गुरुवार, 12 सितंबर 2019

यमाचार्य नचिकेता वार्ता (धर्मवाद)

गतांक से...
इसलिए प्रत्येक मानव को प्रत्येक मेरी पुत्री को, प्रत्येक माता को, प्रत्येक ऋषि-मुनि को अपने जीवन में अनुसंधान की आवश्यकता है और प्रतिभा को प्राप्त करने की आवश्यकता है। जिससे यह संसार ऊंचा बनता है महान बनता है, पवित्र बनता है और उस पवित्रता को लाने के लिए मानव को तप की आवश्यकता होती है। यह है आज का हमारा वेद का ऋषि यह कह रहा है। आज के वेद के ऋषि की वार्ता को सुनकर के हमारी अंतरात्मा गदगद हो गई। यह कहा कि हम प्रत्येक रूप में यज्ञ करते हैं और यही हमारा धर्म है। और धर्म और मानवता का दोनों का घनिष्ठ संबंध रहता है। मानवता धर्म से ही संसार में ऊंचा बनता है धर्म में पिरोया हुआ है। यह संसार क्योंकि वाणी से लेकर के मानव की प्रत्येक इंद्रियां धर्म में पिरोई हुई है। एक सूत्र में पिरोई हुई है उन्हें कौन धारण करता है। जो जिज्ञासु होता है, जो विवेकी होता है। वही अपने मन में धारण करता है। अन्यथा इनको धारण नहीं किया जाता है। मैं विशेष चर्चा प्रकट करने नहीं आया हूं। आज मैं तुम्हें यह वाक्य प्रकट करने आया था कि प्रत्येक मानव, प्रत्येक देवकन्या को अपने जीवन को ऊंचा बनाना है। और मानवीय को महानता के मार्ग पर ले जाएं ।परमात्मा को प्राप्त होना है दर्शन को पाना है। हे मानव, मानव का दर्शन क्या है? मानव को अपने स्‍वत: अंतरात्मा में प्रवेश हो करके जाना चाहिए कि उसको स्‍वत: मानवीय दर्शन क्या है। अपने को जानना ही एक मानवता है जो यज्ञ हो रहा है। ब्रह्म समिधा स्वाहा कहकर के यज्ञ कर रहा है। स्‍वाहा का अभिप्राय क्या है जिससे अग्नि उद्धत होती है स्‍वाहा से अग्नि अद्भुत होती है। इस सवाल को हमने मेरे प्यारे आचार्य ऋषि-मुनियों ने वेद से जाना तो ऐसा कहा है कि जो मानव अग्नि के समीप विधमान होकर के स्‍वाहा कहता है। उसकी वाणी का परमाणु वाद जितने आकार का, वह मानव शरीर बना हुआ है उतने ही आकार का परमाणु वाद। मुनिवरो अग्नि की धाराओं पर विद्यमान हो करके वह अंतरिक्ष को प्राप्त हो जाता है। स्वाहा स्वच्छ होना चाहिए। स्‍वाहा ह्रदय से स्वच्छ होना चाहिए। जिससे कि वायुमंडल पवित्र बन जाए। ग्रह पवित्र बन जाए। मुझे स्मरण आता रहता है। मैंने वह अध्ययन किया हुआ अध्याय जो किसी काल में ब्रह्मा के पुत्र अथर्वा ने एक यज्ञ किया था। अपने गृह में एक यज्ञ किया था ।यज्ञ करने के पश्चात अपनी पत्नी से कहते हैं कि हे देवी एक संतान को जन्म देना है। जन्म देने से पूर्व एक यज्ञ करना है। उन्होंने छह माह तक ब्रह्मचर्य को धारण करके उन पति-पत्नी ने मुनिवरो देखो भयंकर वनों में संकल्प एकत्रित किया, औषधिया एकत्रित करने के पश्चात साकल्य एकत्रित करने के पश्चात उन्होंने यज्ञ किया और वह स्वाहा उच्चारण किया। स्वच्छ हृदय से,वेद मंत्रो से स्‍वाहा कहा, कहां व्यंजन आना चाहिए कहां स्वर होना चाहिए। यज्ञ करने के पश्चात उनके यहां एक महान बालक का जन्म हुआ। हमारे यहां यज्ञ की बहुत महिमा मानी गई है। प्रत्येक शुभ कर्म यज्ञ के द्वारा ही संपन्न होते हैं। आज का वाक्य अब हमारा समाप्त होने जा रहा है। वाक्य उच्चारण करने का अभिप्राय है कि हमें परमपिता परमात्मा की आराधना करते हुए इस संसार-सागर से पार हो जाना है अब वेदों का पठन-पाठन होगा।


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