मंगलवार, 19 नवंबर 2019

पराविद्या की दीक्षा

गतांक से...
देखो माता सीता के जीवन को नाना प्रकार की उद्गीथ का स्मरण आता रहता है। जब ऋषि के आश्रम में अपने बालकों को राजकुमारों को विद्या अध्ययन कराती थी और वे विद्या अध्ययन करके अस्त्रों-शस्त्रों की विद्या में निपुण होकर जब ग्रह में गए। तो उनका वास होता है, होता रहता है, होता रहेगा भी। परंतु यह प्रणाली ऐसी नहीं है, राजा विश्वसनीय आएगा, तो यह प्रणाली पुनः स्थापित कर सकेगा। परंतु मैं यह विचारता रहता हूं कि उनका मत साहित्य में वाम मार्ग के काल में शुद्धता आ गई। परंतु यह विचार में नहीं आ रहा है मैंने अपने गुरुदेव से कई समय प्रश्न किए हैं और उन्होंने भली-भांति उत्तर दिए हैं और वे इस प्रकार है कि माता सीता वेद विद्यालयों में संतानों को उपार्जन करना। आश्रम में महर्षि बाल्मीकि अस्त्रों-शास्त्रों में विज्ञानवेता और आयुर्वेद के मर्म को जानने वाले आयुर्वेद में प्राय: कहलाते थे। आयुर्वेद विद्यालय में तो मेरी पुत्रियों की संतानों का जन्म होता रहा है। मुझे मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने निर्णय कराते हुए कहा है कि राष्ट्र की यह प्रणाली में राजा को राष्ट्र के वैभव को हनन करने का यह अधिकार नहीं होता है कि मेरी पुत्रियों के श्रृंगार को राजा को अपने ऐश्वर्या में परिणित करते चले जाए। यह प्रणाली मानव कुछ समय की प्रणाली है। यह परंपरा की प्रणाली नहीं है। राजा स्वयं ऐसा उद्योग उद्गम करता रहा है और उद्गम करके पृथ्वी 'वसुंधरा' के गर्भ में इत्यादि को उत्पन्न करता रहा है। उनको पान करते रहे हैं और राजा प्रजा में भ्रमण करता हुआ, अपने अस्तित्व और राष्ट्र को ऊंचा बनाता रहा है। मैं आज विशिष्टता में इस संबंध में जाना नहीं चाहता हूं। विचार केवल यह है कि हमारे यहां बहुत उधरवा में परंपरा रहिए। क्योंकि मनु महाराज ने भी इस संबंध में प्रणाली को निर्धारित किया। यह राष्ट्र की प्रणाली को आज मानव अपने से ओझल करता चला जा रहा है। इसलिए राजा और प्रजा सर्वत्र चिंता में मगन हो करके, यह राष्ट्र अग्निकांड की प्रतिभा में रत होने के लिए तत्पर हो रहा है। विचार आता रहता है मेरे पूज्य पाद गुरुदेव ने कई काल में प्रकट भी कराया है। आज मैं उस आभा में जाना नहीं चाहता हूं। विचार केवल यह है कि वाममार्ग अपने को समाज को जागना चाहिए। उदृष्टि बनकर के कर्तव्य बाद में रत हो जाए। क्योंकि कर्तव्य में मानव की प्रतिभा, कर्तव्य ही आत्मीयता है। कर्तव्य ही राष्ट्रवाद है और कर्तव्य ही समाज को आनंद की वृत्ति में परिणत करा देता है। अब मैं अपने से आज्ञा पाऊंगा, क्योंकि मेरे पूज्य पाद गुरुदेव जी जब उड़ाने उड़ते हैं। तो वे बड़ी विचित्र उड़ाने उड़ने लगते हैं। विचार यह है कि विश्वामित्र महाराज अपने 84 ब्रह्मचारियों को धनुर्विद्या का अध्ययन कर आते रहे। राम के काल में देखो ऐसे ऐसे 236 विद्यालय है। धनुर्वेद की विद्याओं को प्रदान किया जाता था और उसमें अस्त्रों का ज्ञान विज्ञान अंतरिक्ष में उड़ाने और एक-एक में यंत्र का निर्माण करना। यह परमाणु अनु विद्या को जानने वाले, उस समय अभ्युदय होते रहे और राष्ट्र को ऊंचा बनाते रहे। इस प्रकार के विद्यालय प्राय: होने चाहिए। जिससे पुन: रामराज्य की प्रणाली में यह समाज परिणत हो जाए और मानव अपने में सुखद अनुभव करने लगे तथा अपनी-अपनी आभा में रत रहना चाहिए। ऐसा मेरा सदा यह विचार रहता है अब मैं अपने गुरुदेव से आज्ञा पाऊंगा। मेरे प्यारे ऋषिवर महानंद जी ने अपने भव्य विचार प्रकट किए। विचारों में एक विडंबना यह राष्ट्र और समाज दोनों पवित्र कैसे बने? हम प्रार्थना करते रहते हैं कि राष्ट्र पवित्र बन जाए, मानव और मानव में प्रीति युक्त होकर के इस संसार की प्रतिभा में ज्ञान को अपने में समाहित करते रहे। ताकि विचार पवित्र रहे। क्योंकि समाज जब ऊंचा बनता है, तो ज्ञान में और अध्यात्मिक विज्ञान से ऊंचा बनता है। भौतिक विज्ञान भी होना चाहिए। उस भौतिक विज्ञान में परमपिता परमात्मा की पुट लगी रहनी चाहिए। जिससे भौतिक विज्ञान में मानव को अभिमान न आ जाए। क्योंकि अभिमान ही मृत्यु है। अभिमान ही संसार में रक्त में वृद्धिधारा कहलाती है। आज का विचार संपन्न होने जा रहा है। वेदों का पठन-पाठन होगा।


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