गुरुवार, 14 नवंबर 2019

पराविद्या की दीक्षा

गतांक से...
 मेरे पुत्रों देवी ने कहा कि प्रभु क्या चाहते हो? ऋषि ने वेदों का ही उद्घोष करते हुए कहा कि मेरी इच्छा यह है कि राजकुमारों को अपने यज्ञ में रक्षार्थ ले जाना चाहता हूं। ताकि मेरा धनुयज्ञ संपन्न हो सके। उन्होंने कहा कि नाना प्रकार के यज्ञों में प्रवृत्ति, जागृति होगी। मानव समाज ऊंछा बनेगा। जब इस प्रकार "दिव्याम् भुताम् दिव्यं बहे" जब उन्होंने कहा कि राजकुमारों को प्रदान कीजिए। राजा ने कहा यह बालक तो किशोर है और यह आपके यज्ञ को कैसे संपन्न कराएंगे? आप के यज्ञ को मैं संपन्न कर आऊंगा। तो देवियों ने कहा। हे राजन, इस यज्ञ का नाम धनुरयज्ञ है और धनुरयज्ञ जो होता है वह युवा पुरुषों का होता है। यज्ञ ब्रह्मचारी के द्वारा पूर्ण होता है। इसको पूर्ण करने के लिए अपने में याज्ञिक बने रहते हैं और अपने में उसका क्रियाकलाप उधरवा को प्राप्त होता है। उन्होंने कहा बहुत प्रियतम देवियों ने प्रार्थना की। राजा ने मोहबस इसका उदगीत नहीं गया। तो कौशल्या जी ने कहा "अमृतां  दिव्यं ब्रह्मे:" हमारे गर्भ से उत्पन्न होने वाले बालक, यदि ऋषि की सेवा नहीं कर सकते। तो हमारा गर्भाशय दूषित हो जाएगा। माता कौशल्या ने यह कहा तो राजा मौन हो गए। कर्तव्यवाद में ममता नहीं हुआ करती। कर्तव्यवाद में एक मानत्व रहता है और आत्मा विशुद्ध रहती है। मेरे पुत्रों, जब उन्होंने यह वाक्य कहा तो राजा ने राजकुमारों को प्रदान कर दिया। तो चारों राजकुमारों ने शिक्षा के लिए वहां से प्रस्थान किया। सब को आशीर्वाद देकर महर्षि ने वहां से गमन किया और वे दंडक वन में यज्ञ के लिए तत्पर हो गए। धनुरयाग क्या है? धनुरयाग उसे कहते हैं जहां वैज्ञानिकजन,विद्यार्थीजनों को धनुर्विद्या का अभ्यास कराते हैं। और जहां शास्त्रों का निर्माण होता है। यहां प्रातः कालीन यज्ञ होता है और उसके पश्चात धनुरयाग में परिणत होकर के अपने में महानता को वैगमन्न करते रहते हैं ।इसमें राष्ट्र का बड़ा सहयोग रहता है। विचार आता रहता है कि हमारे यहां यज्ञ अपनी स्थिति में बड़ा विचित्र माना गया है विभिन्न प्रकार के यज्ञों का चयन होता रहता है। तो विचार आता है कि हम यज्ञ में परिणत हो जाए और यज्ञ को दृष्टिपात करते हुए अपने में एकीकरण हो जाए। यज्ञ की भिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया बन जाती है। विचार आता रहता है कि "यज्ञम मन्यु:  प्रब्रौही:" मेरे पुत्रों देखो यज्ञ होना चाहिए। उन्होंने धनुष यज्ञ किया, धनुरयज्ञ के पश्चात वे अपने "क्रिया कलापं ब्रहे:" पुत्रों और पुत्रियों को उपदेश दिया करते थे और वे पुरोहित बनकर के ब्रह्मविद्या और धनुर्विद्या को प्रदान करते रहते थे। मुझे स्मरण आता रहता है। बेटा मैं ऋषि वशिष्ठ मुनि के आश्रम में विज्ञान के कुछ यंत्र थे। अमृतां मन्यू: आस्तेह:" विश्वामित्र दंडक वन में पहुंचे। दंडक वन में अन्वेषण हो रहा है, अनुसंधान हो रहा है, विचार-विनिमय हो रहा है कि एक यान ऐसा निर्माण किया जाए। जिस यंत्र में विधमान होकर के वैज्ञानिक लोको में जाए, यात्री लोको की आभा में भ्रमण करता हुआ। अपने में लोक-वेता बन जाता है। मेरे पुत्रों इस प्रकार का विज्ञान ऋषि के आश्रम में था। ऋषि विश्वामित्र अपने में प्रसन्न रहते थे। विचार यह है कि धनुरयज्ञ वह हैं, जहां धनुर्विद्या की शिक्षा को प्रदान किया जाता है। 


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