रविवार, 20 अक्तूबर 2019

गोल्डन बर्ड (कहानी)

हर साल, एक राजा के सेब के पेड़ को रात के दौरान एक सुनहरा सेब लूट लिया जाता है। वह अपने माली के बेटों को देखने के लिए सेट करता है, और हालांकि पहले दो सो जाते हैं, सबसे छोटा जागता रहता है और देखता है कि चोर एक सुनहरा पक्षी है। वह इसे शूट करने की कोशिश करता है, लेकिन केवल एक पंख मारता है।


पंख इतना मूल्यवान है कि राजा तय करता है कि उसके पास पक्षी होना चाहिए। वह अपने माली के तीन बेटों को भेजता है, एक के बाद एक अनमोल सुनहरे पक्षी को पकड़ने के लिए। बेटों में से प्रत्येक एक बात करने वाले लोमड़ी से मिलता है, जो उन्हें अपनी खोज के लिए सलाह देता है: एक उज्ज्वल रोशनी और मेरी पर एक बुरा सराय चुनने के लिए। पहले दो बेटे सलाह को नजरअंदाज करते हैं और सुखद सराय में अपनी खोज को छोड़ देते हैं।


तीसरा बेटा लोमड़ी की बात मानता है, इसलिए लोमड़ी उसे सलाह देती है कि वह चिड़िया को अपने महल के लकड़ी के पिंजरे में ले जाए जिसमें वह रहता है, बजाय इसके कि वह इसे सुनहरी पिंजरे में रखे। लेकिन वह अवज्ञा करता है, और सुनहरी चिड़िया महल पर कब्जा कर लेती है, जिसके परिणामस्वरूप उसे पकड़ लिया जाता है। उन्हें अपने जीवन को बख्शने की शर्त के रूप में सुनहरे घोड़े के बाद भेजा जाता है। लोमड़ी उसे एक सुनहरी के बजाय चमड़े की काठी का उपयोग करने की सलाह देती है, लेकिन वह फिर से विफल हो जाती है। उसे स्वर्ण महल से राजकुमारी के बाद भेजा जाता है। लोमड़ी उसे सलाह देती है कि वह उसे उसके माता-पिता से विदाई न दे, लेकिन वह अवज्ञा करती है, और राजकुमारी के पिता उसे अपने जीवन की कीमत के रूप में एक पहाड़ी को हटाने का आदेश देते हैं।


लोमड़ी इसे हटा देती है, और फिर, जैसा कि वे बाहर सेट करते हैं, वह राजकुमार को सलाह देता है कि उसने जो कुछ भी जीता है उसे कैसे रखा जाए। यह तब राजकुमार को इसे शूट करने और उसके सिर को काटने के लिए कहता है। जब राजकुमार मना कर देता है, तो यह उसे फांसी का मांस खरीदने और नदियों के किनारे बैठने के खिलाफ चेतावनी देता है।


उसे पता चलता है कि उसके भाई, जो इस बीच पाप कर रहे हैं और पाप कर रहे हैं, उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया जाता है (फांसी पर चढ़ा दिया जाता है) और अपनी आज़ादी खरीदता है। उन्हें पता चलता है कि उसने क्या किया है। जब वह एक नदी के किनारे पर बैठता है, तो वे उसे अंदर धकेल देते हैं। वे चीजों और राजकुमारी को ले जाते हैं और उन्हें अपने पिता के पास ले आते हैं। हालाँकि, पक्षी, घोड़ा और राजकुमारी सभी सबसे छोटे बेटे के लिए दुःखी हैं। लोमड़ी ने राजकुमार को बचाया। जब वह अपने पिता के महल में लौटता है, तो वह भिखारी के कपड़े पहने होता है, चिड़िया, घोड़ा और राजकुमारी सभी उसे उस आदमी के रूप में पहचानते हैं जो उन्हें जीता है, और फिर से हंसमुख हो जाता है। उसके भाइयों को मार डाला जाता है, और वह राजकुमारी से शादी कर लेता है।


अंत में, तीसरे बेटे ने जीव के अनुरोध पर लोमड़ी के सिर और पैरों को काट दिया। लोमड़ी एक आदमी, राजकुमारी के भाई होने का पता चला है।


संपूर्ण विश्व में व्याप्त है मूली

मूली वा मूलक भूमी के अन्दर पैदा होने वाली सब्ज़ी है। वस्तुतः यह एक रूपान्तिरत प्रधान जड़ है जो बीच में मोटी और दोनों सिरों की ओर क्रमशः पतली होती है। मूली पूरे विश्व में उगायी एवं खायी जाती है। मूली की अनेक प्रजातियाँ हैं जो आकार, रंग एवं पैदा होने में लगने वाले समय के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है। कुछ प्रजातियाँ तेल उत्पादन के लिये भी उगायी जाती है।


मूली से घरेलू चिकित्सा 
मूली कच्ची खायें या इस के पत्तों की सब्जी बनाकर खाएं, हर प्रकार से बवासीर में लाभदायक है। गुर्दे की खराबी से यदि पेशाब का बनना बन्द हो जाए तो मूली का रस दो औंस प्रति मात्रा पीने से वह फिर बनने लगता है। मूली खाने से मधुमेह में लाभ होता है। एक कच्ची मूली नित्य प्रातः उठते ही खाते रहने से कुछ दिनों में पीलिया रोग ठीक हो जाता है। गर्मी के प्रभाव से खट्टी डकारें आती हो तो एक कप मूली के रस में मिश्री मिलाकर पीने से लाभ होता है। मासिक धर्म की कमी के कारण लड़कियों के यदि मुहाँसे निकलते हों तो प्रातः पत्तों सहित एक मूली खाने से रक्त शोध हो जाता हैै!


पुरातन फलों में अंजीर

अंजीर मध्यसागरीय क्षेत्र और दक्षिण पश्चिम एशियाई मूल की एक पर्णपाती झाड़ी या एक छोटे पेड़ है जो पाकिस्तान से यूनान तक पाया जाता है। इसकी लंबाई ३-१० फुट तक हो सकती है। अंजीर विश्व के सबसे पुराने फलों मे से एक है। यह फल रसीला और गूदेदार होता है। इसका रंग हल्का पीला, गहरा सुनहरा या गहरा बैंगनी हो सकता है। अंजीर अपने सौंदर्य एवं स्वाद के लिए प्रसिद्ध अंजीर एक स्वादिष्ट, स्वास्थ्यवर्धक और बहु उपयोगी फल है। यह विश्व के ऐसे पुराने फलों में से एक है, जिसकी जानकारी प्राचीन समय में भी मिस्त्र के फैरोह लोगों को थी। आजकल इसकी पैदावार ईरान, मध्य एशिया और अब भूमध्यसागरीय देशों में भी होने लगी है। प्राचीन यूनान में यह फल व्यापारिक दृष्टि से इतना महत्त्वपूर्ण था और इसके निर्यात पर पाबंदी थी। आज विश्व का सबसे पुराना अंजीर का पेड़ सिसली के एक बगीचे में है।[1]


अंजीर का वृक्ष छोटा तथा पर्णपाती (पतझड़ी) प्रकृति का होता है। तुर्किस्तान तथा उत्तरी भारत के बीच का भूखंड इसका उत्पत्ति स्थान माना जाता है। भूमध्यसागरीय तट वाले देश तथा वहाँ की जलवायु में यह अच्छा फलता-फूलता है। निस्संदेह यह आदिकाल के वृक्षों में से एक है और प्राचीन समय के लोग भी इसे खूब पसंद करते थे। ग्रीसवासियों ने इसे कैरिया (एशिया माइनर का एक प्रदेश) से प्राप्त किया; इसलिए इसकी जाति का नाम कैरिका पड़ा। रोमवासी इस वृक्ष को भविष्य की समृद्धि का चिह्न मानकर इसका आदर करते थे। स्पेन, अल्जीरिया, इटली, तुर्की, पुर्तगाल तथा ग्रीस में इसकी खेती व्यावसायिक स्तर पर की जाती है।


नाशपाती के आकार के इस छोटे से फल की अपनी कोई विशेष तेज़ सुगंध नहीं पर यह रसीला और गूदेदार होता है। रंग में यह हल्का पीला, गहरा सुनहरा या गहरा बैंगनी हो सकता है। छिलके के रंग का स्वाद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता पर इसका स्वाद इस बात पर निर्भर करता है कि इसे कहाँ उगाया गया है और यह कितना पका है। इसे पूरा का पूरा छिलका बीज और गूदे सहित खाया जा सकता है। घरेलू उपचार में ऐसा माना जाता है कि स्थाई रूप से रहने वाली कब्ज़ अंजीर खाने से दूर हो जाती है। जुकाम, फेफड़े के रोगों में पाँच अंजीर पानी में उबाल कर छानकर यह पानी सुबह-शाम पीना चाहिए। दमा जिसमे कफ (बलगम) निकलता हो उसमें अंजीर खाना लाभकारी है इससे कफ बाहर आ जाता है। कच्चे अंजीरों को कमरे के तापमान पर रख कर पकाया जा सकता है लेकिन उसमें स्वाभाविक स्वाद नहीं आता। घरेलू उपचारों में अंजीर का विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है।


रंगो का जीवन में अधिकार

रंग हज़ारों वर्षों से हमारे जीवन में अपनी जगह बनाए हुए हैं। यहाँ आजकल कृत्रिम रंगों का उपयोग जोरों पर है वहीं प्रारंभ में लोग प्राकृतिक रंगों को ही उपयोग में लाते थे। उल्लेखनीय है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में सिंधु घाटी सभ्यता की जो चीजें मिलीं उनमें ऐसे बर्तन और मूर्तियाँ भी थीं, जिन पर रंगाई की गई थी। उनमें एक लाल रंग के कपड़े का टुकड़ा भी मिला। विशेषज्ञों के अनुसार इस पर मजीठ या मजिष्‍ठा की जड़ से तैयार किया गया रंग चढ़ाया गया था। हजारों वर्षों तक मजीठ की जड़ और बक्कम वृक्ष की छाल लाल रंग का मुख्‍य स्रोत थी। पीपल, गूलर और पाकड़ जैसे वृक्षों पर लगने वाली लाख की कृमियों की लाह से महाउर रंग तैयार किया जाता था। पीला रंग और सिंदूर हल्दी से प्राप्‍त होता था।


रंगों की तलाश 
क़रीब सौ साल पहले पश्चिम में हुई औद्योगिक क्रांति के फलस्‍वरूप कपड़ा उद्योग का तेजी से विकास हुआ। रंगों की खपत बढ़ी। प्राकृतिक रंग सीमित मात्रा में उपलब्ध थे इसलिए बढ़ी हुई मांग की पूर्ति प्राकृतिक रंगों से संभव नहीं थी। ऐसी स्थिति में कृत्रिम रंगों की तलाश आरंभ हुई। उन्हीं दिनों रॉयल कॉलेज ऑफ़ केमिस्ट्री, लंदन में विलियम पार्कीसन एनीलीन से मलेरिया की दवा कुनैन बनाने में जुटे थे। तमाम प्रयोग के बाद भी कुनैन तो नहीं बन पायी, लेकिन बैंगनी रंग ज़रूर बन गया। महज संयोगवश 1856 में तैयार हुए इस कृत्रिम रंग को मोव कहा गया। आगे चलकर 1860 में रानी रंग, 1862 में एनलोन नीला और एनलोन काला, 1865 में बिस्माई भूरा, 1880 में सूती काला जैसे रासायनिक रंग अस्तित्त्व में आ चुके थे। शुरू में यह रंग तारकोल से तैयार किए जाते थे। बाद में इनका निर्माण कई अन्य रासायनिक पदार्थों के सहयोग से होने लगा। जर्मन रसायनशास्त्री एडोल्फ फोन ने 1865 में कृत्रिम नील के विकास का कार्य अपने हाथ में लिया। कई असफलताओं और लंबी मेहनत के बाद 1882 में वे नील की संरचना निर्धारित कर सके। इसके अगले वर्ष रासायनिक नील भी बनने लगा। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए बइयर साहब को 1905 का नोबेल पुरस्कार भी प्राप्‍त हुआ था।


मुंबई रंग का काम करने वाली कामराजजी नामक फर्म ने सबसे पहले 1867 में रानी रंग (मजेंटा) का आयात किया था। 1872 में जर्मन रंग विक्रेताओं का एक दल एलिजिरिन नामक रंग लेकर यहाँ आया था। इन लोगों ने भारतीय रंगरेंजों के बीच अपना रंग चलाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए। आरंभ में उन्होंने नमूने के रूप में अपने रंग मुफ़्त बांटे। बाद में अच्छा ख़ासा ब्याज वसूला। वनस्पति रंगों के मुक़ाबले रासायनिक रंग काफ़ी सस्ते थे। इनमें तात्कालिक चमक-दमक भी खूब थी। यह आसानी से उपलब्ध भी हो जाते थे। इसलिए हमारी प्राकृतिक रंगों की परंपरा में यह रंग आसानी से क़ब्ज़ा जमाने में क़ामयाब हो गए।


आदि-अनंत संगीत का इतिहास

प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत की समृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। ऐसा जान पड़ता है कि भारत में भरत के समय तक गान को पहले केवल गीत कहते थे। वाद्य में जहाँ गीत नहीं होता था, केवल दाड़ा, दिड़दिड़ जैसे शुष्क अक्षर होते थे, वहाँ उस निर्गीत या बहिर्गीत कहते थे और नृत्त अथवा नृत्य की एक अलग कला थी। किंतु धीरे धीरे गान, वाद्य और नृत्य तीनों का "संगीत" में अंतर्भाव हो गया - गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगतमुच्यते।


भारत से बाहर अन्य देशों में केवल गीत और वाद्य को संगीत में गिनते हैं; नृत्य को एक भिन्न कला मानते हैं। भारत में भी नृत्य को संगीत में केवल इसलिए गिन लिया गया कि उसके साथ बराबर गीत या वाद्य अथवा दोनों रहते हैं। हम ऊपर कह चुके हैं कि स्वर और लय की कला को संगीत कहते हैं। स्वर और लय गीत और वाद्य दोनों में मिलते हैं, किंतु नृत्य में लय मात्र है, स्वर नहीं। हम संगीत के अंतर्गत केवल गीत और वाद्य की चर्चा करेंगे, क्योंकि संगीत केवल इसी अर्थ में अन्य देशों में भी व्यवहृत होता है।


भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता।


भारतीय संगीत का आदि रूप वेदों में मिलता है। वेद के काल के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है, किंतु उसका काल ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व था - इसपर प्राय: सभी विद्वान् सहमत है। इसलिए भारतीय संगीत का इतिहास कम से कम 4000 वर्ष प्राचीन है।


वेदों में वाण, वीणा और कर्करि इत्यादि तंतु वाद्यों का उल्लेख मिलता है। अवनद्ध वाद्यों में दुदुंभि, गर्गर इत्यादि का, घनवाद्यों में आघाट या आघाटि और सुषिर वाद्यों में बाकुर, नाडी, तूणव, शंख इत्यादि का उल्लेख है। यजुर्वेद में 30वें कांड के 19वें और 20वें मंत्र में कई वाद्य बजानेवालों का उल्लेख है जिससे प्रतीत होता है कि उस समय तक कई प्रकार के वाद्यवादन का व्यवसाय हो चला था।


संसार भर में सबसे प्राचीन संगीत सामवेद में मिलता है। उस समय "स्वर" को "यम" कहते थे। साम का संगीत से इतना घनिष्ठ संबंध था कि साम को स्वर का पर्याय समझने लग गए थे। छांदोग्योपनिषद् में यह बात प्रश्नोत्तर के रूप में स्पष्ट की गई है। "का साम्नो गतिरिति? स्वर इति होवाच" (छा. उ. 1। 8। 4)। (प्रश्न "साम की गति क्या है?" उत्तर "स्वर"। साम का "स्व" अपनापन "स्वर" है। "तस्य हैतस्य साम्नो य: स्वं वेद, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एव स्वम्" (बृ. उ. 1। 3। 25) अर्थात् जो साम के स्वर को जानता है उसे "स्व" प्राप्त होता है। साम का "स्व" स्वर ही है।


वैदिक काल से प्रारम्भ भारतीय संगीत की परम्परा निरन्तर फलती-फूलती और समृद्ध होती रही। इस पर सैकड़ों ग्रन्थ लिखे गये।


महर्षि वशिष्ठ का राष्ट्रवाद उपदेश

गतांक से...
 मेरे प्यारे मैं तुम्हें विशेष चर्चा प्रकट करने नहीं आया हूं! मैं व्याख्याता नहीं हूं! मैं तो सूक्ष्म सा परिचय देने चलाता हूं कि गुरु शिष्यों का इस प्रकार का संवाद रहा है! उस संवाद का परिणाम यह होता है कि वह राष्ट्र को नहीं चाहते, वह केवल कर्तव्य वाद को चाहते हैं! जो कर्तव्य वादी होते हैं वही तो संसार को उन्नत बनाते हैं! मुनिवर, हम अपने में अपनेपन को जानते हुए और अपनी इंद्री वर्णस्सुतम्, अपनी इंद्रियों के विषयों को जानते हुए! इस सागर से हृदय में प्रवेश होते हुए और वही हृदय का मिलान परमात्मा के हृदय से आह्वान होने से प्राप्त होता है! आज का विचार यह कह रहा है कि हम परमपिता परमात्मा की आराधना करते हुए! देव की महिमा का गुणगान गाते हुए इस संसार सागर से पार हो जाए! क्योंकि राष्ट्रवाद अपने में महान-पवित्रत्तव कहलाता है आज का वाक्य उच्चारण करने का अभिप्राय यह है कि राजा के राष्ट्र में विज्ञान भी इतना उधरवा में होना चाहिए! जिस विज्ञान को जानकर के संसार सागर से पार हो जाए! मेरे प्यारे विज्ञान एक नहीं अपने पूर्वजों का दर्शन करना है! विज्ञान के माध्यम से ही राष्ट्र की रक्षा करनी है! विज्ञान के माध्यम से ही अपनी क्रियाकलापों में तत्पर रहना है! विज्ञान के माध्यम से ही नाना प्रकार के यंत्रों का निर्माण करते हुए वह नाना प्रकार के लोक लोकांतरो का यात्री बन जाता है! यह है बेटा आज का वाक्य अब समय मिलेगा तो मैं तुम्हें शेष चर्चाएं कल प्रकट करूंगा! आज का वाक्य समाप्त होता है! अब वेदों का पठन-पाठन होगा!


प्राधिकृत प्रकाशन विवरण

यूनिवर्सल एक्सप्रेस


हिंदी दैनिक


प्राधिकृत प्रकाशन विवरण


October 21, 2019 RNI.No.UPHIN/2014/57254


1. अंक-78 (साल-01)
2. सोमवार ,21 अक्टूबर 2019
3. शक-1941,अश्‍विन,कृष्णपक्ष, तिथि- अष्टमी, संवत 2076


4. सूर्योदय प्रातः 06:18,सूर्यास्त 06:00
5. न्‍यूनतम तापमान -20 डी.सै.,अधिकतम-30+ डी.सै., हवा की गति धीमी रहेगी।
6. समाचार-पत्र में प्रकाशित समाचारों से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। सभी विवादों का न्‍याय क्षेत्र, गाजियाबाद न्यायालय होगा।
7. स्वामी, प्रकाशक, मुद्रक, संपादक राधेश्याम के द्वारा (डिजीटल सस्‍ंकरण) प्रकाशित।


8.संपादकीय कार्यालय- 263 सरस्वती विहार, लोनी, गाजियाबाद उ.प्र.-201102


9.संपर्क एवं व्यावसायिक कार्यालय-डी-60,100 फुटा रोड बलराम नगर, लोनी,गाजियाबाद उ.प्र.,201102


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यूपी: गर्मी के चलते स्कूलों का समय बदला

यूपी: गर्मी के चलते स्कूलों का समय बदला  संदीप मिश्र  लखनऊ। यूपी में गर्मी के चलते स्कूलों का समय बदल गया है। कक्षा एक से लेकर आठ तक के स्कू...