शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

महर्षि वशिष्ठ का राष्ट्रवाद उपदेश

गतांक से...
 भगवान राम ने कहा प्रभु मेरी दृष्टि में तो वही प्रसंग पुन: बना रहा कि यह राष्ट्रवाद क्या है, राष्ट्रवाद किसे कहते हैं? भगवान राम के शब्दों को श्रवण करते हुए महर्षि वशिष्ठ मुनि बोले राष्ट्रवाद का यह कर्तव्य कहलाता है कि वह मोह नहीं करें। अपने पुत्र-पुत्री वह ग्रह ऐसे स्वीकार करें जैसे राजा के राष्ट्र में और अन्य प्रजा होती है। प्रजा की भांति जब उसे दृष्टिपात करोगे तो प्रजा तुम्हारी हितकर बनकर तुम्हारे राष्ट्र को उन्नत करेगी। प्रजा और पुत्र दोनों में अंतर्द्वंद है, पुत्र तो कहते हैं ममता की मौह की कुंजी को और ग्रहणी 'सुथनम ब्रह्मा:' प्रजा कहते हैं। जो अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, वही तो प्रजा कहलाती है। माता-पिता को संतान देने से पूर्व संसार को संतान देने से पूर्व यह विचारना है। राष्ट्रवाद में यह आया है कि राजा पुत्र को उत्पन्न न करें, वह प्रजा को उत्पन्न करने वाला, वही प्रजा राष्ट्रवाद का चिंतन करने वाली बनती है। मेरे प्यारे उन्होंने कहा कि तुम्हारी राष्ट्र में प्रजा होनी चाहिए और पालक उसका राजा होना चाहिए। जिससे राष्ट्र अपनी आभा में उन्नत हो जाए। देखो विचार आता रहता है। वशिष्ठ ने कहा है कि हे राम, राष्ट्रवाद वह कहलाता है जब राजा अपने नियमों में पूर्णतव को प्राप्त होता है। प्रातकाल जब अंतरिक्ष तारामंडल अपनी छटा में हो उस समय राजा को भ्रमण करना चाहिए। उसके पश्चात अपनी शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त होकर, व्यायाम करें, योगासनों में अारुड हो इन क्रियाकलापों को करने के पश्चात राजा अपनी स्थली पर आता है। और वह चाहता है कि मेरे राष्ट्र में प्रत्येक प्राणी याज्ञिक बने और सुगंध का देने वाला हो। मेरे प्यारे देखो महात्मा ब्राह्मण कर्तम: देवात्मा:, हे राम ,बड़े प्रसन्न हुए उन्होंने कहा जब तक हम अपनी शारीरिक क्रियाओं को और जीवन को उन्नत नहीं कर सकते। विचारों में सुगंधी नहीं ला सकते। हम समाज को, राष्ट्र को ऊंचा नहीं बना सकते। उन्होंने कहा संभवत: प्रव्हे कृतम' जो वाणी में है वही क्रिया में है। जो क्रिया में है वही बॉणी में है। वही उसके हृदय में सदा बन करके रहती है। मेरे प्यारे, जब यह वाक्य उद्गीत रूप में गाया और यह कहा कि राजा में सबसे प्रथम नैतिकता होनी चाहिए। वैदिक विधाओं में उसे रमण करना चाहिए। जैसे देखो राष्ट्रवाद में नाना प्रकार की विधाओं का वर्णन आता रहता है। मेरी प्यारी माता में अपनी विद्या में पूर्ण हो कुछ संतान को जन्म देने वाली हो तो राष्ट्र उन्नत बनता है। मेरे प्यारे जब मैं त्रेता के काल में जाता हूं तो महात्मा दुर्वासा वेद के दृष्टा रहे हैं। वेद का दृष्टा वह होता है जो वेद के प्रत्येक मंत्र के गुणों को जानने वाला हो और उसको क्रिया मे लाने वाला हो। महात्मा दुर्वासा मुनि उसी प्रकार अपने में रत होते रहे हैं। मैं द्वापर में या दुर्वासा ऋषि के स्थान में नहीं जा रहा हूं। विचार केवल यह है कि वशिष्ठ की ही चर्चा कर रहा था। वशिष्ठ मुनि महाराज भी इस विद्या को जानते थे और इस विद्या को महाराज नल भी जानते थे। जिस विद्या को मृर्चीका रेणूकेतू भी जानते थे। वह विद्या कौन सी है। मेरे प्यारे देखो वेद मंत्रों का उदगीत गा रहा है और प्राण भी विद्या को जान रहा है। प्राण विद्या में आता है कि जब प्राण का अपन से मिलान किया जाता है। और उदान से सामान का और सामान को प्राण की प्रतिष्ठा में परिणत किया जाता है। तो हृदय में जो अग्नि का जो स्वरूप है वह अग्नि अपने में प्रचंड हो जाती है। और अग्नि प्राण रूप बनकर के दीपक राग के रूप में परिणत हो जाती है। गृह दीपावली बन जाता है। उसका राष्ट्र भी दीपावली बन जाता है। तो दीप मालिका बन करके एक माला बन जाती है। मेरे प्यारे मुझे स्मरण आता रहता है। इस विद्या को वशिष्ठ मुनि भी जानते थे। एक एक विद्या वह भी कहलाई जाती है माता के गर्भ स्थल में जब हम जैसे शिशु विद्यमान हो जाते हैं। तो माता यह चाहती है कि मेरा बालक पवित्र बन जाए। वह गुरुओं के समीप जाती है और कहती है। प्रभु मैं अपने गर्म से एक ब्रह्मावेता को जन्म देना चाहती हूं। एक तो वह पुत्र है, जो पुत्र है एक वह पुत्र है जो प्रजा है। और एक वह जो मुनि प्रवृत्ति वाले पुत्र को जन्म देने वाली है। जिसे हम ब्रह्मवेता कहते हैं। ब्रह्मनिष्ट कहते हैं।


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