शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

ऋत्विज अथवा ऋतुओ का यजन

अनेक प्रकार के यज्ञ हुआ करते थे। यज्ञ उस युग का सबसे बड़ा सांस्कृतिक समारोह होता था। ये यज्ञ साधारण भी होते थे--और असाधारण भी। कुछ यज्ञों को तो राजा-महाराजा ही कर सकते थे, जैसे अश्वमेध, राजसूय, आदि। पर कुछ यज्ञ नियमित रूप से सब आर्य गृहस्थों को करने पड़ते थे। इन यज्ञों का क्रम गोपद ब्राह्मण में इस प्रकार बताया गया है-


अग्न्याधान, पूर्णाहुति, अग्निहोत्र, दशपूर्णयास, आग्रहायण (ग्ववसस्येष्ठि) चातुर्मास्य, पशुवध, अग्नि-ष्टोम, राजसूय, बाजपेय, अश्वमेध, पुरूषमेध, सर्वमेध, दक्षिणावाले बहुत दक्षिणा-वाले और असंख्य दक्षिणावाले।


इनमें अग्न्याधान और अग्निहोत्र प्रतिदिन के यज्ञ थे। हर अमावस और पूर्णिमा के दिन दशपूर्णमास यज्ञ होते थे। फाल्गुन पूर्णिमा, आषाढ़ पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा को चातुर्मास्य यज्ञ किये जाते थे। उतरायण-दक्षिणायन के आरम्भ में जो यज्ञ होते थे--वे आग्रहायण वा नवसस्येष्ठि यज्ञ कहलाते थे। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के उद्देश्यों को लेकर भिन्न-भिन्न यज्ञ होते थे। यह आग्रहायण या नवसस्येष्ठि यज्ञ ही आगे दीपावली का त्यौहार बन गया।


यज्ञ चाहे छोटे हैं या बड़े, पर्वों ही में होते थे। पर्व, जोड़ या संधि को कहते हैं। यह सन्धि पर्व ऋतु और काल सम्बन्धी हुआ करती थी। सायं-प्रात: संधि, पक्ष संधि, मास संधि, ऋतु संधि, चातुर्मास्य संधि, अयन संधि, पर यज्ञ होते थे। ये संधियाँ पर्व कहाती थीं। यज्ञ समाप्ति पर अवभृथ स्नान होता था। अब यज्ञों की परिपाटी तो बन्द हो गई है, पर पर्वों पर विशेष तीर्थों पर स्नान अब भी धर्म कृत्य माना जाता था।


कार्तिक पूर्णिमा, वैसाखी पर्व, कुम्भ पर्व आदि में आज भी हरिद्वार-प्रयाग नासिक आदि क्षेत्रों में बड़े-बड़े स्नान होते हैं। कार्तिक पूर्णिमा का गंगा स्नान बहुत प्रसिद्ध है। आर्यों में उतरायण और दक्षिणायन का बहुत विचार किया जाता था। `नान्य: पन्था विद्यतेस्नाय' ऋतुओं में ही यज्ञ करने से यज्ञ कर्ता का नाम ऋत्विज अर्थात ऋतुओं में यजन करने वाला प्रसिद्ध हुआ। यजन से यज्ञों में ज्योतिष ज्ञान की आवश्यकता पड़ती थी, तथा यज्ञ समारोहों ही से ऋतु के साथ ग्रहनक्षत्रों के परिवर्तन का पता चल जाता था। मधुश्च माध्वश्च वासन्ति कावृतू (१३/२५) शुक्रश्च शुविश्च श्रेष्मावृतू (१४/६) नभश्च नभश्यश्च वार्षिकावृतू (१४/१५) तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू (१५/५७) (यजुर्वेद १५/५७) द्वेसूती अश्रुष्वं पितृणांमहं देवानायु (युजु १९/४०) षड़ाहु: शीतान् षडु यास उष्णनृतुं बूत (अथर्व ८/९/१७) दीवाली अयन परिवर्तन का त्यौहार है। इस समय सूर्य दक्षिणायन होते हैं। साथ ही नयाशस्य--धान्य आता है, इसलिए खील खाई जाती है, तथा दीपोत्सव मनाया जाता है। दिवाली के बाद गोवर्धन होता है। यह घरेलू पशुओं के पूजन का त्यौहार था, जिसे पशुन्द्य यज्ञ कहते थे। इसके बाद यम द्वितीया है, जब भाई बहिन के घर जाता है। यह यम-यमी की स्मृति में है। जिसका उल्लेख देव में है। लक्ष्मी पूजा दिवाली पर लक्ष्मी पूजा होती है। यजुर्वेद के।।। श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पल्या, प्रसिद्ध मन्त्र है। इसमें श्री और लक्ष्मी नाम की दो वेश्याओं का उल्लेख है। महीधर उवट भाषा में यही लिखा है। कालान्तर में श्री नामी देवी के अंशों को दुर्गा-काली, भवानी, भैरवी, चण्डी, अन्नपूर्णा, चामुण्डा आदि रूप कल्पित कर लिए गए।


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