मंगलवार, 4 फ़रवरी 2020

पतित-पावन उपन्यास'

पतित पावन   'उपन्यास' 
गतांक से...
 स्वराज दरवाजा खोल कर दलान में होता हुआ, पढ़ने वाले कमरे में चला आता है। जहां पहले से ही जया और कल्पना मौजूद थे। कुछ ही समय पश्चात आश्चर्य भी आ गए। सभी ने सादर सहित नमस्कार किया और अब अपने स्थान पर बैठ गए। अध्यापक के सिर पर 'नेहरू वाली टोपी' थी। थोड़ा ढीला-सा पायजामा, गले में जनेऊ और रुद्राक्ष की माला, बड़े से सीसो का चश्मा और बड़ी-बड़ी मूछों के साथ, भौंहे भी एक दूसरे में लिपट रही थी। उस पर खन्ना कट कुर्ता, भले ही खादी का था। अध्यापक की गरिमा का एहसास होता था। 
हरीश चंद्र शर्मा ने अज्ञानता से कहा- यह कौन है?
 जया ने स्थिति के अनुसार स्वयं ही उत्तर देना उचित समझा- गुरु जी, यह रतिराम की लड़की है सबसे बड़ी है। पढ़ने की इच्छा इसे यहां खींच लाई है।
 हरीश चंद्र शर्मा ने भौंहें सिकोड कर जया की तरफ देखा और नाक बनाते हुए कहा- नहीं यह शिक्षा कैसे प्राप्त कर सकती है? यह इसके योग्य नहीं है। इस का रहन-सहन, सामाजिक परिवेश। देख रहे हो तुम, इसके वस्त्रों से दुर्गंध आ रही है।
 स्वराज ने विनम्रता पूर्वक कहा- गुरुदेव यह इसलिए इस के योग्य नहीं है कि एक गरीब मजदूर की पुत्री है। आप इसे नीच जाति की समझते हैं। इसके वस्त्रों से बदबू आ रही है। इसलिए गुरुदेव! बुरा ना मानिए, बदबू तो आपके भी कपड़ों से आ जाएगी। आपको कुछ दिन तक इनके जैसे जीवन का आभाष करना चाहिए। जब मनुष्य के सामने आर्थिक परेशानी होती है तो इस प्रकार के पात्र-अपात्र से जुड़े हुए प्रश्न स्वयं प्रकट हो जाते हैं। मेरे विचार से तो शिक्षा पर जितना अधिकार मेरा है, उतना ही कल्पना का भी है। बल्कि शिक्षा सबके लिए है,उसको प्राप्त करने का सबको अधिकार होना भी चाहिए और आप तो विद्वान अध्यापक है। आपके नाम की ख्याति तो दूर-दूर तक फैली हुई है। आपके जैसे आचार्य तो सैकड़ों आचार्य में एक होते हैं। आचार्य हरिश्चंद्र के भीतर अल्प अहंकार जागृत हो गया और आवेशित मुद्रा में स्वराज से कहा- तुम हमसे बहस कर रहे हो, तुम्हारे मन में हमारे प्रति कोई आदर नहीं है, कोई सम्मान की भावना नहीं है। तुम विवेकपूर्ण निर्णय करने में समर्थ नहीं हो। शायद तुम्हें इस बात की भनक नहीं है, जिस मनुष्य के पास खाने की उचित व्यवस्था ना हो, पहनने को पर्याप्त वस्त्र ना हो, वह शिक्षा कैसे ग्रहण कर पाएगा?
 स्वराज ने विनम्रता से ही उत्तर दिया- गुरुदेव आपने कल्पना की भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया है। भावनाओं को ध्यान में नहीं रखा, गुरुदेव मैं आपसे बहस नहीं कर रहा हूं और मैं इस योग्य भी नहीं हूं। मैं केवल आपसे यही कहना चाहता हूं आप तो आचार्य है। अध्यापक हैं आप शिक्षा का अनुदान कर रहे हैं। इसमें उचित-अनुचित का क्या भेद है। हम तीनों में से कौन आपकी शिक्षा आपकी विचारों के अनुसार ग्रहण करता है और कौन विचारों के विपरीत ग्रहण करता है। इसका अनुसरण कैसे कर सकते हैं आप? यह तो केवल विद्यार्थी पर निर्भर होता है कि वे शिक्षक के द्वारा दिए विज्ञान को किस प्रकार ग्रहण करता है और किस प्रकार जीवन में उसका उपयोग करता है। यदि आचार्य अध्यापक गुरु भी द्वेष भाव को बढ़ावा देंगे तो क्या शिक्षा के प्रति शिष्य भटक नहीं जाएगा। जहां द्वेष है वहां शिक्षा का क्या संबंध है। यदि शिक्षा है तो फिर द्वैष का क्या अर्थ होता है? इन दोनों में तो विरोध प्रकट होता है। यदि आप द्वैष पूर्ण इस प्रकार की बात कर रहे हैं तो फिर आप से किसी को शिक्षा ग्रहण करना ही नहीं चाहिए। इसके लिए मैं तो पूरी तरह अपात्र हूं। किंतु आचार्य जी जिस प्रकार अध्यापक में हीन भावना व्याप्त रहती है। वह शिक्षक शिक्षा के मर्म को नहीं जानता है। शिक्षा अध्ययन है, अध्ययन का भौतिक अनावरण एक शिक्षक का कार्य होता है। वेशभूषा अथवा रहन-सहन से किसी व्यक्ति के ज्ञान का आकलन नहीं किया जा सकता है। जहां श्वेत वस्त्रों में अस्त व्यस्त अध्यापक हीन भावना से ग्रस्त है। वहां वेदना के मर्म का कोई मोल नहीं है।
 जया उदारता पूर्वक बोली- गुरुदेव आप इसे पढ़ाना नहीं चाहते हैं और हमें लगता है कि हमें आपसे ही नहीं पढ़ना चाहिए। यदि आपके मन में विद्यार्थियों के प्रति हीन भावना व्याप्त है। तब आप हमें शिक्षा नहीं दे सकते हैं। आचार्य हरिश्चंद्र स्वराज की तरफ एकटक देखता रहा किंतु कुछ कहा नहीं। जया की उद्दंडता पर उन्होंने थोड़ी सी आंख जरूर तेरेरी। लेकिन जया को भी कुछ नहीं कहा। 
जया ने स्वराज से कहा- आचार्य से बहस करना अनुचित है।
 कल्पना ने हाथों से सभी को रुकने का इशारा किया और कहा- आचार्य जी, अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूं?
 आचार्य हरिश्चंद्र लज्जित मुद्रा में बोले- कहो।
 कल्पना पूर्ण शालीनता से बोली- आचार्य जी जितना भी ज्ञानदान आप के पल्ले था। आपके दिमाग में था सबका सब आप सिखा चुके हैं। अबके आपके पास अब अज्ञान ही अज्ञान है। आपने जो भी कहा, वह आप की मनोदशा है। आपने बता दिया है कि आपके विचार कितने उन्मुक्त है? आचार्य जी, पढ़ाई में मान-सम्मान नहीं होता है और आप एक आचार्य है। आप शिक्षा के संवाहक नहीं शत्रु है। आपको अपनी परिभाषा का पूर्ण ज्ञान नहीं है। पूरी जानकारी नहीं है आपके पास।
 आचार्य कल्पना की तरफ क्रोधित मुद्रा में देखने लगा। कल्पना भी आचार्य को वैसे ही ताड़ रही थी। स्वराज और जया की नजरें भी आचार्य पर ही गडी रह गई थी।


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