गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

कुछ यादें जो अतीत बन जाती हैं.. 'विश्लेषण'

यदि किसी से पूछा जाए कि बीते हुए वर्ष का सार क्या होगा तो उसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से कोरोना से जुड़ी होगी। इसके उत्तर में संभवत: ‘कोरोना संकट अप्रत्याशित है’ या यह कि ‘दुनिया अब पहले जैसी नहीं रहेगी’ जैसी बातें सामने आएंगी। वैसे केवल यह साल ही नहीं, बल्कि विगत दो दशकों की शुरुआत और अंत भी काफी उथल-पुथल भरे रहे। नई सहस्राब्दि के पहले दशक का आगाज जहां वाइटूके बग के साथ हुआ और 2009 में उसका समापन एक वैश्विक आर्थिक संकट के साथ। परिणामस्वरूप दूसरे दशक की शुरुआत फीकी रही और और उसकी समाप्ति भी एक अनोखी आपदा के साथ हुई। इस प्रकार बीते 20 वर्षों के दौरान मानव जाति को डिजिटल से लेकर वित्तीय और अब स्वास्थ्य संकट से उत्पन्न गतिरोध से जूझना पड़ा।
यदि किसी साल का सिंहावलोकन करें तो उसका संबंध किसी एक घटनाक्रम तक सीमित नहीं रह सकता, भले ही वह घटना कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न रही हो? इस कड़ी में यदि इसी साल का उदाहरण लें तो यह वर्ष विरोध-प्रदर्शन, तल्खी और विसंगतियों के नाम रहा है। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के विरोध में हुए शाहीन बाग गतिरोध के बाद दिल्ली में दंगे हो गए। इससे पहले कि दंगों की आग बुझती उसके पूर्व ही कोरोना ने दस्तक दे डाली। अब जब हमें लगा कि बदतर दौर बीत गया तो कृषि कानूनों के विरोध की चिंगारी ने नए विवाद की आग भड़का दी है। विपक्षी दलों के साथ ही मीडिया का एक वर्ग भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यही आभास कराना चाहता है कि भारत तानाशाही की ओर उन्मुख है जबकि मेरा मानना है हम आदतन मत-विरोध वाले राष्ट्र के रूप में उभर रहे हैं। असल में हम समस्या से निदान के बजाय संभावित समाधान में ही मीनमेख निकालने लगते हैं।
विरोध प्रदर्शन का अधिकार किसी भी उदारवादी बहुलतावादी व्यवस्था का अपरिहार्य अंग है। हालांकि इस दिशा में हम अभी तक साधन और साध्य की पवित्रता के मर्म को आत्मसात नहीं कर पाए हैं। आखिर मार्ग अवरुद्ध करना या सार्वजनिक-निजी संपत्ति को क्षति पहुंचाना कैसे शांतिपूर्ण है? स्मरण रहे कि कोई भी लोकतंत्र विमर्श की धारा से ही विकसित होता है। ऐसे में विरोध प्रदर्शन का गैर-आंदोलनकारी स्वरूप विकसित करना और उनके शांतिपूर्ण प्रतिकार का दायित्व समाज और प्राधिकारी संस्थाओं का ही है। साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि विरोध प्रदर्शन को अपने मूल तत्व से विमुख नहीं होना चाहिए, क्योंकि वही आंदोलन की आत्मा होता है। यूं तो लोकतंत्र में कोई सरकार आलोचनाओं से किनारा नहीं कर सकती, लेकिन आलोचना सही आधार पर ही की जाए। वैसे भी हमारे विकासशील और विविधीकृत समाज में सत्तासीनों पर निशाना साधना बहुत आसान है। बावजूद इसके यह एक त्रासदी ही है कि हमारा राजनीतिक विपक्ष अभी तक वाजिब विरोध के लिए सही आधार तलाशने में नाकाम रहा है।
जहां तक विकास की बात है तो जड़ता उसमें सबसे बड़ी बाधक और निष्क्रियता उस पर सबसे खराब प्रतिक्रिया होती है। हमारा देश दशकों तक आवश्यक मुद्दों की अनदेखी का भुक्तभोगी रहा है। उस दौरान अकर्मण्यता राज्य की नीति का आधार प्रतीत होती रही। अब जब उस यथास्थितिवाद को चुनौती दी जा रही है तो उसके पैरोकारों को हो रही परेशानी आश्चर्य की बात नहीं।
राजनीति केवल चुनाव जीतने का कौशल नहीं, बल्कि शासन करने की एक कला भी है। शासन में आप सभी का तुष्टीकरण करने के बजाय कुछ निर्णय करते हैं, कुछ विकल्प चुनते हैं। अपने दूसरे कार्यकाल के डेढ़ साल के भीतर ही तीन तलाक और अनुच्छेद 370 की समाप्ति, सीएए, श्रम सुधार, कॉरपोरेट कर में कमी, नई शिक्षा नीति और कृषि सुधारों के माध्यम से इस सरकार ने यही दर्शाया है कि वह ठोस परिवर्तनों को दिशा देने से हिचकेगी नहीं। क्या शिक्षित मध्य वर्ग इसकी ही अपेक्षा नहीं कर रहा था?
हाल में राहुल गांधी ने किसानों को हिंदुस्तान का प्रतीक बताया। निःसंदेह किसान हिंदुस्तान के अभिन्न अंग हैं, परंतु यह देश उससे कहीं बढ़कर है। मेरा मानना है कि शिक्षित मध्य वर्ग के बिना हिंदुस्तान की कल्पना बेमानी है। यह बात अलग है कि राजनीतिक अंकगणित में कमजोर होने के कारण इस वर्ग की अक्सर उपेक्षा होती है। जबकि चाहे वेतनभोगी हो या स्वरोजगारी, ग्रामीण हो या शहरी, यही शिक्षित मध्य वर्ग हिंदुस्तान का सच्चा पूरक और प्रतिनिधि है। राजनीतिक रूप से कमजोर होने के बावजूद इस डिजिटल युग में वे जनमत और छवि निर्माण करते हैं। वे भारत की आत्मा हैं और जो राष्ट्र अपनी आत्मा को संतुष्ट नहीं कर सकता वह कभी प्रगति नहीं कर पाएगा। वास्तव में यही वर्ग नीति निर्माण के केंद्र में होना चाहिए। सुनिश्चित हो कि किसी भी आंदोलन से उसका जीवन गतिरोध का शिकार न बने। यही तबका राष्ट्र का पहिया है जो कभी रुकना नहीं चाहिए। उन्हें साथ लाए बिना कोई कायाकल्प संभव नहीं।
ऐसा नहीं है कि तंत्र पर सवाल उठाने के लिए मुद्दों का अभाव है। स्वच्छता, कराधान, बुनियादी ढांचा, कानून एवं व्यवस्था, रोजगार, न्यायपालिका, सरकारी सेवाओं का वितरण एवं गुणवत्ता, नीतियों और उनके क्रियान्वयन में खामियों जैसे तमाम मोर्चों पर सुधार की गुंजाइश है। ऐसे में राजनीतिक विरोधियों के लिए यही उचित होगा कि वे विरोध के लिए सही तरीका और उचित आधार तलाशें। अगर विपक्ष की आलोचना शिक्षित मध्य वर्ग की सोच से मेल नहीं खाती तो इसका अर्थ यही है कि इस वर्ग को उसकी विश्वसनीयता और विवेक पर संदेह है।
यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार देश के सामाजिक एवं आर्थिक परिदृश्य की कायापलट में बहुत तेजी दिखा रही है। कुछ लोग शायद उसकी विचारधारा से भले ही असहमत हों, परंतु वे सरकार पर यह आरोप नहीं लगा सकते कि वह कोई काम चोरी-छिपे कर रही है। वह अपने घोषित एजेंडे को मूर्त रूप देने के लिए संवैधानिक दायरे में ही काम कर रही है। उधर विपक्षी दलों का यदि यह दावा सही है कि सरकारी कदमों के समर्थन से ज्यादा लोग उनका विरोध कर रहे हैं तो वे इस असंतोष को भुनाते क्यों नहीं? कहावत है कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं, जबकि अब तो देश में कुछ महीनों के अंतराल पर कोई न कोई चुनाव होता ही रहता है। ऐसे में यदि सरकार से कोई नाराजगी है तो चुनावों में जनता उसे जता सकती है।
जो भी हो, हमारे देश को निष्क्रियता से अधिक सक्रियता की आवश्यकता है। कोई भी विचारधारा प्रगति की राह में अवरोध नहीं बननी चाहिए। संयम और मर्यादा विरोध प्रदर्शन में ढेर नहीं होनी चाहिए। आप दिन के प्रकाश का केवल इसलिए विरोध नहीं कर सकते कि वह अंधेरी दुनिया को रोशन करेगा।

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