गतांक से...
मेरे प्यारे मैं तुम्हें विशेष चर्चा प्रकट करने नहीं आया हूं! मैं व्याख्याता नहीं हूं! मैं तो सूक्ष्म सा परिचय देने चलाता हूं कि गुरु शिष्यों का इस प्रकार का संवाद रहा है! उस संवाद का परिणाम यह होता है कि वह राष्ट्र को नहीं चाहते, वह केवल कर्तव्य वाद को चाहते हैं! जो कर्तव्य वादी होते हैं वही तो संसार को उन्नत बनाते हैं! मुनिवर, हम अपने में अपनेपन को जानते हुए और अपनी इंद्री वर्णस्सुतम्, अपनी इंद्रियों के विषयों को जानते हुए! इस सागर से हृदय में प्रवेश होते हुए और वही हृदय का मिलान परमात्मा के हृदय से आह्वान होने से प्राप्त होता है! आज का विचार यह कह रहा है कि हम परमपिता परमात्मा की आराधना करते हुए! देव की महिमा का गुणगान गाते हुए इस संसार सागर से पार हो जाए! क्योंकि राष्ट्रवाद अपने में महान-पवित्रत्तव कहलाता है आज का वाक्य उच्चारण करने का अभिप्राय यह है कि राजा के राष्ट्र में विज्ञान भी इतना उधरवा में होना चाहिए! जिस विज्ञान को जानकर के संसार सागर से पार हो जाए! मेरे प्यारे विज्ञान एक नहीं अपने पूर्वजों का दर्शन करना है! विज्ञान के माध्यम से ही राष्ट्र की रक्षा करनी है! विज्ञान के माध्यम से ही अपनी क्रियाकलापों में तत्पर रहना है! विज्ञान के माध्यम से ही नाना प्रकार के यंत्रों का निर्माण करते हुए वह नाना प्रकार के लोक लोकांतरो का यात्री बन जाता है! यह है बेटा आज का वाक्य अब समय मिलेगा तो मैं तुम्हें शेष चर्चाएं कल प्रकट करूंगा! आज का वाक्य समाप्त होता है! अब वेदों का पठन-पाठन होगा!
रविवार, 20 अक्तूबर 2019
महर्षि वशिष्ठ का राष्ट्रवाद उपदेश
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