सोमवार, 13 जुलाई 2020

'दुबे' योगी सरकार के गले की फांस

केपी सिंह


लखनऊ। विकास दुबे प्रकरण में सरकार की खोखली कार्रवाइयां उजागर हो गई। विकास दुबे ने कुछ ही दशकों में मामूली हैसियत से अरबों रूपये की संपत्ति जुटा ली थी। जबकि उसका अपराध क्षेत्र भी बहुत व्यापक नहीं था। विकास दुबे का गुर्गा जय वाजपेयी 6-7 साल पहले 4000 रूपये की नौकरी में गुजारा करता था लेकिन इतने कम समय में उसकी गिनती भी कानपुर के बड़े रईसों में विकास दुबे के करिश्में के बदौलत होने लगी थी। विकास दुबे और उसके जय वाजपेयी जैसे पलेतों का कारोबार अभी बदस्तूर चलता रहता अगर उसने थोक में पुलिस कर्मियों को शहीद न किया होता।


सच बात यह है कि न जाने कितने विकास दुबे पड़े हैं जो हर शहर और महानगर में गलत कार्य करके करोड़पति और अरबपति बन चुके हैं। अपराध और काले धन की इस समानान्तर व्यवस्था को तोड़ने में सरकार और प्रशासन की दिलचस्पी न तो कभी रही है और न है। अगर सरकार समय रहते इन्हें कानून के शिकंजे में जकड़ने के लिए तत्पर हो जाये तो न तो पुलिस कर्मियों को शहीद करके माफिया सरकार की नाक काट सकते हैं और न ही सरकार के लिए आम जनता जो कि कपोतव्रती है, को अंधाधुंध टैक्स के कुल्हाड़े से हलाल करने की जरूरत पड़ सकती है।



पहले की सरकारें अपराधियों की सरपरस्ती में खुले आम लगी रहती थी क्योंकि शार्ट कट में चुनाव जीतना और अपनी कई पुस्तों के लिए शाही बंदोबस्त करना उन्हें चलाने वाले सूरमाओं ने अपना मकसद बना रखा था पर वर्तमान केन्द्र और राज्य सरकार के कमांडर तो अलग फितरत के लोग लगते हैं जिन्हें न खुद जायदाद बनाना है और न ही अपने खानदानियों को सत्ता कैश कराने की छूट देना गवारा है। फिर ये लोग गलत काम करने वालों पर कृपालु क्यों हैं यह एक रहस्य है।



केन्द्र सरकार के पास सीबीआई, आयकर, ईडी आदि तमाम सरंजाम है। अगर व्यवस्था बदलनी थी तो उसे रातोंरात कुबेर बने लोगों की कुंडली जांचने का अभियान चलाना चाहिए था। चुनाव के पहले तो सत्तारूढ़ पार्टी के नेता दम भरते थे कि देश में इतना काला धन है जो बरामद कर लिया जाये तो नये टैक्स लगाना तो दूर सरकारी खजाने में इतना माल आ जायेगा कि हर नागरिक के खाते में 15-15 लाख रूपये की रकम पहुंचायी जा सके। लेकिन जब पार्टी सरकार में आ गई तो कालाधन बाहर निकालने की जिम्मेदारी को लेकर उसने अपनी आंखे मूंद ली। इन मामलों में कार्रवाई करने वाले उसके विभाग केवल प्रतिद्वंदी पार्टियों के नेताओं के दमन तक अपने सरोकार समेटे हुए हैं। भाजपा के प्रति लोगों में इसी कारण मोह भंग हो रहा है जबकि उसके इकलौते बचे विश्वास के भी हश्र को देखने की परिणति लोगों की लोकतंत्र में अनास्था के रूप में सामने आ सकती है जो कि काफी खतरनाक होगा।


राज्य सरकार का भी यही आलम है। लोकायुक्त, एन्टीकरप्शन, भ्रष्टाचार निवारण संगठन, आर्थिक अपराध अनुसंधान संगठन आदि का लम्बा तामझाम उसने सफेद हाथी बनाकर रख छोड़ा है। विकास दुबे प्रकरण के बाद भी सरकार जागती नहीं दिखाई दे रही है जबकि उसे अपने इस भारी भरकम तंत्र को पहले से ही नव धनाढ़यों की जांच में लगा देना चाहिए था।             


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