शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

भारत की प्रथम महिला अध्यापिका

नई दिल्ली। पूरा सोशल मीडिया देश की पहली महिला शिक्षिका को याद करेगा। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में क्या चर्चा होगी ये आप जानतें हैं। पिछले 4-5 सालों में प्रगतिशील समुदाय ने उन लोगों पर फोकस किया है जिनका योगदान तो देश और समाज के हित में था लेकिन उनको उतनी ख्याति नहीं मिली। या जानबूझकर उनको अनदेखा किया गया। 3 जनवरी 1837 को महाराष्ट्र में जन्मी बहुजन नायिका सावित्रीबाई फूले की छवि प्रथम महिला अध्यापिका, नारी मुक्ति आंदोलन की प्रथम नेता, समाजसुधारक और लेखिका के रूप में है। जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फूले, सगुणाबाई, फ़ातिमा शेख़ और अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर अस्पृश्यता, सतीप्रथा, बाल-विवाह, विधवा विवाह निषेध और स्त्री शिक्षा के लिए उल्लेखनीय कार्य किया है। सावित्रीबाई के संबंध में एक घटना है "जब वे छोटी थी तो एक बार किताब पढ़ने की कोशिश की, जिसके कारण उनके पिता ने उस किताब को छीनकर आग के हवाले कर दिया और उन्हें डांटे हुए कहा कि 'महिलाओं का जन्म केवल पुरुषवर्ग की सेवा के लिए हुआ है।' उस समय बालिका सावित्रीबाई ने अपने पिता की बातों का कोई विरोध नहीं किया लेकिन बाद में अपने पति ज्योतिबा फूले द्वारा उसी बात के प्रतिरोध स्वरुप शिक्षा प्राप्त की।  तथा समाज के संकीर्ण मानसिकता वाले नियम को तोड़ते हुए देश में प्रथम महिला विद्यालय की शुरुवात की तथा उसमे उन्होंने अध्यापिका का भी कार्य किया।  उनके इस कार्य के कारण समाज के लोगों से लगाय परिवार तक के लोगों के अनैतिक व्यवहार का सामना करना पड़ा। कुछ महिलाओं और लोगों द्वारा उनके ऊपर पत्थर और गोबर भी कई सालों तक लगातार फेंका गया। लेकिन सावित्रीबाई ने हार नहीं मानी और अपने कार्य में लगी रहीं। उन्होंने इसके बाद कई विधवा स्त्रियों की शादी करवाई और विधवा स्त्रियों के मुंडन करने की ओछी प्रथा के विरुद्ध आंदोलन भी किया और उसे समाप्त भी करवाया। उन्होंने उसी समय अपने पति के साथ मिलकर एक विधवा आश्रम भी खोला। अपने पति के मृत्युपरांत अपने हाथों उनका अंतिम संस्कार करके उन्होंने हज़ारों सालों से चली आ रही परंपरा को तोड़ दिया और हिन्दुधर्म के नियमों को प्रत्यक्ष चुनौती देते हुए समता की नींव रखी। 1897 में पूना प्लेग के दौरान रोगियों की सेवा का भी कार्य किया तथा इस समय उन्होंने 2000 रोगियों के लिए प्रतिदिन भोजन बनातीं थी। इसी दौरान उन्हें भी प्लेग का संक्रमण हो गया तथा उन्होंने 10 मार्च 1897 में यह लोक छोड़ दिया।


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