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बुधवार, 5 जनवरी 2022

शैलाब की बूंद 'संपादकीय'

शैलाब की बूंद   'संपादकीय'
ससवार गिरा करते है जंग-ए-मैदान में,
वो क्या गिरेंगे जो पहले ही घुटनों के बल हैं।
एक बूंद शैलाब लाने के लिए प्रयाप्त होती हैं। यह एक फिर प्रमाणित हुआ, आपने यह सब प्रतीत किया, आप सभी इसके साक्षी भी हैं। भारत सरकार की किसान विरोधी नीति के विरुद्ध पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश का किसान समुदाय लामबंद हो गया। 
दमनकारी नीतियों के कारण किसान नेता और पश्चिम उत्तर प्रदेश के धरनारत किसानों का नेतृत्व करने वाले राकेश टिकैत पर ज्यादती के बाद पीडा की बूंद आंखों से बह गई। किसान आंदोलन को रोकने के लिए पुलिस और कानून प्रवर्तन के द्वारा वाटर कैनन व आसुगैस का उपयोग किया गया। जिसके कारण जन आक्रोश बढ गया और आंदोलन देखते ही देखते क्रांति का रुप धारण करने लगा। 26 नवंबर 2021 को राष्ट्रव्यापी आंदोलन में मिडिया रिपोर्ट के अनुसार 25 करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया। कई लाख लोग राष्ट्रीय राजधानी की सीमा पर एकत्रित हुए। पांच सौ से अधिक संगठन इस आंदोलन मे शरीक थे।
भारत सरकार दमनकारी नीतियों का पर्दापण स्पष्ट तो हुआ, साथ में धरनारत किसानों का शैलाब आ गया। शैलाब के बढते वेग की गति से उदगम भावी परिणाम के मात्र अनुमान से केंद्र सरकार की नींव हिल गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व की देखरेख करनेवाले प्रधानमंत्री ने अपने बनाए गये कानून को वाफिस करने की घोषणा यदि मात्र औपचारिकता ही है, तो भी सरकार घुटनों के बल आ गई।
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव निकट है, किसान एवं पिछड़ा वर्ग भाजपा से अलगाव की तरफ बढ़ रहा हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।
राधेश्याम  'निर्भयपुत्र'

सोमवार, 20 दिसंबर 2021

जिंदगी से बेहतर हैं कफन 'संपादकीय'

जिंदगी से बेहतर हैं कफ़न     'संपादकीय'

बेहतर है मौंत फिर भी कि देती तो है कफ़न,
अगर ज़िन्दगी का बस चले, कपड़े उतार लेंं।

देश के बदलते सियासी परिवेश में जिस विशेष ब्यवस्था का संचालन हुआ। जो भी कुछ देश को मिला, वह आजकल हास्यस्पद बनकर दुनिया के फलक पर चर्चित हो गया है। एक साल तक चलता रहा किसान आन्दोलन। जगह-जगह होता रहा धरना-प्रदर्शन। मगर, सरकार झुकने को, किसानों की बात सुनने को तैयार नहीं थी। तुगलकी फरमान जारी करने वाली सरकार आखिर चारों खाने चित्त हो गयी ? अपने ही जाल में फंस कर बुरी तरह फंस गयी ? हुआ वहीं, जो अन्नदाता चाह‌ रहे थे, सरकार को अपनी जीद्द छोड़नी पडी। इस मुद्दे पर सरकार की पूरे देश में किरकीरी भी हुई। कश्मीर में आर्टिकल 370 हटने के क़रीब ढाई साल बाद भी कश्मीर घाटी मे बाहरी लोगों ने एक भी घर नहीं खरीदा और न बनाया। एक भी प्लाट नहीं खरीदा, कश्मीरी पंडितों की भी नहीं हुयी घर वापसी फिर भी बटोर रहे हैं वाहवाही। 
56 इंच सीना वाले साहब शाबाश। नोटबंदी से सरकार आतंकवादियों की कमर तोड़ देने के दावे कर रही थी। लेकिन आतंकवाद नहीं रूका, इतना जरुर हुआ कि पत्थरबाजों का खात्मा हो गया। जीएसटी से देश और व्यापारियों की स्थिति सुदृढ़ होने के दावे बालू की दीवार सरीखे धाराशाही हो गये। 
तबाही में देश के व्यापारी और ब्यवसाई हो गये। आस्था के प्रवाह में मोदी की चाह मेअर्थव्यवथा चौपट हो गयी। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री तथा वित्तमंत्री आपके दावों का क्या हुआ, न खातों में पैसा आया, न काला धन वापस आया, न देश की तकदीर बदली, न सीमा पर सैनिकों की शहादत रुकी। ढपोरशंखी सरकार के संचालकों ने जिस माहौल का निर्माण किया। उसमें उसमें केवल बैमनश्यता के पौधे हर जगह लहलहाने लगे हैं। झूठ-फरेब के सहारे जनता के दुलारे बनने का सपना अब धरातल पर कदम ताल ठोकने लगा है। ऑक्सीजन और दवा के अभाव में हजरो लोग तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिए। गोमती, सरयू और गंगा के किनारे हजारों शव बगैर अंतिम क्रिया, बिना कफ़न दफन हो गये ? धारा में बहा दिए गए। दहशत के आलम मे परिजन दहाड़े मार कर रोते रहे, अपनों को आंखों के सामने खोते रहे। हजारों परिवार अपने परिजनों को तलासते रह गये, किसी का पता तक नहीं चल सका।
राष्ट्रवादी लुटेरे तब भी मौका-ए-कब्रिस्तान और श्मशान से दूरी बनाते रहे। सियासत के सिपाही घरों में दुबके पड़े थे। गरीबों के मसीहा बनने वाले लापता थे। भला हो उस स्वाभिमानी पुलिस की वर्दी का, जो आखरी समय का साथी बनी। शवों को कन्धा देने से लेकर भूखे मरते लोगों के घरों में खाना देने तक का काम जान जोखिम में डालकर बेखौफ करती रही। सियासत के शागिर्द इस दर्द की दोपहरी में बिलुप्त हो गये। 
आखिर क्यो? 
ये तमाम सवाल अब यक्ष प्रश्न बनकर लोगों के जहन में है। महंगाई, बेरोजगारी, बेकारी और महामारी ने सामाजिक संतुलन को विखन्डित कर दिया है। हर आदमी सिसक रहा है, शिक्षा-दिक्षा व परीक्षा इस सरकार में सदियों के रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया है। झूठ की बुनियाद पर नव बिहान में तरक्की की इबारत तहरीर करने वाली मक्कार‌ सरकार। हर जगह फिजाओं में तैर रहे हैं दुख, हर आदमी मर्माहत है। आहत है, पेट्रोल से कमाए आठ लाख करोड़। बैंकों से कॉर्पोरेट के लोन राइट ऑफ कर गवाये छ: लाख करोड़। लगातार टैक्स बढ़ाकर लोगों के सर पर कर्जे चढ़ा कर भी हाथ तंग है। यह जान-सुनकर देश वासी दंग है। सब कुछ बिक रहा है, रेल बिका, भेल बिका, खेल बिका, मंहगा तेल बिका, अब जेल बिका, लाल किला बिका, कल कारखाने और मयखाने बिके। खेती किसानी के पैमाने बिके। अब सार्वजनिक बैंकों पर शनि की वक्र दृष्टी कायम है। अडानी व अम्बानी की दोस्ती का सवाल है ?
उनके सामने हर नाजायज काम जायज है। बस पूरे देश में यही बढ़ रहा बवाल है ? गजब साहब दोस्ती की मिसाल भी कमाल है। इस सदी में इतिहास रच दिया। दोस्तों का दामन इतना भर दिया है कि रस्क होने लगा है। काश कोई एक दोस्त अपना भी ऐसा होता। यह हर उद्योगपति के जहन में उठ रहा सवाल है ? देश के परिवेश में जिस तरह‌ के सियासी वातावरण का निवेश लगातार किया जा रहा है। निश्चित रुप से छांव के बाद धूप वाली बात को चरितार्थ कर रहा है। यह तो शास्वत सत्य है, बदलाव होना है। फिर जो बीज बोया है, उसे ही काटना है।
जो गड्ढा खोद रहे हो, उसे भी पाटना है।
इतिहास गवाह है, वजूद सबका मिटा है। 
चाहे तानाशाह हो या सत्यवादी शहंशाह हो। दुनिया उनके कर्मो को याद करती है। मगर हद से आगे जाकर केवल पश्चाताप ही हासिल होता है। जिसने भी सर्वे भवन्तु: सुखिन; सर्वे भवन्तु निरामय का तिरस्कार किया। उसका इतिहास भी विकृत हुआ है। बसुधैव कुटुंबकम् का सूत्र हमेशा इस समाज को प्रतिबिंबित करता रहा है। वर्तमान में हिन्दुस्तान की सियासी जमीन में दल दर-दर भटक रहा है। जिसका परिणाम आने वाले कल में काफी घातक हो सकता है। 'सबका साथ सबका विकास' तो कहीं नहीं दिखता। अब फिर नये-नये नारे बनाने का क्या फायदा ?  सर्वनाश का इतिहास इस सदी में हमेशा चटकारे लेकर पढा जायेगा।
साये की तरह बढ़ न कभी, कद से ज्यादा।
थक जायेगा अगर भागेगा, हद से ज्यादा।
जगदीश सिंह      

बुधवार, 21 जुलाई 2021

जिस देश में गंगा बहती हैं 'संपादकीय'

जिस देश में गंगा बहती हैं    'संपादकीय'   
हर एक मन्दिर में दिया भी जले, मस्जिद में अजान भी हो। 
अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतिजाज भी हो। 
हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं।
हुकूमतें जो बदलता है, वो समाज भी हो।
बदल रहे हैं आज आदमी दरिंदों में।
मरज़ पुराना है, इस का नया इलाज भी हो।

सियासी बाजार में भाईचारे का व्यापार धड़ल्ले से हो रहा है। आज के दौर में विश्वासघात का प्रचलन आम हो गया है। अब न आस्था की प्रवाह है, न ब्यवस्था में चाह‌ है। जहां मतलब की कश्ती स्वार्थ के भावार्थ से बोझिल हो रही हो, चाहत को आहत किये बगैर सही सलामत धन लक्ष्मी का स्वागत हो रहा हो। ऐसे मौके की तलाश में हताश मन से ही सही सियासतदार मजेदार‌ कारनामो के साथ प्रतिघात का अवसर तलाश रहे हैं। भारत वर्ष में सभी धर्म-जाति के लोग‌ सहर्ष‌ रह रहे हैं। लेकिन उत्कर्ष के चरम पर पहुंच कर भी देश का परिवेष‌ कुछ सियासी जाहीलो के चलते विषाक्त हो गया। एक तरफ सनातन धर्मावलम्बी‌ अपने आराध्य की सेवा में सुबह-शाम‌ इन्सानियत को जिन्दा रखने के लिये, मानव समाज में समदर्शिता का पैगाम देते हैं। वहीं, हर सुबह‌ शाम मस्जिदों में अजान के बाद समूचे हिन्दुस्तान में खुदा की इबादत के साथ ही‌ समाज में पारदर्शिता कायम रखने के साथ ही मानवता को बचाए रखने का‌ मुसलमान एहतेराम करते हैं।
बसुधैव कुटुंबकम् के आवरण में सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा का तराना गाने वालो के बीच जहरीला स्पीच सियासत के शानिध्य में तिफरका पैदा करने वाली तकरीर के साथ ही ऊंच-नीच, जाति-पाति व धर्म-मजहब‌ की घृणित मानसिकता से‌ दुरभिसन्धि का दुष्प्रचार सामाजिक ढांचे को हिला रहा है।भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को हिला रहा है। अब त्योहारों में भाई चारगी देखने को नहीं मिलती। बस‌ दिल मिले न मिले हाथ‌‌ मिलाते रहीये, वाली बात रह गयी है। धर्म मजहब का जहर गांव हो या शहर सबको गिरफ्त में ले रहा है। हर एक आदमी दुसरे को सन्देह की नजर से देख रहा है। ईद-बकरीद, दशहरा-दीपावली ऐसा त्योहार था कि इनका नाम आते ही समरसता, समदर्शिता, समानता ,मानवता सहृदयता के साथ ही आपसी भाईचारे का एहसास होता था। 
मगर इधर के कुछ सालों में सारे त्योहार विलोपन की तरफ बढ़ चले है। न कोई उत्साह, न एक दुसरे से मिलने की चाह। बस उन्माद भरा अथाह जहरीला जज़्बात सबके साथ चल रहा है। परिवर्तन का संकीर्तन जिस तरह शुरु‌ है यही हालात रहे तो एक अजीब‌ माहौल कायम होगा। हर दिल वैमनश्यता की जहरीली सूई से बुझा होगा। सियासत की जहरीली आंधी ने इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब को मटियामेट कर दिया। भाईचारगी का विलोंपन कर दुश्मनी को कारपोरेट कर दिया।एक देश, अनेक भाषा अनेक भेष। सबका एक साथ रहन-सहन एक साथ निवेश। लेकिन आज पूरी तरह बदल गया है परिवेश। सियासत की करामाती कुर्सी के लिये जिस फुर्ती से‌ बदलाव की ईबारत तहरीर हो रही है। वह आने वाले कल के लिये शुभ संकेत नहीं है ?
समय का तेवर रोज बदल रहा है। कहीं महामारी तो कहीं बिमारी कहीं बाढ़ और  बारिश। तो कहीं बर्फबारी से तबाही मची हुयी है। मानवता का अस्तित्व खतरे में है तब भी लोग समझदारी की चादर फेंककर, वफादारी को दरकिनार कर, खुद की झूठी तरफदारी में लगे हुये है। इन्सानियत‌ ठोकर खा रही है। कदम-कदम पर धोखे के कारोबार उफान पर है। आपसी कलह में बढ़ती गद्दारो की फौज से खतरा हिन्दुस्तान पर है।सावधान रहें सतर्क रहें। याद रखे हम उस देश के वासी‌ है जिस देश में गंगा बहती है। 
जगदीश सिंह         

शनिवार, 17 जुलाई 2021

हलक़ में अटकी जान 'संपादकीय'

हलक़ में अटकी जान   'संपादकीय'
फांकों से तंग आकर, अंगूठी भी बेंच दी।
गुरबत का सांप तेरी, निशानी निगल गया।
अवसाद और उन्माद से ग्रसित आदमी नव सृजित वर्तमान व्यवस्था को आत्मसात नहीं कर पा रहा है। मंहगाई की मार से बेहाल आम आदमी‌ फटेहाल जीवन के हर पल को बिकल भाव जी रहा हैं। जिन्दगी जीने के संसाधन के अभाव में तडपन भरे आलम में सिसक‌-सिसक कर जीवन जी रहा है। जान लेवा बीमारी ,महामारी, भ्रष्टाचार में डूबी व्यवस्था, सरकारी तंत्र, इस भयानक महंगाई में भी खुलेआम काला बाजारी जारी हैं। आम आदमी पर मुसीबत का पहाड़ टूटा है, हलक़ में जान अटकी हैं। 
गुंडा-माफिया पनाह मांग लिये तो सियासतदार ही वसूल रहे है रंगदारी। जहर होती जिन्दगी का शकून गायब‌ होता जा रहा है।पशुओं की बात छोड़ दी जाये तो कौन ऐसा नहीं जो आज के परिवेश में नहीं रोता है? आजादी के सत्तर साल बाद मिसाल बनकर सत्ता पर काबिज सरकार का कारनामा‌ जहां अयोध्या मे रामनामा‌ का परचम बुलन्द किया है। वहीं, महंगाई का रिकार्ड भी तोड़ा है। अपराध, उन्माद, सड़कों पर होता प्रदर्शन पर काबू कर नये इतिहास की इबारत तस्कीद की है। वहीं, अपराधियो ,माफियाओं, समाज विरोधियों को औकात बताकर उनको मंजिल तक पहुंचाने का काम भी किया है। दहशत की दहलीज पर सर पटकने को मजबूर उत्तर प्रदेश का आवरण योगी सरकार के आने के बाद पूरी तरह बदल गया। गुंडा-मवाली, बवाली-माफिया डॉन समाज के शैतान, इन सबकी पलक झपकते‌ ही सरकार ‌‍ने कर दिया काम तमाम।
बाहुबलियो के कुनबों मे, खलबली है उनके घरों के ईर्द-गिर्द मौत चक्कर काट रही है। मौका पाते ही झपटृटा मार रही है। विकास दूबे से शुरु होकर अतीक  तक सटीक निशाना लगाने वाली‌ योगी सरकार काल बनकर मुस्करा रही है। दहशत में हैं माफिया मुख्तार आन्सारी।बाहुबली अतीक गुजरात में गुमनाम हो रहे हैं। तो यूपी में मुख्तार का कभी‌ जमाना था कि  सिवान में शैतान की बादशाहत थी शहाबुद्दीन के नाम से मशहूर था बिहार। जेल के खेल में सब कुछ खत्म हो गया दहशत में हैं परिवार। योगी ने सरकार उत्तर प्रदेश को निरोगी बनाने का संकल्प लें रखा है। अपराधियो के द्वारा समाज में दहशत की जो खेती की जा रही थी। उस‌ पर विराम लग रहा है। फोकस अपराधियो के काकस‌ पर है। सच के धरातल पर समतल होती व्यवस्था में अब आस्था का सवाल, मलाल बन कर टीस‌ रहा है। आम आदमी‌ को रोजगार चाहीये। रोटी, कपड़ा और मकान चाहीये। जिन्दगी के हर पल को जीने के लिये मुस्कराता हिन्दुस्तान चाहीये। आज का दौर  तबाही लिये गुजर रहा है। जीवन को सुरक्षित रखने का हर संसाधन  अभाव ग्रस्त‌ है। हर आदमी हो चुका पश्त है। फिर भी सरकार मस्त है। करोना के कहर ने गांव और शहर को तबाह कर दिया। मठ-मन्दिर‌, करबला‌ हो या मस्जिद। अनाथालय हो या बिद्यालय, ईदगाह हो या शिवालय। हर जगह कोरोना का खौफ हैं। इन्सान की सोच से निर्मित ये सारे धार्मिक संसाधन किसी काम नहीं आये कोरोना ने सबको आघात पहुंचाया है। अभी खुलकर सांस भी नहीं ले पायें कि तीसरी बार ललकार बांधे कोरोना सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा का तराना गाते चला आ रहा है। विदेशी लुटेरों की नमी जनरेशन में चाइना से चलकर भारत तक आने वाला कोरोना सिकन्दर की तरह बार-बार हमला कर रहा है। आदमी दहशत में इस कदर भयभीत हैं कि जीने को ही विकास मान लिया है। किसी तरह बची रहे‌ जान, चाहे कोई बने बादशाहे हिन्दुस्तान ? उलझी-उलझी जीवन की डोर लगातार उलझती जा रही है। अब तो जीवन ज्योति की टीम-टीमाती रोशनी भी घटती जा रही है। कल क्या हो कौन जाने ? फिलहाल सावधान रहें, सतर्क रहे।
होइहे सोई जो राम रचित राखा,
का करि तर्क बढावहि शाखा ?
जगदीश सिंह

शनिवार, 19 जून 2021

मौत का भंवर 'संपादकीय'

मौत का भंवर     'संपादकीय'   
दुनिया के सभी राष्ट्रों में दूरदराज व दुर्गम स्थानों पर निवास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति कोविड-19 कोरोना वायरस से पूरी तरह परिचित हो गया है। बल्कि यूं कहिए कि कई देशों में तो वायरस ने 'मौत' का कहर ढ़हाने का काम किया है। महामारी से पूरी दुनिया विचलित भी है और पीड़ित भी है। यदि समय रहते टीकाकरण किया गया तो काफी लोगों को बचाया जा सकता है। लेकिन कई राष्ट्रों में टीकाकरण की लचर व्यवस्था के कारण परिणाम को प्राप्त करना दुर्लभ है। जिसमें भारत को विशेष स्थान पर रखा जाए तो किसी प्रकार की कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन प्रतिदिन नई-नई चेतावनी, जानकारी व योजनाओं के विवरण बताता रहता है। लेकिन भारत में इस पर ध्यान कम दिया जाता है। केवल विकसित राष्ट्रों की कार्यशैली की असली नकल करने का प्रयास किया जाता है। सरकार के द्वारा जारी मौतों के प्रमाणित आंकड़े और जमीनी हकीकत में एक बड़े अनुपात का अंतर है। पक्ष-विपक्ष एक दूसरे पर मौतों के आंकड़ों की धांधली के आरोप भी लगा रहे हैं। इससे केवल यह सिद्ध होता है कि राजनीतिक गलियारे में चमक बनी रहे। परंतु इस प्रकार जनता को भ्रमित करने के पीछे सरकार की क्या मंशा है ? झूठ की बैसाखी के सहारे साख को नहीं बचाया जा सकता है। 
दुनिया भर के वैज्ञानिकों के कयासों के हिसाब से तीसरी लहर भी दूसरी लहर की तरह प्रभावशाली हो सकती है। यदि इन दावों पर विश्वास कर लिया जाए तो भारत की निम्न आय वाला वर्ग, जो लोग डिजिटलाइजेशन की मुख्यधारा से पीछे छूट गए हैं। ऐसे वर्ग अथवा समुदाय को तीसरी लहर सर्वाधिक प्रभावित करेगी। आएंं दिन देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महामारी को लेकर संदेश जारी करते रहते हैं। ज्यादातर अखबार और टीवी चैनलों पर ऐसे संदेश आसानी से मिल जाएंगे। महामारी से 'स्वयं को रक्षित करें और दूसरों की सुरक्षा भी निर्धारित करें'। अत्यधिक आवश्यक होने पर ही घर से बाहर निकले। परंतु यदि इसके विपरीत हम विचार करें और वैज्ञानिकों के अनुसार मान लिया जाए कि हवा में ही वायरस है। तब उन्हें घर पर कौन-कैसे बचाएगा ? प्राथमिकता के आधार पर ऐसे वर्ग को टीकाकरण में सम्मलित ना करना सरकार की बड़ी चूक है। 
सक्षम आदमी हजारों रुपए खर्च कर टीका लगवा सकता है। लेकिन अक्षम के लिए तो यह 'मौत के भंवर' के जैसा है। नागरिकों को भी किसी भी व्यवस्था पर पूर्ण रूप से निर्भर नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक नागरिक को निर्णायक स्थिति की संरचना का प्रयास करते रहना चाहिए। 
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

रविवार, 30 मई 2021

झूठा आईना 'संपादकीय'

झूठा आईना   'संपादकीय' 

हे मानव- कमर कस, कर नवयुग की तैयारी,
मद में नरेश यदि, समस्याएं आए प्रलयंकारी।
विश्व में सूचना प्रौद्योगिकी एवं तकनीकी परिवर्तन के साथ-साथ पत्रकारिता में बड़े परिवर्तन और बहुआयामी उपयोग किए गए हैं। डिजिटल पत्रकारिता में पहुंच और प्रभाव का दायरा विस्तृत हुआ हैं। परंतु इसके विपरीत स्वच्छंद 'लेखन और आय' दोनों बड़े स्तर पर प्रभावित हुए हैं। गूगल एवं सहयोगी-साझेदार संस्थाओं के द्वारा इसका संपूर्ण लाभ लिया गया है। डिजिटलाइजेशन में ज्यादातर व्यवस्था और संस्थाएं स्थिरता पाने में लगभग सफल रही है। यदि सही मायने में आकलन किया जाए तो विकसित राष्ट्र ही इसका रचनात्मक उपयोग कर रहे हैं। विकासशील, मुख्यधारा से पिछड़े और अधिक पिछड़े राष्ट्रों को डिजिटलाइजेशन का भारी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। 

सूचनाओं का सीधा एवं सार्वभौमिक प्रसारण पराधीनता के कारण सीमित और अप्रत्यक्ष स्थिति में चला गया है। जिस ऐप पर सूचना प्रसारित की जा रही है। स्पष्ट तौर पर वह पूरी तरह नियंत्रित होता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सूचनाओं का प्रचार-प्रसार का क्षेत्रियकरण और वर्गीकरण अथवा निजीकरण किया जा रहा है। डिजिटलाइजेशन की पक्षकार केंद्रीय सरकार संभवतः अब इसके दुष्प्रभाव से सचेत हो गई है। प्रचार और प्रसार का प्रतिघात और अनियंत्रित प्रसारण का दुष्प्रभाव समझने की लालसा भी बढ़ गई है। सरकार की इस पहल को अपना बचाव समझना गलत नहीं होगा। किंतु सरकार पत्रकारिता को सीमित करने का लगातार प्रयास करती आ रही है। पंजीकृत समाचार-पत्रों के संरक्षण और डिजिटलाइजेशन के प्रति सहयोग का भारी अभाव देखा गया है। जिसके कारण कई समाचार-पत्रों का प्रकाशन पूरी तरह बंद हो गया है या बहुत सीमित हो गया है। इस प्रकार की कई समस्याएं पंजीकृत समाचार-पत्रों के सामने एक दीवार बनकर खड़ी हो गई है। 

इसका कारण सरकार का असमान दृष्टिकोण और अभावग्रस्त नीति है। असमानता की पक्षकार सरकार को उसी की नीति का शिकार भी बनाया गया है। सूचना एवं प्रौद्योगिक विधेयक में संशोधन की काफी गुंजाइश थी और बाकी भी रहेगी। सरकार की चाटुकारिता करने वाले कुछ लोगों ने पत्रकारिता को इंगित किया है। जो न्याय संगत पत्रकारिता के पक्षकार है। उन्हें नमक-मिर्च डालकर तड़का लगाने की खास जरूरत नहीं पड़ती है। क्योंकि आईना झूठ बोलता है। आईना कभी भी कुछ सही नहीं दिखाता है, जो हमें देखना है आईना हमेशा उसका उल्टा ही दिखाता है। 
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

बुधवार, 26 मई 2021

एक नई आफत 'संपादकीय'

एक नई आफत  'संपादकीय' 

देश में लगातार कोरोना वायरस संक्रमण फैल रहा है। जिससे प्रतिदिन लाखों लोग संक्रमित हो रहें हैं। हजारों लोगों की प्रतिदिन मौत भी हो रही है। सरकार की कथनी और करनी में बड़ा अंतर है। सरकार जो बात कह रही है, वह धरातल की वास्तविकता से इतर है। राज्य सरकारों के द्वारा बढ़ाई गई पाबंदियों के कारण गरीब व मजदूरो का जीवन बड़ा कठिन और दयनीय हो गया है। शायद सरकार इस बात से वाकिफ नहीं है। कई बार तो ऐसा लगता है कि सरकार को ऐसे वर्ग की चिंता ही नहीं है। 
हालांकि देश 'राम' के भरोसे ही चल रहा है। यह अलग बात है कि 'राम' के नाम पर ही देश में राजनीति हो रही है। निचले स्तर के व्यापारी और मजदूरों के जीवन में जो आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ है। उसके कारण जीवन और भी अभावग्रस्त हो गया है। ब्लैक फंगस और यास जैसी समस्याऐं प्रतिदिन नए-नए रूप में 'नई आफत' बन रहें हैं।
सरकार की उदारता में किस प्रकार से टीका-करण किया जाए? यह तो "साहित्य" के विशेषज्ञ ही समझ सकते हैं। टीकाकरण की स्थिति और गति दोनों चिंताजनक है। सबसे अधिक चिंता का विषय कोरोना वायरस की तीसरी लहर है। जिससे देश का अल्प आयु वर्ग सर्वाधिक प्रभावित होने की प्रबल संभावना जताई जा रही है। ऐसी स्थिति में राज्य सरकार व केंद्र सरकार बड़े-बड़े दावे कर रही है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है, और इसका परिणाम देश की जनता को भुगतना ही होगा। क्योंकि राजनीति और व्यवस्था प्रबंधन दोनों अलग-अलग चीजें हैं। जब तक इनको अलग-अलग दृष्टिकोण से नहीं देखा जाएगा, नहीं समझा जाएगा। तब तक महामारी पर नियंत्रण कर पाना दूर की कौड़ी है। ऐसी अवस्था में प्रत्येक नागरिक को अपने और अन्य नागरिकों के जीवन की रक्षा के लिए कोरोनारोधी नियमों को आत्मसात कर, नियमित उपयोग करना चाहिए।

साफ-सफाई रखें, बुलंद रखें इकबाल।
बदलते रहे मास्क और अपना रूमाल।

चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

बुधवार, 19 मई 2021

पीएम कोरोना संक्रमित 'संपादकीय'

पीएम कोरोना संक्रमित 'संपादकीय'

देश में कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए 'पीएम' मोदी अगर अपने आप को अब भी कोरोना संक्रमण से अछूता समझते हैं, तो ये उनकी गलतफहमी हैं। देश में रोजाना लाखों लोग कोरोना संक्रमित हो रहे हैं। कोरोना महामारी पर सरकार काबू क्यों नहीं कर रही हैं? क्या भारत के 'पीएम' नरेंद्र मोदी को देश की जनता प्रिय नहीं हैं? देश में जमाखोरी और भुखमरी दोनों ही बढ़ रही हैं। कोरोना महामारी के बीच सरकार ने लोगों के कारोबार को बंद कर दिया हैं। ऑक्सीजन और भुखमरी के द्वारा लोगों की जान जा रही हैं। श्मशान घाट में मुर्दों का अंतिम संस्कार भी नहीं हो पा रहा हैं। क्योंकि, श्मशान घाट में मुर्दों का अंतिम संस्कार करने के लिए जगह नहीं हैं, इसके अलावा भी भिन्न प्रकार की समस्या स्थिर बनीं हुईं हैं। क्या इसकी जिम्मेदार सरकार नहीं हैं? 
अगर अब भी जनता को 'पीएम' मोदी के कोरोना संक्रमित होने पर शक हैं, तो ये जनता की सबसे बड़ी भूल हैं। देश में लगातार महंगाई क्यों बढ़ रही हैं ? महंगाई बढ़ने का कारण क्या हैं ? खाने-पीने के सामानों की जमाखोरी क्यों की जा रही हैं ? इसी वजह से आज आप लोगों को एक बहुत महत्वपूर्ण बात बताता हूं कि कोई दाढ़ी बढ़ाने से सन्यासी नहीं, बूढ़ा बनता हैं।

गरीब लोगों के बंद हो गए कारोबार, 
इतनी लालची हो गई हैं सरकार, 
अब चाहे कितनी भी कोशिशें कर लो, 
सब कोशिशें हैं बेकार।

चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

मंगलवार, 11 मई 2021

संपूर्ण लॉकडाउन व संक्रमण 'संपादकीय'

संपूर्ण लॉकडाउन व संक्रमण     'संपादकीय'   
देश में शराब खुलेआम बिक रही है। देश में संपूर्ण लॉकडाउन क्यों नहीं लगाया जा रहा हैं ? क्या खुलेआम शराब सरकार बिकवा रहीं है ?
देश में कोरोना के हालातों को देखकर संपूर्ण लॉकडाउन लगाने का समय है। अस्पतालों के सामने सड़कों पर कोरोना संक्रमितों के शव पड़े हैं। श्मशान घाट में शवों को जलाने के लिए लंबी लाइन लगी हुई हैं। ऐसी स्थिति में जिंदगी चुनें या मौत ? 
पीएम मोदी ने मौत को चुना। जो भी लोग मरेंगे, तो मर जाने दो।  वैक्सीन बनने के बाद भी कोरोना क्यों बढ़़ रहा है ? क्या नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनकर जीवन से तंग आ गए हैं ? क्या देश के पीएम कोरोना से लोगों को मरवा रहे हैं ? एक राजा का कर्तव्य यें होता है, कि वह अपनी प्रजा को सुखी रख सकें। बल्कि यह नहीं, कि अपनी प्रजा की जान से खिलवाड़ करें, राजनीति, राजनीति और बस राजनीति। अगर राजा का मकसद यह है, कि भ्रष्टाचार और अत्याचार करें, तो उस राजा को अपना पद नैतिकता के आधार पर छोड़ देना चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था के अनुसार संविधानिक अधिनियम है। 
'फेसबुक' एकमात्र दुनिया की सबसे बड़ी चोर संस्था हैं। जिससे भारत का व्यापार अंबानी ग्रुप से जुड़ा हैं। साथ में गूगल भी एक ऐसा यंत्र है, जो सरकार के निर्देशानुसार काम करता है। अगर किसी आदमी को राजा ही बनना है, तो उसे सन्यासी बनने की इच्छा को त्याग देना चाहिए। दाढ़ी बढ़ाने से कोई तपस्वी नहीं बनता। तपस्वी बनने के लिए भक्ति-भावना और प्रेम चाहिए।

शराब बेकता हूं खुलेआम, क्योंकि नहीं कोई दीवार, 
एक बात बोलूंगा, तो नखरें हो जाएगें तार-तार, 
कोविड़-19 तो बुखार हैं, पर बोलूंगा बार-बार।

चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

बुधवार, 5 मई 2021

पतन का शंखनाद 'संपादकीय'

पतन का शंखनाद   'संपादकीय' 
सत्ता की भूख में न जाने क्या-क्या खा गये, 
इतनी बढ़ गई भूख, अपने-पराएं सब समा गए। 
भाजपा के दलान का शहतीर दीमकों ने खोखला कर दिया है। अब गिरा, तब गिरा की स्थिति में बना हुआ है। देश के ज्यादातर संपादक और कई वरिष्ठ पत्रकार भाजपा के पतन के प्रारंभ की आभा को सहज ही समझ भी रहे हैं और भाजपा के प्रति हृदय से चिंतन-मनन भी कर रहे हैं। यह स्वतंत्र विचार है या कोई विवशता ? इस संदर्भ में कुछ भी कहना गलत होगा। परंतु सभी के शब्दों में अपार निराशा और ग्लानि का भाव छुपाए नहीं छुपता है। जबकि सभी भली-भांति इस बात से परिचित है कि सच को ना छुपाया जा सकता है और ना मिटाया जा सकता है।
कोविड-19 कोरोना संक्रमण से करोड़ों लोग जिंदगी और मौत के बीच खड़े हैं। लेकिन कई वरिष्ठ पत्रकार बंगाल हिंसा में 9 लोगों की मौत पर अध्यनरत है। जबकि वहां धंतु निकलने वाला नहीं है। देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को बंगाल चुनाव की हार किसी सबक से कम नहीं है। संक्रमण को दरकिनार कर लाशों के ढेर पर राजनीति करने वालों के गाल पर बंगाल चुनाव परिणाम करारा तमाचा हैं। वहीं, यूपी के पंचायत चुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त नहीं मिली है। बल्कि, भाजपा का दम भरने वाले लूट कर, हतोत्साहित होकर बैठे हैं। 
यह भाजपा के पतन का शंखनाद है। केंद्र सरकार का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है शायद इस बात से सभी लोग वाकिफ भी हैं। किंतु बहरे लोग शायद ही सुन सकेगे।
इसी कारण देश की जनता ने भाजपा की अनीतियों से तंग आकर भाजपा का पूरी तरह साथ छोड़ दिया है और अन्य विकल्प तलाश लिए हैं। कोई भी दल अथवा निर्दलीय ही सही, पर भाजपा कतई नहीं। जनता की इसी सोच से जिस बीज का अंकुरण हुआ है। उसने भाजपा के पतन का द्वार खोल दिया है। 
संक्रमण के द्वारा मौत के तांडव को देखकर न्यायपालिका ने देर से ही सही पर आंखें खोल ली है। लेकिन सरकार की लापरवाही जिन आंखों से आंसू बनकर बह रही है, शायद वे इस क़हर को ताउम्र भूल नहीं पाएंगे।
सरस 'निर्भयपुत्री'

सोमवार, 3 मई 2021

सिलेंडर में बंद ऑक्सीजन 'संपादकीय'

मधुकर कहिन 
कोरोना के दौरान ऑक्सीजन सप्लाई को लेकर आपके हर सवाल का जवाब !!!
प्लांट से अस्पतालों तक सिलेंडर पहुंचने वाले लोगों का अब तक नहीं हुआ है वैक्सीनशन 
सुबह से लेकर शाम तक सैकड़ों फोन उठाता हूँ। हर फोन पर सिर्फ एक ही सवाल होता है और एक ही मुद्दा - साहब 'ऑक्सीजन' का सिलेंडर नहीं है, दिला दो , साहब 'ऑक्सीजन' गैस कहां से लाऊं ?  साहब 'ऑक्सीजन' का सिलेंडर कब तक मिलेगा ? मेरे पास न कोई जवाब होता है और न ही कोई हल।
मैंने सोचा आज यह ब्लॉग लिख कर सारे जवाब एक साथ ही दे डालूँ। सभी लोगों को बता दूँ की मैं कोई सुपर मैन नहीं हूँ। भाई ! मैं भी एक आम इंसान ही हूँ। बस पत्रकार हूँ इसलिए ज़रा ज्यादा मुखर हूँ। जितना ज्ञान इस विषय पर मैंने इन दिनों अर्जित किया है उतना आप तक पहुंचा रहा हूँ।
तो साहब ! जिस 'ऑक्सीजन' की हम बात कर रहे हैं। वह 'ऑक्सीजन' कोविड-19 के मरीजों को जिंदा रखने और उपचार के दौरान दी जाने वाली संजीवनी बूटी की तरह है। जिसे सैकड़ों लोग रोज़ 'ऑक्सीजन' प्लांट से लेकर अस्पतालों तक ले जा रहे हैं। जिनका खुद का वैक्सीनशन अब तक नहीं हुआ है। है न कमाल ?

 खैर, लोगों के अक्सर जो सवाल होते है वो कुछ ऐसे हैं ...
पहला सवाल - मैं कोरोना पॉजिटिव हूँ। मेरी रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई है। क्या मुझे 'ऑक्सीजन' की जरूरत तुरंत  पड़ेगी ?
जवाब है कि  - अगर आप की रिपोर्ट पॉजिटिव है , तो आपको तुरंत 'ऑक्सीजन' की ज़रूरत नहीं है। यदि आपकी HRTC रिपोर्ट 10 से ऊपर है तो आपको तुरंत ऑक्सीजन की जरूरत पड़ेगी। आपकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आते ही आपको ऑक्सीजन की जरूरत नहीं है। इसलिए पॉजिटिव आते ही दवाइयों पर और डॉक्टर की सलाह पर निर्भर रहें। जल्दबाजी न करें डॉ की सलाह पर दवाई लेते रहें। इस से क्या होगा कि आप यदि व्यवस्थाओं में माहिर है तो सिलेंडर और ऑक्सीजन अपने घर तो ले आएंगे। लेकिन वह आपके काम नहीं आएगी और उसके साथ-साथ किसी और ज्यादा जरूरतमंद के भी काम नहीं आएगी। अधिकांश मामले नियमित दवाई और चिकित्सकों की गाइडेंस से ठीक हो रहे हैं।
दूसरा सवाल - आखिर मुझे 'ऑक्सीजन' मिलेगी कहाँ से ?
जवाब है कि - आपको 'ऑक्सीजन' सिलेंडर उसी अस्पताल में भर्ती होने पर मिलेगा। जिस अस्पताल से आप का उपचार चल रहा है और वही अस्पताल आपको भर्ती तो कर देगा।, लेकिन 'ऑक्सीजन' पर तभी लेगा। जब आपकी मेडिकल HRCT 10 से ज्यादा दिखाई देगी। उससे पहले वह भी आपको आईसीयू एडमिट नहीं करेगा।
तीसरा सवाल -किस अस्पताल में जाएँ जहाँ 'ऑक्सीजन' की दिक्कत न आये ?
जवाब है - हर उस अस्पताल में आप जा सकते हैं जिसे कोविड अस्पताल घोषित कर दिया गया है। उसमें आप जा सकते हैं और इलाज ले सकतें है। बात 'ऑक्सीजन' की तो हर अस्पताल को प्रशासन की ओर से रोज़ ऑक्सिजन सिलेंडर अलॉट किये जाते हैं । ( अनुमानित संख्या )
जैसे कि
 1300 से 2200 सिलेंडर रोज जेएलएन अस्पताल 
 55 से 100 सिलेंडर चर्चित गैस एजेंसी सिविल लाइन्स 
 55 से 100 सिलेंडर फेयर डील मेडिकल आर्यनगर 
 35 से 40 सिलेंडर क्षेत्रपाल अस्पताल
 18 से 22 सिलेंडर मित्तल अस्पताल
 45 सिलेंडर सेटेलाइट अस्पताल
 12 सिलेंडर आरएस अस्पताल
और इसी तरह से जितने भी निजी और सरकारी कोविड अस्पताल हैं। सब के पास 'ऑक्सीजन' उनके कोटा अनुसार उपलब्ध है। 
परंतु ऑक्सीजन आपको तभी मिल पाएगी जब आपको उसकी जरूरत होगी। इसलिए बेवजह सिलेंडर के पीछे ना भागे। घर में रहे और अपना उपचार जारी रखें।
चौथा सवाल क्या मुझे 'ऑक्सीजन' कंसंट्रेटर पर निर्भर रहना चाहिए ? 
इसका जवाब है कि 'ऑक्सीजन' कंसंट्रेटर मात्र 5 किलो ऑक्सीजन वायुमंडल से बनाकर देता है। जो कि केवल एक हद तक मददगार है । यदि आप कोविड-19 के शिकार हो गए और आपको 'ऑक्सीजन' की जरूरत है तो यह कंसंट्रेटर आपको कुछ प्रतिशत तक ही घरेलू लाभ पहुंचा सकता है। परंतु आपके लिए उम्मीद करना कि यह कंसंट्रेटर 'ऑक्सीजन' सिलेंडर की 98% गैस की तरह राहत देता है तो आपकी सोच गलत है।  
पाँचवा सवाल - 'ऑक्सीजन' हेतु आखिर एक मरीज़ के पास क्या क्या विकल्प हैं ?
जवाब है - संक्रमण के स्तर को देखते हुए तीन तरह की मशीनें साफ तौर पर मार्केट में दिखाई दे रही है। प्रथम तरह की मशीन है 'ऑक्सीजन' कंसंट्रेटर जो, कि आपकी सांस लेने की क्षमता को 5% बढ़ाता है। कंसंट्रेटर की कीमत लगभग 66 हज़ार तक कि होती है। 
उसके बाद है, बाई पेप मशीन जो कि 50 से 55% तक आपकी क्षमता बढ़ाएगा। इसकी कीमत 90 हजार के आसपास है।
और अंततः वेंटिलेटर जिसकी कीमत लगभग 70 से 80 लाख है। जहां 'ऑक्सीजन' सिलेंडर लगने पर आपकी सांस लेने की क्षमता 98 परसेंट तक बढ़ जाती है।
 तीनों ही तरह में कंसंट्रेटर ही एक ऐसा जुगाड़ है जो आपको प्राथमिक स्तर पर लाभ पहुंचा सकता है। परंतु यदि आप यह उम्मीद करते हैं कि जिस मरीज को वेंटीलेटर की जरूरत है। उसका काम कंसंट्रेटर से चल जाएगा तो यह उम्मीद आपको भारी पड़ सकती है।
 छठा सवाल - मेरा मरीज घर पर है। मुझे डॉक्टर ने 'ऑक्सीजन' सिलेंडर लिखकर दे दिया है। परंतु फिर भी मुझे सिलेंडर प्राप्त नहीं हो रहा है। ऐसे में मैं क्या करूं ?
 इसका जवाब है कि ऐसे में आप अपने मरीज को टैब तक डिस्चार्ज न करवाये, जब तक चिकित्सक न कहे। और सरकारी चिकित्सक से पर्चा लिखवाकर जिला कलेक्टर अथवा एडीएम और सीएमएचओ के कार्यालय को संपर्क करें। उनसे निवेदन करें और इमरजेंसी का आवेदन लगाकर कुछ हद तक मदद की उम्मीद कर सकते हैं। गैस डीलर और प्लांट धारकों के यहॉं भीड़ लगाने से कुछ लाभ नहीं होगा। क्योंकि अजमेर के प्रशासन द्वारा इन लोगों को अनुमति अब तक नहीं है कि ये सीधे गैस सिलेंडर या 'ऑक्सीजन' किसी को दे सकें।
इसके अलावा भी अगर किसी के मन में कोई सवाल या मेरे बताए हुए तथ्यों में कोई शंका या त्रुटि हो तो वह मुझसे जरूर इस नंबर पर व्हाट्सएप करके पूछे ...
मैं 'ऑक्सीजन' भले ही नहीं उपलब्ध करवा पा रहा हूँ लेकिन फिर भी जहां तक हो सकेगा, आपके सवालों का जवाब तो मैं उपलब्ध करवाने की कोशिश कर ही सकता हूँ। ताकि आपकी उम्मीद बनी रहेंं।
घर पर रहिए और अपना ख्याल रखिय।
बाहर सिलेंडर मिलेंं न मिलेंं कोरोना ज़रूर मिल जाएगा।
 नरेश राघानी

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

महामारी का संकट 'संपादकीय'

आज पूरी दुनिया कोविड-19 के संक्रमण से संकट में है। ना जाने कहां से कोरोना जैसी महामारी दुनिया में आ गई हैं। हमारे देश की चिकित्सा व्यवस्था से जुड़े हुए सेवक-स्वास्थ्य कर्मी जैसे डॉक्टर्स, नर्स और पुलिसकर्मी भी इस महामारी से लोगों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। 
हमारे देश के वैज्ञानिकों ने टीका भी बनाया। लेकिन उससे भी लोगों की जान नहीं बच पा रहीं हैं।
ऐसा क्यों ? यें हमारे देश के राजनेताओं की राजनीति है। हमारे देश में नपुसंक अधिक मात्रा में हो गए हैं। आज हम ऐसी महामारी से गुजर रहें है। जिसका कोई तोड़ नहीं है। इसिलिए, हम सबको खुद अपनी सुरक्षा करनी पड़ेगी। आज हमारे देश में नपुसंको का राज है। ऐसी सरकार होने का क्या फायदा है ? जिस सरकार में श्मशान घाट और कब्रिस्तान में भी जगह ना बचीं हो। जिसें देश के प्रति प्रेम ही ना हों। ऐसी सरकार को जिंदा जला देना चाहिए। आज हम महामारी से लड़़ रहे हैं। रोज महामारी से मृतक संख्याएं बढ़ रही है। वर्तमान सरकार देश की प्रजा का उचित ढंग से संरक्षण नहीं कर रही है। ऐसी सरकार का बहिष्कार कर देना चाहिए।
आजाब, का मंझर देखकर 'गालिब',
शब्दों का पता भूल गई,
क्या लिखूं, क्या बताऊं,
मेरे वतन के लोगों।

'सरस'

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

पीएम की लोकप्रियता 'संपादकीय'

पीएम की लोकप्रियता 'संपादकीय'
 
संपूर्ण विश्व में भारत की विशिष्ट पहचान बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विश्व सदियों तक याद रखेगा। प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का यह दूसरा कार्यकाल चल रहा है। मानवीय, सामाजिक, ढांचागत विकास और रचनात्मक प्रयासों से कई बार देश की जनता को हतप्रभ किया है। धर्मवाद की नीति के साथ-साथ सभी वर्गों के विकास का प्रयास किया है। इसी कारण निरंतर नरेंद्र मोदी की लहर जारी है। इस लहर को यदि लोकप्रियता से परिभाषित किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
परंतु इस बात से भी गुरेज नहीं करना चाहिए कि जिस प्रकार देश में सोशल मीडिया के माध्यम से वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना-विवेचना के साथ, गाली-गलौज, कम्बख़त और पनौती आदि शब्दों का उपयोग किया जा रहा है। आप सभी लोग इसको कैसे देखते हैं, इसके अलैदा इसे लोकप्रियता नहीं तो क्या कहेंगे? सोमवार को पश्चिम बंगाल में एक चुनावी रैली में भारी-भरकम भीड़ भी इसका पुष्ट प्रमाण है। यही नहीं पश्चिम बंगाल में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार का गठन भी होगा। यह भीड़ इसका संकेत भी है और सूचक भी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा भाजपा में कोई दूसरा इसका श्रेय लेने योग्य राजनेता भी नहीं है।
 मगर यह बात क्यों भूल गए हैं कि जिस हड्डी को कुत्ता घंटों तक चाटता रहता है। उससे कुछ नहीं निकलता है। कुत्ते के मसूड़े छीलने से हड्डी पर खून लग जाता है। कुत्ता अपने ही खून को चाटता रहता है। साधारण सी बात है परिश्रम करने की एक ठोस वजह है। लेकिन राजनीतिक प्रारब्ध, स्वार्थ और सत्ता की भूख ने आंखों पर ऐसी पट्टी चढ़ा दी है।  जिसके कारण वास्तविकता को देखने-समझने का औचित्य ही नहीं हैं। एक तरफ देश की जनता महामारी का दंश झेल रही है और देश का प्रधान सेवक लाशों के ढेर पर राजनीति कर रहा है। देश की जनता के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा? बंगाल की जनता शायद पीएम के मोह में अप्रत्यक्ष जोखिम से अनजान है। मासूम और भोली जनता का इससे आसान शिकार क्या होगा? देश की जनता किस हालत से गुजर रही है, इसकी प्रधान सेवक को जरा भी परवाह नहीं है। सत्ता की भूख के सामने एड़िया रगड़ कर दम तोड़ने वालों की परवाह नहीं है, उनकी जिंदगी का कोई मोल नहीं हैं। जो बाकी बचेंगे उन पर राज करेंगे या विपक्ष में बैठ जाएंगे। लोकतंत्र में यह सोच लोकतंत्र की जडें कुतरने वाली है। जो लोग इसके जिम्मेदार है शायद उनके पास अब आखिरी मौका है।
 राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

देश भीख-प्रदेश चोरी 'संपादकीय'

देश भीख-प्रदेश चोरी     'संपादकीय'
देश की भाजपा सरकार के विरुद्ध एक बड़ा वर्ग क्रांतिकारियों की सूची में स्थापित हो चुका है। आंदोलन के प्रभाव और प्रसार पर नियंत्रण करने में भी बड़ी चूक रही है। सरकार के विरोध को समझने के अभाव में राष्ट्र का हित संभव ही नहीं है। तकनीकी क्षेत्र और औद्योगिक गतिविधियों के विकास का ग्राफ भी ठीक नहीं है। विरोध को शांत करना सरकार की प्राथमिकता का आधार होना चाहिए। किसी भी दशा और अवस्था में आंदोलन की समस्या का मार्ग प्रशस्त किया जाएं। विरोध के चलते भाजपा संगठन को बाधाओं का सामना करना पड़ेगा। भविष्य में भाजपा के द्वारा कई राज्यों के चुनावों में 'मुंह की खानी पड़ेगी'। विरोध का मूल, सदैव पतन का द्वार खोलता है। किसी भी राष्ट्र के कृषकों में व्याप्त आक्रोश सरकार की नींव कमजोर कर देता है। इसिलिए, सनातन शास्त्रों में इसका सीधा-सा उदाहरण अंकित किया गया है, कि 'देश भीख-प्रदेश चोरी' समान फल देने वाले होता हैं। भौतिक विकास में मानवीय विकास की गति की दिशा से सरकार भटक गई है। जनसंस्था घनत्त्व और बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्याओं पर सरकार की बोलतीं बंद है। भयावह और प्रमुख समस्याओं पर सरकारी उदारता बरकरार है। सरकार को कई विशेष पहलूओं पर मंथन करने की जरूरत है। यदि समय रहते आवश्यक बिंदुओं पर रचनात्मक उपयोग नहीं किए गए तो भाजपा को बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

 चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

नरेंद्र मोदी टेक्स 'संपादकीय'

नरेंद्र मोदी टेक्स       'संपादकीय' 

आजकल देश में महंगाई का हाहाकार मचा हुआ है। खादान वस्तुओं पर मूल्यों की अनियंत्रित गति से आम जन-जीवन पूरी तरह त्रस्त है।
बढ़ती महंगाई का आधार साधारण यातायात है। जिसके लिए फास्ट टैक्स लागू कर दिया गया है। अब किसानों को जनपदों की सीमा पार करने पर भी टैक्स देना पड़ेगा। किसान आंदोलन देश के वांछित, क्षुब्ध और आक्रोशित किसानों का विरोध है। किसानों के विरोध-प्रदर्शन को संघीय गणराज्य में पूरी तरह स्वतंत्रता प्राप्त है।
लिखित संविधान के अनुसार, विरोध और आपत्ति का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र है। दिशा रवि के द्वारा स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग किया गया है। वह कोई आतंकवादी, नक्सलवादी या राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त नहीं पाई गई है। इसके बावजूद भी उसे असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है। इसका एक साधारण उदाहरण है।
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अनुयायियों/मतविवेंकियों को पेट्रोल की कीमत अथवा बढ़ें हुए खादान पदार्थों के मूल्यों पर मोदी टैक्स अपनी स्वतंत्र इच्छा से प्रदान करना चाहिए। नरेंद्र मोदी टैक्स लागू करके भुगतान करना चाहिए। विवश एवं असहाय लोगों के लिए उस टैक्स को समर्पित कर देना चाहिए। ताकि, वह जरूरतमंद के काम आ सके। उससे आपका स्वाभिमान और देश की अर्थव्यवस्था दोनों सुरक्षित रहेंगे। भाजपा सरकार में अप्रत्याशित रूप से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है और स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार की प्रक्रिया में पूरी तरह से संचालित है। 
एक भी जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है। ऐसी अवस्था में अगले आम चुनाव तक अपनी प्रतिभावों को समेटकर रखने वाले गणराज्य की स्थापना के समर्थक ना बनें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के विकास के प्रति निष्ठावान है। उनसें प्रत्येक भारतवासी को यही अपेक्षा करनीं चाहिए, कि वह राष्ट्र के निर्माण-विकास में व्यस्त है।

चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

बाकी किसान रहेगा... 'संपादकीय'

बाकी किसान रहेंगे...   'संपादकीय'
मंदिर में घंटा, मस्जिद में अजान रहेंगे।  
खून चूसने वाले खटमल-पिस्सु महान रहेंगे।
कारवां गुजर गया, अब तेरे भी दौर से।
कोई नहीं बचा 'सनकी', बाकी निशान रहेंगे। 
भारत है किसानों का, बाकी किसान रहेंगे.....
 
किसान आंदोलन से सरकार की जड़े हिल चुकी है। सरकार की छवि के साथ-साथ विश्व स्तर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी इंगित किया गया है। आंदोलन की गूंज धरती के कोने-कोने तक सुनी जा सकती है। जिसके कारण सरकार से प्रभावित हस्तियां भी खुले मंच पर उद्घोष करने से गुरेज नहीं कर रही है। इसका अर्थ यह है कि आंदोलन अपने निर्धारित लक्ष्य को भेदने के काफी करीब है। संभवतः कुनीतियों का समर्थन करने वाली सरकार आंदोलन को कुचलने या मसलने के कई आयामों पर विचार-विमर्श कर रही हो? किसी ऐसी रणनीति पर कार्य किया जा रहा हो। जो आंदोलन में स्थिरता ला सके या आंदोलन को दो फाड़ कर सके। इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है। ऐसा बिल्कुल किया जा सकता है। सरकार की मंशा किसी से छिपी नहीं है। ऐसा अनुमान लगाना भी व्यर्थ ही है कि सरकार कृषि कानूनों को रद्द कर देगी। इसलिए आंदोलन में रचनात्मक बदलाव का अभाव प्रतीत किया जा रहा है। यदि स्थिति के अनुसार प्रयोगात्मक परिवर्तन किए गए तो यह आंदोलन देखते ही देखते जन आंदोलन बन जाएगा। वर्तमान शासकीय प्रणाली में स्थाई परिवर्तन की संभावना प्रबल हो जाएगी।
आंदोलन के 72वें दिन कई उतार-चढ़ाव के बाद, किसानों के द्वारा एनसीआर में आज 3 घंटे का चक्का जाम सरकार को सीधा संदेश है। लेकिन सरकार विभिन्न योजनाओं में व्यस्त है। जो इस सीधे संदेश का रूपांतर नहीं करेगी। यह सरकार और सरकारी तंत्र के लिए कैंसर के जैसा होगा। 
अनियंत्रित गति से बढ़ती हुई महंगाई की मार झेलने वाला मध्य वर्ग, आरक्षण से प्रभावित वर्ग, कोरोना काल से प्रभावित वर्ग और समूचा विपक्ष सरकार के सामने अलग-अलग स्थिति में कार्यरत है, और अलग-अलग मोर्चा संभाले हुए हैं। सरकार की खिलाफत हवा में घुल-मिल गई है। भाजपा का झंडा उठाने वाले ज्यादातर लोग उन्हें छोड़ चुके हैं या बदल चुके हैं। सरकार को और भी ऐसे कई पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने की सख्त आवश्यकता है। लेकिन सरकार वह देखना ही नहीं चाहती है जो प्राथमिकता के आधार पर उसे देखने की जरूरत है।
 राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

"आत्मनिर्भर भारत'' 'संपादकीय'

'आत्मनिर्भर भारत'
ऑक्सफोर्ड लैंग्विजेज ने आत्मनिर्भर 'भारत' को 2020 का हिंदी भाषा का शब्द घोषित किया गया है। यह शब्द भाषा विशेषज्ञों कृतिका अग्रवाल पूनम निगम सहाय और इमोगन फॉक्सेल के एक सलाहकार पैनल द्वारा चुना गया है। ऑक्सफोर्ड हिंदी शब्द से यहां तत्पर्य ऐसे शब्द से है। जो पिछले साल के लोकाचार, मनोदशा या स्थिति को प्रतिबिंबित करे और जो सांस्कृतिक महत्व के एक शब्द के रूप में लंबे समय तक बने रहने की क्षमता रखता हो। ऑक्सफोर्ड लैंग्विज’ ने एक बयान में कहा कि प्रधानमंत्री ने जब कोविड-19 से निपटने के लिए पैकेज की घोषणा की थी। तो उन्होंने वैश्विक महामारी से निपटने के लिए देश को एक अर्थव्यवस्था के रूप में एक समाज के रूप में और व्यक्तिगत तौर पर आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया था। उसने कहा कि इसके बाद ही आत्मनिर्भर भारत शब्द का इस्तेमाल भारत के सार्वजनिक शब्दकोष में एक वाक्यांश और अवधारणा के रूप में काफी बढ़ गया। इसका एक बड़ा उदाहरण भारत का देश में कोविड-19 के टीका का निर्माण करना भी है। गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर आत्मनिर्भर भारत अभियान को रेखांकित करते हुए एक झांकी भी निकाली गई थी। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इंडिया’ के प्रबंध निदेशक शिवरामकृष्णन वेंकटेश्वरन ने कहा कि आत्मनिर्भर 'भारत’ को कई क्षेत्रों के लोगों के बीच पहचान मिली क्योंकि इसे कोविड-19 से प्रभावित अर्थव्यवस्था से निपटने के एक हथियार के तौर पर भी देखा गया। गौरतलब है, कि इससे पहले 2017 में आधार 2018 में नारी शक्ति और 2019 में संविधान को ऑक्सफोर्ड ने हिंदी भाषा का शब्द चुना था। 
चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

सोमवार, 25 जनवरी 2021

...जय किसान 'संपादकीय'

...जय किसान    'संपादकीय'
विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र में 'गणतंत्र दिवस' के मौके पर लोकतांत्रिक व्यवस्था दो भागों में विभाजित हो गई। एक और राजतंत्र और दूसरी तरफ किसान परस्पर एक दूसरे के विरोधी हो गए हैं। 'कृषि' प्रधान लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसान सरकार की अनिती, हट और जबरदस्ती की अवधारणा के विरोध में इस सीमा तक जिद पर अड़ गया है कि संपूर्ण विश्व के सामने वर्तमान सरकार को दोषियों की भांति कटघरे में खड़ा कर दिया है। जनता के द्वारा चुनी गईं सरकार का एक वर्ग, किसानों का भरोसा खो चुकी है। सरकार यदि गरीब-मजदूर को ही गणतंत्र का आधार मान रही है, तो सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि किसान और गरीब-मजदूर परस्पर एक दूसरे के सहयोगी है और उनका रिश्ता आजीवन बना रहता है। दोनों सदैव एक दूसरे के पूरक बने रहते हैं। "मुट्ठी भर अरबपतियों से गणतंत्र प्रतिस्थापित नहीं होता है। वरन, अरबपति वर्ग गणतंत्र से प्रतिस्थापित होता हैं। 
किसान और मजदूर दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं। देश का किसान और मजदूर वर्ग ही वास्तविक रूप में गणतंत्र का ताना-बाना है। इस ताने-बाने के विरुद्ध खड़ी सरकार को अपने पैरों के नीचे की जमीन का ध्यान रखना चाहिए। जिस राष्ट्र में 'जय जवान-जय किसान' का उद्घोष होता है। उसी देश में जवान और किसान अलग-अलग मोर्चा संभाल रहे हैं। 'गणतंत्र दिवस' पर लोगों को विभाजित कर दिया गया है। यह  मोर्चाबंदी दुनिया के अन्य देशों के लिए एक सीख होगी। सरकार की दमनकारी नीतियों से विश्व में भारत गणराज्य की वास्तविक स्थिति का जो खाका तैयार होगा। वह किसी भी सूरत में भारत के स्वरूप को कितना मैला और कुचैला कर सकता है। इसका शायद सरकार को भान नहीं है। राष्ट्र की प्रतिष्ठा और गौरव दोनों को भारी क्षति होगी। ब्लकि, विश्व पटल पर राष्ट्र को एक बदसूरत तस्वीर के रूप में पेश किया जाएगा। यह 'गणतंत्र दिवस' संवैधानिक ढांचे और संसद के बीच गणतंत्र की पैरवी नहीं कर रहा है। देश की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा संविधान और उससे प्राप्त अधिकार से संसद को गणतंत्र की आभा से साक्षात करने का कार्य कर रहा है। दोनों पक्षों के परस्पर विरोध से राष्ट्र को आवश्यक रूप से क्षति पहुंचेगी। हालांकि, अंत में किसी एक पक्ष को तो झुकना ही होगा। विश्वास कीजिए, वह केवल 'सरकार' ही होगी। आंदोलनकारियों का 'धर्म' आंदोलन है। जिसे लोकतंत्र में किसी प्रकार से रोका नहीं जा सकेगा।
 राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

मंगलवार, 5 जनवरी 2021

किसान हित 'संपादकीय'

किसान हित   'संपादकीय' 
गाजियाबाद के शमशान घाट हादसे से प्रत्येक विवेकी मनुष्य का मन पीड़ा से कराह उठा हैं। यह हादसा सरकार के दावे और वायदों की असलियत से रूबरू कराता है। अन्य सरकारों की भांती यह सरकार भी कटघरे में खड़ी है। कुछ मोहरों पर कार्रवाई की खानापूर्ति की गई है और असली गुनाहगार मसीहा बनकर घूम रहे हैं।
यह एक ऐसा उदाहरण है जो किसानों के हितों में लागू किए गए तीनों कृषि विधायकों को इंगित करता है। इस हादसे से सैकड़ों लोगों के जीवन में घना अंधेरा छा गया है। वहीं, दूसरी तरफ लाखों किसान आंदोलन की धार को तेज करने में संघर्षरत है। क्योंकि किसानों के हित में सरकार कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती है। किसान उस हित को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। कई बार सरकार और किसान नेताओं के बीच बेनतीजा वार्तालाप भी हो चुकी है। आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेतृत्व वाली सरकार किसानों के हित में जिद पर क्यों अड़ी हुई है ? इस हित की जंजीर किसानों के पैरों में क्यों डालना चाहती है सरकार ? आंदोलनकारी किसान और सहायता करने वाले समर्थित लोगों को गहरी यातनाएं झेलनी पड़ रही है। बीमार, लाचार, बालक, बूढ़े और तीमारदार आदि सभी वर्ग और समूह के किसान कड़ाके की ठंड में खुले आसमान के नीचे दुख और दर्द में सरकार का विरोध कर रहे हैं। 
सरकार कृषि कानून वापस नहीं करेगी। क्योंकि सरकार की खूब किरकिरी तो हो चुकी है। कानून वापस लेते ही सरकार की प्रतिष्ठा खंडित हो जाएगी। पूर्ण बहुमत की सरकार गठित करने का मान भी नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। किसान को कमजोर करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। जर-जर और निरीह किसान को उस स्तर तक ले जाया जाएगा। जहां उसमें विरोध करने का दम ही ना बचें।
ऐ, दोस्त तू तो बड़ा मशहूर हो गया। 
इतना लाड-प्यार और तू दूर हो गया। 
गंद भाती नहीं मेरे जिस्म की, हुजूर हो गया। 
ऐसा तो कुछ भी नहीं तेरे पास कि गुरूर हो गया। 
तू मान ना मान, तुझे कुछ तो जरूर हो गया।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

शनिवार, 2 जनवरी 2021

ना कोई चोर-ना मुंह जोर, कोई और 'संपादकीय'

ना कोई चोर-ना मुंह जोर, कोई और   'संपादकीय'
अक्सर जब दो पहलवान अखाड़े में जोर आजमाइश करते हैं तो निश्चित रूप से एक को हार दूसरे को विजय अवश्य मिलती है। लेकिन राजनीति का दंगल जरा हटकर है। यहां शाख कोई बनाता है, भीड़ कोई जमाता है और उसका आनंद कोई और ही लेता है।
अगर हम उत्तर-प्रदेश की बात करें तो ज्यादातर विधानसभाओं का यही हाल है। लेकिन इसका एक प्रमाणिक सिद्धांत लोनी विधानसभा क्षेत्र हैं। जिसमें उत्तर-प्रदेश की सबसे बड़ी नगर पालिका भी सम्मिलित है। नगरीय क्षेत्र की दयनीय हालत किसी से छुपी नहीं है। इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ कोरी राजनीति है। इसे आप घटिया राजनीति भी कह सकते हैं। जिसके चलते क्षेत्र मुख्य विकास धारा से पिछड़ गया है। जनता के हितों को लेकर चिंतन और मनन का अभाव प्रतीत होता है। जनता शायद इसका जवाब आगामी विधानसभा चुनाव में देने की फिराक में है। जनप्रतिनिधित्तव का खोकलापन और आडंबर के स्वांग को जनता भी खूब समझने लगी है। कई सालों से विकास की उम्मीद लगाए बैठी जनता को ढेर सारी निराशा के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। जनता के विश्वास के साथ खिलवाड़ होता रहा है। 
अबकी बार जनता को भी खेलने का मौका मिलेगा। इसके लिए स्लोगन भी तैयार किया गया है। आपको यह पसंद आएगा, लेकिन केवल पसंद करने से ही काम नहीं चलने वाला है। आपको इस पर कम से कम थोड़ा अमल भी करना होगा। "अबकी बार ना कोई चोर, ना कोई मुंहजोर, कोई और" को आधार बनाने की जरूरत है। किस पार्टी का कैडर क्या है, किस पार्टी से किसको टिकट मिला है? इससे ज्यादा जरूरी है की किसमें क्षमता, जनहित को समर्पित भावना, जन-जन को मुख्यधारा से जोड़ने का जुनून व बुनियादी ढांचे को बदलने की विचार-शक्ति हैं। ऐसे व्यक्ति का चुनाव करने के लिए आपको संकल्प ले लेना चाहिए। आपने किसी के साथ बंधुआ करार तो किया नहीं है। इसलिए उसी के साथ सहयोग की भावना रखनी चाहिए जो आपकी समस्याओं पर संजीदगी से काम करने को तत्पर है। यदि आप स्वयं बदलाव के लिए पहल नहीं करेंगे तो फिर आप पश्चाताप के अलावा कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं। विधानसभा चुनाव 2022 अभी काफी दूर है। लेकिन इसके लिए जद्दोजहद शुरू हो चुकी है।
 राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'

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