गतांक से...
विचार यह चल रहा था कि हम अपने प्रभु का गुणगान गाने वाले बने! अपने प्रभु की निहारिका मानो उसके विज्ञान में रत रहना चाहिए! वह कितनी विशाल ज्ञान-विज्ञान की धाराएं हैं, जिन्हें मानव अपने में धारण करके अंतर्मुखी बन जाता है! तो राम ने कहा कि राजा वह होता है जो अपने विचारों को गोपनीय बना लेता है और गोपनीय जो विषय होते हैं! वही मानव के जीवन का उद्धार करते हैं! इसलिए हम परमपिता परमात्मा की आराधना करते हुए राष्ट्र का पालन करते चले जाएं! राष्ट्र दूसरे के वैभव को संग्रह करने के लिए नहीं है! राष्ट्र को इसलिए निर्धारित किया जाता है कि उसकी प्रतिभा बनी रहे! उसका मानवत्व उसका ॠषित्व ज्यो कर त्यो बना रहे! ऐसी धारणा राजा के हृदय में निहित रहनी चाहिए! तो देखो जब यह वाक्य राजाओं ने श्रवण कर लिया कि बुद्धिमान, बुद्धिजीवी प्राणियों की रक्षा होनी चाहिए! ऐसा जब भगवान राम ने वर्णन किया तो इतने में कुछ और जिज्ञासु आ पहुंचे! उन जिज्ञासुओ ने यह प्रश्न किया कि महाराज आप प्राण के संबंध में तो जानते ही हो! राम ने कहा मैं पुराण के संबंध में इतना नहीं जानता! परंतु देखो तुम मेरे से जानना चाहते हो! मैं इस का प्रयास करता रहूंगा! वह आसन पर शांत मुद्रा में विराजमान हो गए और अपने में यह कहा कि प्राण के संबंध में मैं इतना तो नहीं जानता! परंतु मैं इतना जानता हूं जो गुरुओं के चरणों में विद्यमान हो करके मैंने प्राण की कुछ सूक्ष्म विधा का अध्ययन अवश्य किया है! हमारे मानव शरीर में नाना प्रकार के प्राण अपना क्रियाकलाप कर रहे हैं! यह जो प्राण की प्रतिष्ठा है! उसको जान करके हमें यह निर्णय हो गया कि यह प्राण कहां चला गया! राजा ने कहा भगवन संभूति ब्रह्मवाचम् ब्रहे लोकाम् हिरणयम रथ: देवा:गत: प्रवाहनाण ब्रहे: वाचम ब्रहे अश्वती: मुद्रा' आचार्य कहते हैं कि हम यह और जानना चाहते हैं कि प्राण की प्रतिष्ठा क्या है? राम ने कहा इसको महर्षि लोमश जो भयंकर वनों में है बहुत अच्छी प्रकार जानते हैं! उनके एक सहपाठी कागभुषडं जी भी है! वह भी प्राण के संबंध में विशेष जानते हैं! ऐसा कहा जाता है कि कुछ समय के पश्चात वे दोनों भी कहीं से विचरण कर के राम के आश्रम में आ पहुंचे! उन्होंने उनसे नाना प्रकार की वार्ताओं को उदबुध कराया! परंतु ऋषि उस वार्ता को हृदय से अच्छी प्रकार जानते थे! तो देखो प्राण अपान की वार्ता चल रही थी! प्राण किसे कहते हैं! अपान किसे कहते हैं? सब भ्रमण करते हुए कागभूषण ऋषि के द्वार पर पहुंचे! ऋषि से कहा कि महाराज यह वाक्य हमसे दूर जा रहा है! कृपया इस पर अपना निर्णय दीजिए! ऋषि ने कहा क्या जानना चाहते हो? उन्होंने कहा प्राण को सखा बनाना चाहते हैं! प्राण के ही रूप में हम प्राण तत्व को जानना चाहते हैं! उन्होंने कहा क्या तुम नहीं जानते कि प्राण सका तो संसार के प्रत्येक आंगन में क्रीड़ा कर रहा है! तुम्हारी वाणी में भी क्रीड़ा कर रहा है! तुम्हारे शब्दों में देखो अशुद विज्ञान की प्रतिभा का जन्म हो रहा है! तो वहां से कुछ ने गमन किया! कागभूषण जी ने नाना प्रकार के गंभीरता से प्रसन्न होने लगे! उन्होंने कहा प्रभु क्या जानना चाहते हो! हमने कहा संभूति: ब्रहे ब्रह्मा वाच: प्रमाण लोकाम वायु: शरणं व्रही वृचाम् देवो शत्रुत:, भगवान राम ने और ॠषियो ने अपना निर्णय लिया कि मानव प्राण को अपान में, अपान को समान में, समान को व्यान में, व्यान को उदान में, निहित करता रहता है! इन पांचों का एक तारतम्य में लगा रखा जाता है प्राणो का तारतम्य हीं मानो यह सिद्ध कर रहा है! यह किसी स्थान में परिवर्तनशील होने जा रहे हैं! परंतु इसमें हमें यह सिद्ध हो गया कि यह प्राण जब तक एक दूसरे की आभा में निहित नहीं हो जाते हैं तो यह इंद्रियों का वहां वाचक विषय कहलाया जाता है! जितने प्राण को तुम सखा बना करके उसके साथ भ्रमण करोगे! तो वही अपान प्राण में और प्राण व्यान में और व्यान देवदत्त में इस प्रकार यह प्राणों की प्रतिभा का प्राय: वर्णन आता रहता है कि मैं प्रणायाम करना चाहता हूं!
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