मंगलवार, 14 जुलाई 2020

खाकी की गोद 'संपादकीय'

खादी एवं खाकी की गोद में पल रहे अपराधी एवं आतंक के प्राय बने विकास दूबे के अंत पर उठ रहे सवालों पर विशेष
  संपादकीय


उत्तर प्रदेश पुलिस एवं राजनीति के संरक्षण में पला बढ़ा शासन प्रशासन को अपनी जेब में रखने वाला रातोंरात अपने गाँव में पुलिस के अधिकारियों कर्मचारियों की सामूहिक नृशंस हत्या करने के बाद मोस्ट वॉन्टेड गैंगस्टर बने विकास दुबे का अंत आखिरकार उसी कानपुर की सीमा एवं उसी प्रदेश पुलिस की गोलियों से हो गया।जिस कानपुर से उसने खौफ का कारोबार शुरू किया था अन्ततः उसी जिले में ही कारोबार समाप्त हो गया। कहते हैं कि  कानपुर ही नही बल्कि अब मध्यप्रदेश बम्बई जैसे कई शहरों में उसके खौफ का कारोबार शुरू हो गया था और वह अपने विश्वासपात्र लोगों के माध्यम से सारे अपराधिक कारोबार को एक सम्राट की तरह सीना ठोंक कर चला रहा था।उसकी प्रदेश की राजनैतिक दलों से मधुर विश्वसनीय संबंध थे तो पुलिस में भी उस पर जान छिड़कने वाले उसके विश्वासपात्र खाकीधारी भी थे।खाकी एवं खादी के दामन में पल पोसकर दोनों के लिए सिरदर्द बनकर गले की हड्डी बने आतंक के युग का अंत हो गया जो जरूरी था।विकास अकेले प्रदेश में ऐसा अपराधी नहीं था जिसके आतंक से लोग आतंकित थे और खाकी एवं खादी का सरंक्षण प्राप्त है।इधर प्रदेश की राजनीति ही अपराधियों के बलबूते पर चलने लगी है और ऐसा कोई पक्ष विपक्ष की राजनैतिक पार्टी नहीं है जिसमें अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की सहभागिता न हो।राजनैतिक दल अपराधियों को अपने दल में शामिल कर अपने को बेझिझक गौरान्वित महसूस करने लगे हैं।इसमें दो राय नहीं है कि विकास दूबे एक खूंखार अपराधी था और हत्या कर आतंक फैलाना उसका पेशा बन गया है लेकिन विकास को यहाँ तक पहुंचाने वाले राजनेता एवं पुलिस भी उससे कम अपराधी नहीं है।विकास जैसे अपराधियों के साथ उनका भी अंत होना जरूरी है जो ऐसे लोगों को संरक्षण देकर अपराध और अपराधियों को बढ़ावा देते हैं।विकास अगर जिंदा होता तो यह पता चल सकता था कि उसे जीरो से सुपर हीरो बनाने में कौन कौन लोगों का योगदान था। हत्याकांड के बाद प्रदेश पुलिस को चकमा देकर नींद हराम कर देखते ही देखते लाखों का इनामियां बदमाश बने विकास की कहानी के अंत की शुरुआत उसके खुद किसी की जान बचाने की शह पर मध्यप्रदेश के उस शिवमंदिर में पहुंचते ही हो गई थी। जिसे कालो का काल महाकाल कहा जाता है और धारणा है कि वहाँ जाने वाले की अकाल मौत नहीं होती है। उज्जैन के शिव के मंदिर से  एसटीएफ की टीम उसे  लेकर कानपुर आ रही थी इसी दौरान एसटीएफ की गाड़ी पलट गई जिस पर आधा दर्जन से अधिक पुलिस कर्मियों की मौजूदगी में वह उनकी पिस्तौल छीनकर लगड़ा होने के बावजूद गोली बरसाते हुये भाग खड़ा हुआ और बाद में मुठभेड़ के बाद उसके जीवन की लीला का अंत हो गया।आतंक के प्राय बने विकास दूबे जानता था कि उत्तर प्रदेश पुलिस उसे मुठभेड़ दिखाकर मार देगी और इसीलिए वह घटना के बाद यूपी पुलिस से बचता रहा और आखिर में जिन्दा पकड़े जाने की ख्वाहिश में मध्यप्रदेश पहुंच गया और खुद अपना नाम उजागर कर दिया।उसे स्वप्न में भी विश्वास नहीं था कि रास्ते में ही अकाल काल के गाल में जाना पड़ेगा। उसे यह यकीन था कि यूपी पुलिस उसे जिंदा नहीं छोड़ेगी इसलिए उसके वकील ने उज्जैन में उसकी गिरफ्तारी होते ही मुठभेड़ में हत्या की आशंका जताते हुए जान बचाने की सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर दी थी।यूपी पुलिस और एसटीएफ की टीम ने शुक्रवार की सुबह कानपुर की सीमा के अंदर ही इस एनकाउंटर को अंजाम दिया।


लेकिन अब इस मुठभेड़ को लेकर कई बड़े सवाल उठने लगे हैं जिनके जवाब लोग अपने अपने अनुसार लगाने लगे हैं।सभी विपक्षी दल मुठभेड़ को फर्जी बताते हुए इसकी सीबीआई से जांच कराने की मांग करने लगे हैं।लोग चर्चा कर रहे हैं कि कानपुर की सीमा में आने के बाद एसटीएफ के काफिले की मात्र एक गाड़ी का एक्सीडेंट कैसे हो गया? अचानक गाड़ी पलटने से पीछे की गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त क्यों नहीं हुयी? क्या लगातार भागने वाला लगंड़ा  विकास दुबे इस हालत में था कि उसने एक्सीडेंट होते ही पुलिस के हथियार छीन लिए? आखिरकार उस बहू का क्या गुनाह था जो कुछ दिनों पहले ही उसके घर आई थी और उसे भी गिरफ्तार करके जेल में ठूंस दिया गया।
भोलानाथ मिश्र


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