों तथा जंतुओं के शरीर के भीतर की संरचना जानने की भी जिज्ञासा उत्पन्न होती गई। इसी जिज्ञासा के फलस्वरूप शल्यक्रिया (surgery) का विकास हुआ। चिकित्सा तथा जीववैज्ञानिकों ने पशु और वनस्पतियों की चीरफाड़ करके उनके अंग की संरचनाओं-अंग प्रतयंगों-का अध्ययन आरंभ किया। इसी अध्ययन के फलस्वरूप संपूर्ण शारीर (gross anatomy) की उत्पत्ति हुई। इसी के साथ जब सूक्ष्मदर्शी यंत्रों (microscopes) का विकास हुआ तो जटिल आंतरिक संरचनाएँ भी स्पष्ट होती गई। इस सूक्ष्मदर्शीय यांत्रिक अध्ययन को भौतिकी की संज्ञा प्रदान की गई। अत: ब्लूम तथा फॉसेट के शब्दों में 'ऊतिकी या सूक्ष्मदर्शी शारीर के अंतर्गत शरीर की वह आंतरिक संरचना आती है जो नंगी आँखों से नहीं दिखलाई देती।


समस्त सजीव प्राणियों की संरचनात्मक तथा क्रियात्मक (functional) इकाई कोशिका (cell) होती है। इसी कोशिका के अध्ययन को कोशिका विज्ञान (cytology) कहा जाता है। कोशिकाओं के पुंजों (groups) से ऊतकों और ऊतकों से अंगों की रचना होती हैं। ऊतकों की संरचना का अध्ययन करनेवाले विज्ञान को औतिकी तथा अंगों की संरचना का अध्ययन करनेवाले विज्ञान को शारीर कहते हैं। ऊतिकी तथा कोशिका विज्ञान के अध्ययनों के कारण शरीर के दुर्भेद्य रहस्यों का भेदन होता गया। इन दोनों के संमिलित अध्ययन से ऊतिकी-रोग-विज्ञान (histopathology) का विकास हुआ।


सन्‌ 1932 में नॉल एवं रस्का ने इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी का आविष्कार किया, जिससे कोशिकाओं तथा ऊतकों की जटिलतम सरंचनाओं का स्पष्टीकरण हुआ। इसी के साथ साथ शरीरक्रियाविज्ञान (physiology) का भी विकास होता गया और नए नए रहस्यों का निरावरण संभव हुआ। इस प्रकार इन तीनों विज्ञानों के सम्मिलित प्रयास से जीववैज्ञानिक क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति आई है। ऊतिकी और कोशिकाविज्ञान मुख्य रूप से सूक्ष्म संरचनाओं के आकारकीय स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। किंतु जब से एनिलीन रंजकों (aniline dyes) का अन्वेषण हुआ तब से कोशिकाओं की जटिल संरचनाओं का भी ज्ञान प्राप्त होने लगा है। आज सैंकड़ों प्रकार के रंजकों का प्रयोग करके सूक्ष्म से सूक्ष्म संरचनाओं पर प्रकाश डाला जा रहा है। इस प्रकार, ऊतिकी के क्षेत्र में अब रसायनविज्ञान का भी प्रवेश हो गया है। भाँति भाँति के स्थायीकरों (fixatives) के प्रयोग से रंजकों की रासायनिक प्रतिक्रियाओं का समुचित ज्ञान प्राप्त हो रहा है। जीवद्रव्य (protoplasm), कोशिका द्रव्य (cytoplasm) तथा उनमें और कोशिकाओं के अनेक अंगकों (organelles) की रासायनिक संरचनाओं का ज्ञान अब सर्वसाधारण के लिए सुलभ है। ये अंगक किस प्रकार विशेषीकृत कार्य संपादित करते हैं, यह अब अज्ञात नहीं रह गया। सूक्ष्म संरचनाओं (microscopic structure) की रासायनिक प्रकृति के अध्ययन को ऊतिकीरसायन (histochemistry) या कोशिकारसायन (cytochemistry) कहा जाता है और अब ऊतिकी तथा ऊतिकीरसायन का एक साथ अध्ययन किया जाता है।


हेलेन डीन के मतानुसार इस प्रकार की अध्ययनविधियों की तीन प्रमुख कोटियाँ हैं:


(1) ऊतकों के आंतरिक रासायनिक पदार्थो की, उनके वर्ण की परीक्षा (colour test) की प्रतिक्रियाओं और उनकी प्रकाशिक विशेषताओं (optic characters) की पृष्ठभूमि में पहचान (identification)। ये विधियाँ सामान्यतया गुणात्मक (qualitative) ही होती हैं, संख्यात्मक (quantitative) नहीं। इसका कारण यह है कि इन विधियों से रासायनिक पदार्थों के विस्तार (distribution) का ही पता चलता है, उनकी सांद्रता (concentration) कितनी है, इसका ज्ञात नहीं हो पाता।
(2) लिंगरस्ट्रोम तथा लैंग द्वारा विकसित अनस्थायीकृत (undixed) तथा आलग्न विच्छेदों (frozen sections) की जैवरासायनिक क्रियाओं (biological activities) की माप इस विधि की दूसरी विशेषता है।
(3) अंत में, इस विधि द्वारा यह पता लगाया जाता है कि कोशिकाओं के एकल घटकों (isolated constituents) की क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इस विधि को बेन्स्ले ने विकसित किया था। इसके अंतर्गत कोशिकाओं के केंद्रकों (nuclei), माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) स्रावी कणिकाओं (secietory granules) आदि को पृथक करके उनकी रासायनिक तथा एंजाइमी (enzymatically) परीक्षाएँ की जाती हैं।
बेली की ऊतिकी विषय पर लिखी पुस्तक में ऊतक विज्ञान के साथ ही कोशिका वैज्ञानिक अध्ययन पर भी बल दिया गया है। बेली के मतानुसार, चूँकि ऊतक-विज्ञान संरचना संबंधी अध्ययन (structural science) है और विच्छेदन (disection) द्वारा प्राप्त शरीररचना संबंधी ज्ञान की पूर्ति करता है, अत: इसके शरीर-क्रिया-विज्ञान (physiology) तथा रोगविज्ञान (pathology) से घनिष्ठ संबंध पर भी बल देना आवश्यक है। (बेलीज़ टेक्स्ट बुक ऑव हिस्टोलॉजी, संशोधक विल्फ़ेड एम. कोपेनहावर एवं डोरोथी डी. जॉनसन, विलियम्स ऐंड विल्किन्स कं. बाल्टीमोर, 14वीं आवृत्ति, 1958)। इनके मतानुसार भी ऊतक विज्ञान का आधार कोशिकाशारीर (cell anatomy) अथवा कोशिकाविज्ञान (cytology) ही है।


राम का राष्ट्रवाद उपदेश

गतांक से...


विचार यह चल रहा था कि हम अपने प्रभु का गुणगान गाने वाले बने! अपने प्रभु की निहारिका मानो उसके विज्ञान में रत रहना चाहिए! वह कितनी विशाल ज्ञान-विज्ञान की धाराएं हैं, जिन्हें मानव अपने में धारण करके अंतर्मुखी बन जाता है! तो राम ने कहा कि राजा वह होता है जो अपने विचारों को गोपनीय बना लेता है और गोपनीय जो विषय होते हैं! वही मानव के जीवन का उद्धार करते हैं! इसलिए हम परमपिता परमात्मा की आराधना करते हुए राष्ट्र का पालन करते चले जाएं! राष्ट्र दूसरे के वैभव को संग्रह करने के लिए नहीं है! राष्ट्र को इसलिए निर्धारित किया जाता है कि उसकी प्रतिभा बनी रहे! उसका मानवत्व उसका ॠषित्व ज्यो कर त्यो बना रहे! ऐसी धारणा राजा के हृदय में निहित रहनी चाहिए! तो देखो जब यह वाक्य राजाओं ने श्रवण कर लिया कि बुद्धिमान, बुद्धिजीवी प्राणियों की रक्षा होनी चाहिए! ऐसा जब भगवान राम ने वर्णन किया तो इतने में कुछ और जिज्ञासु आ पहुंचे! उन जिज्ञासुओ ने यह प्रश्न किया कि महाराज आप प्राण के संबंध में तो जानते ही हो! राम ने कहा मैं पुराण के संबंध में इतना नहीं जानता! परंतु देखो तुम मेरे से जानना चाहते हो! मैं इस का प्रयास करता रहूंगा! वह आसन पर शांत मुद्रा में विराजमान हो गए और अपने में यह कहा कि प्राण के संबंध में मैं इतना तो नहीं जानता! परंतु मैं इतना जानता हूं जो गुरुओं के चरणों में विद्यमान हो करके मैंने प्राण की कुछ सूक्ष्म विधा का अध्ययन अवश्य किया है! हमारे मानव शरीर में नाना प्रकार के प्राण अपना क्रियाकलाप कर रहे हैं! यह जो प्राण की प्रतिष्ठा है! उसको जान करके हमें यह निर्णय हो गया कि यह प्राण कहां चला गया! राजा ने कहा भगवन संभूति ब्रह्मवाचम् ब्रहे लोकाम् हिरणयम रथ: देवा:गत: प्रवाहनाण ब्रहे: वाचम ब्रहे अश्वती: मुद्रा' आचार्य कहते हैं कि हम यह और जानना चाहते हैं कि प्राण की प्रतिष्ठा क्या है? राम ने कहा इसको  महर्षि लोमश जो भयंकर वनों में है बहुत अच्छी प्रकार जानते हैं! उनके एक सहपाठी कागभुषडं जी भी है! वह भी प्राण के संबंध में विशेष जानते हैं! ऐसा कहा जाता है कि कुछ समय के पश्चात वे दोनों भी कहीं से विचरण कर के राम के आश्रम में आ पहुंचे! उन्होंने उनसे नाना प्रकार की वार्ताओं को उदबुध कराया! परंतु ऋषि उस वार्ता को हृदय से अच्छी प्रकार जानते थे! तो देखो प्राण अपान की वार्ता चल रही थी! प्राण किसे कहते हैं! अपान किसे कहते हैं? सब भ्रमण करते हुए कागभूषण ऋषि के द्वार पर पहुंचे! ऋषि से कहा कि महाराज यह वाक्य हमसे दूर जा रहा है! कृपया इस पर अपना निर्णय दीजिए! ऋषि ने कहा क्या जानना चाहते हो? उन्होंने कहा प्राण को सखा बनाना चाहते हैं! प्राण के ही रूप में हम प्राण तत्व को जानना चाहते हैं! उन्होंने कहा क्या तुम नहीं जानते कि प्राण सका तो संसार के प्रत्येक आंगन में क्रीड़ा कर रहा है! तुम्हारी वाणी में भी  क्रीड़ा कर रहा है! तुम्हारे शब्दों में देखो अशुद विज्ञान की प्रतिभा का जन्म हो रहा है! तो वहां से कुछ ने गमन किया! कागभूषण जी ने नाना प्रकार के गंभीरता से प्रसन्न होने लगे! उन्होंने कहा प्रभु क्या जानना चाहते हो! हमने कहा संभूति: ब्रहे ब्रह्मा वाच: प्रमाण लोकाम वायु: शरणं व्रही वृचाम् देवो शत्रुत:, भगवान राम ने और ॠषियो  ने अपना निर्णय लिया कि मानव प्राण को अपान में, अपान को समान में, समान को व्यान में, व्यान को उदान में, निहित करता रहता है! इन पांचों का एक तारतम्य में लगा रखा जाता है प्राणो का तारतम्य हीं मानो यह सिद्ध कर रहा है! यह किसी स्थान में परिवर्तनशील होने जा रहे हैं! परंतु इसमें हमें यह सिद्ध हो गया कि यह प्राण जब तक एक दूसरे की आभा में निहित नहीं हो जाते हैं तो यह इंद्रियों का वहां वाचक विषय कहलाया जाता है! जितने प्राण को तुम सखा बना करके उसके साथ भ्रमण करोगे! तो वही अपान प्राण में और प्राण व्यान में और व्यान देवदत्त में इस प्रकार यह प्राणों की प्रतिभा का प्राय: वर्णन आता रहता है कि मैं प्रणायाम करना चाहता हूं!


प्राधिकृत प्रकाशन विवरण

यूनिवर्सल एक्सप्रेस


हिंदी दैनिक


प्राधिकृत प्रकाशन विवरण


October 24, 2019 RNI.No.UPHIN/2014/57254


1. अंक-81 (साल-01)
2. बृहस्पतिवार ,24 अक्टूबर 2019
3. शक-1941,अश्‍विन,कृष्णपक्ष, तिथि- एकादशी, संवत 2076


4. सूर्योदय प्रातः 06:21,सूर्यास्त 05:55
5. न्‍यूनतम तापमान -21 डी.सै.,अधिकतम-30+ डी.सै., हवा की गति धीमी रहेगी।
6. समाचार-पत्र में प्रकाशित समाचारों से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। सभी विवादों का न्‍याय क्षेत्र, गाजियाबाद न्यायालय होगा।
7. स्वामी, प्रकाशक, मुद्रक, संपादक राधेश्याम के द्वारा (डिजीटल सस्‍ंकरण) प्रकाशित।


8.संपादकीय कार्यालय- 263 सरस्वती विहार, लोनी, गाजियाबाद उ.प्र.-201102


9.संपर्क एवं व्यावसायिक कार्यालय-डी-60,100 फुटा रोड बलराम नगर, लोनी,गाजियाबाद उ.प्र.,201102


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डीएम ने विभागीय अधिकारियों के साथ बैठक की

डीएम ने विभागीय अधिकारियों के साथ बैठक की पंकज कपूर  नैनीताल/हल्द्वानी। उच्च न्यायालय उत्तराखंड द्वारा दिए गए निर्देशों के क्रम में नैनीताल ...