गुरुवार, 26 मार्च 2020

एक और वायरस 'समसामयिक'

जब जिंदगी पर बाजारी कलाओं का तानाशाहनुमा कब्जा!


आज का सच भी कि कुछ भी बहुत ज्यादा हो जाना अच्छा नहीं माना जाता है!


कुदरत का नियम है, कुल आसक्ति की चरम स्थिति के बाद विरक्ति शुरू होती!


अब वक्त आ गया कि इस असामाजिक रास्ते को छोड़ दें,ओर जिंदगी के बारे चिंतन करें!


संचार व्यवसाय की बाजारी ताकतों ने काफी पहले दुनिया पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। कहा जाने लगा था कि दुनिया मुट्ठी में सिमट गई है। सही तरीके से हिसाब किया जाए तो संचार व्यवस्था का गहन प्रभाव रोम-रोम में घुस चुका है। इस बारे में परिवार की परिधि से बाहर बात करने में तो संजीदगी गुम रहती ही है, परिवार के सदस्यों से कहता हूं कि ज्यादा समय सोशल मीडिया का दास बने रहना जिंदगी के लिए ठीक नहीं, तो सभी को लगता है कि कोई गलत सलाह दे डाली। युवा वर्ग रास्तों पर चलते-फिरते, लेटे हुए, सुबह जाग कर वाट्सऐप या ‘फेकबुक’ पढ़ रहा होता है। अधिकांश कार्यस्थलों पर समय निकाल कर यह ‘जरूरी काम’ करना पड़ रहा है। अब पारिवारिक या आपसी संवाद तेजी से लुप्त हो रहा है।पिछले दिनों पत्नी के साथ अपने एक घनिष्ठ मित्र से मिलने उनके शहर गया। हमारे घरों के बीच की दूरी लगभग ढाई सौ किलोमीटर है। उनसे व्यक्तिगत रूप से मिले काफी अरसा हो गया था, वे बुलाते रहते और हम वादा करते रहते। आखिर वह ‘शुभ दिन’ आया, यात्रा शुरू हुई। यात्रा के दौरान उन्होंने कई बार पूछा कि कहां पहुंचे। खैर, कई घंटे लंबा, खराब सड़कों से होते हुए सफर पूरा कर पहुंचे। हाथ मिलाया, गले मिले, अपना, बच्चों का हालचाल पूछा, बताया। चाय-नमकीन सब लगभग एक घंटे में निपट गया। उसके बाद सब सोशल मीडिया के रास्तों पर जरूरी काम निबटाने में लग गए। अपार शांति के बीच मित्र ने पूछा- ‘और सुनाएं नई ताजी’, तो मैंने कहा- ‘बाकी सब ठीक है’। दोनों महिलाएं अत्यधिक व्यस्त रहीं। रात का खाना खाने बाहर जाना था। दिमाग बार-बार यह कह रहा था कि सोशल मीडिया का कम प्रयोग करने वाले या प्रयोग न कर सकने वाले बहुत से लोग समाज में ‘आउटडेटेड’ हो चुके हैं।यह बहुत अफसोस की बात है कि हमारे धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक नायकों के बेहद संकीर्ण जातीय, सांप्रदायिक, धार्मिक, क्षेत्रीय, पारिवारिक, 
राजनीतिक नजरिए के कारण ही ज्यादातर भारतीय उपभोक्ताओं द्वारा फेसबुक, यूट्यूब, वाट्सऐप और इनके साथियों का सकारात्मक उपयोग नहीं किया गया। ऐसा लगने लगा है कि सोशल मीडिया, अब सोशल नहीं रहा, बल्कि ‘एंटी-सोशल’ यानी समाज-विरोधी मीडिया में तब्दील हो चुका है। बीते समय में इन माध्यमों पर लोगों द्वारा आपस में नफरत के करोड़ों जहर बुझे तीर छोड़े गए हैं।समाज-विरोधी मीडिया की बंजर धरती पर अनगिनत ट्रोल करने वाले यानी परेशान करने वाले अवांछित तत्त्व कंटीली घास की तरह उग आए हैं, जिन्होंने दूसरों को निरंतर चुभन के अलावा और कुछ नहीं दिया। व्यक्तिगत, समूह और संस्था स्तर पर समाज-विरोधी मीडिया के मंच पर स्वयंभू समझदारों की अफवाहों, फर्जी खबरों, नकली वीडियो, अपशब्द, बदतमीजियों और गुस्ताखियों की भरमार ने नैतिकता, मानवता, प्रेम, देशप्रेम, इंसानियत और आपसी विश्वास की लगातार तौहीन की है। यह बेहद अफसोसनाक रहा कि कितने ही प्रसिद्ध, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक हस्तियों ने भी अपनी बदजुबानी की कड़वाहट की आहुति डाल कर समाज-विरोधी मीडिया को समाज के खिलाफ बनाया। देश में तनाव, टकराव और हिंसा की जो घटनाएं सामने आ रही हैं, उससे साफ है कि अब समाज-विरोधी मीडिया की आसक्ति को विरक्ति के रास्ते भेजने का समय आ गया है।
हर वक्त कहीं न कहीं, कोई न कोई किसी से कह रहा होता है कि इन सभी ने मिल कर हमारी जिंदगी में खलल डाला है। क्या इतनी खूबसूरत जिंदगी में यह ठहराव भी आना था कि फेसबुक के चेहरे तो हमारे मित्र हो गए, लेकिन रास्ते में पास से वे गुजरे तो देखा तक नहीं। इसका गलत प्रयोग के बारे में उपदेश बहुत दिए जाते हैं। लेकिन यह किसी नेता के भाषण की तरह होता है, जिसे सुनते हुए भी लोग मोबाइल पर वीडियो देखते या बनाते रहते हैं। समाज-विरोधी मीडिया पीड़ितों को बीमार मान कर उनका इलाज करने के लिए अनेक क्लिनिक खुल चुके हैं। मानसिक चिकित्सा के आर्थिक विशेषज्ञ मैदान में आ चुके हैं। एक बार मिलने वाले मानव जीवन में अमानवीय दुष्परिणामों से वाकिफ होने के बावजूद अधिकतर लोग प्रेरणा नहीं लेते। आम लोगों को वैसे भी एक चामत्कारिक प्रेरक व्यक्तित्व की जरूरत होती है, जो उनके जीवन में बदलाव लाने की कुव्वत रखता हो।लेकिन जब जिंदगी पर बाजारी कलाओं का तानाशाहनुमा कब्जा हो, तो दिमाग सोचना बंद कर देता है। यह आज का सच भी है कि कुछ भी बहुत ज्यादा हो जाना अच्छा नहीं माना जाता है। कुदरत का नियम है, कुल आसक्ति की चरम स्थिति के बाद विरक्ति शुरू होती है। अब वक्त आ गया है कि इस असामाजिक रास्ते को छोड़ दें, अपनी जिंदगी के बारे चिंतन करें। दूसरे जरूरी क्षेत्रों में ज्यादा मेहनत करें, ताकि सही समाज की रचना फिर अंकुर ले सके। आम आदमी के लिए मिलने-जुलने, पत्र लिखने, सद्भाव बढ़ाने, स्वस्थ रहने, ईर्ष्या, द्वेष और वैमनस्य से बचने के मार्ग प्रशस्त करने की घड़ी आ गई है। इससे जरूरी धन बचेगा, मानवीय तन का क्षय रुकेगा और मन भी पवित्र रहेगा।


तस्लीम बेनकाब


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Thank you, for a message universal express.

पायलट ने फ्लाइट अटेंडेंट को प्रपोज किया

पायलट ने फ्लाइट अटेंडेंट को प्रपोज किया  अखिलेश पांडेय  वारसॉ। अक्सर लोग अपने प्यार का इजहार किसी खास जगह पर करने का सोचते हैं। ताकि वो पल ज...