गतांक से...
बेटा मैं बहुत दूर चला आया हूं, वाक्य उच्चारण करते-करते विचार-विनिमय यह चल रहा था कि प्रभु का विज्ञान है। यह इतना नितांत है कि मानव इसके ऊपर परंपरागतो से अनुसंधानकर्ता रहा है, अन्वेषण करता रहा है। तो महर्षि लोमश और कागभूषडं जी की चर्चा कर रहा था उनके जीवन की कुछ चर्चा के ऊपर कुछ विचार देने के लिए हम तत्पर थे। तो विचार यह दे रहे थे कि दोनों का अध्ययन प्राण के ऊपर गंभीर होता रहा है । इन्हीं प्राणों को लेकर के, सूर्य-चंद्र को लेकर के, चंद्रमा अमृत को बहाने वाला है। और सूर्यतेज को बहाने वाला है। प्रकाश को देने वाला है। जैसे सूर्य के प्रकाश से उदय होने पर नेत्र प्रकाशित हो जाते हैं। चंद्रमा के उदय होने पर रात्रि उसके गर्भ में प्रवेश कर जाती है। अंधकार चंद्रमा के गर्भ में प्रवेश करके अपनी कांति के द्वारा अमृत की वृष्टि करते रहते हैं। पृथ्वी के गर्भ में शीतलता आती है। कृषि उपजने लगती है, वनस्पति विज्ञान में अमृत का भरण हो जाता है। सूर्य प्रातकाल उदय होकर,उसको उसमें समावेश करा देता है। समावेश करके कृषि और वनस्पति विज्ञान वह स्वयं में सक्रिय बंद करके स्थिर बंद करके अपने कार्यों में रत हो जाता है। अपने गुणों को एक दूसरे के सहायक बना करके यह जगत ऐसी अब हमें दृष्टिपात आता है। जैसे इसमें प्रभु की सर्वत्र मेहती विद्यमान हो रही है। सर्वत्र प्रभु की मेहती दृष्टिपात आ रही है। हे मां, तू कैसी रथ बनी हुई है। इस सर्वत्र ब्रह्मांड को अपने में धारण कर रही है। यह ब्रह्मांड तेरी आनंदमई नौका में विद्यमान हो करके गति कर रहा है। अपने को पार करना चाहता है। तेरे ही आंगन में विद्यमान हो कर के जैसे रथ के बिंदु में भिन्न-भिन्न प्रकार की परमाणु एक ही रथ में विद्यमान है। एक बिंदु रूपी नौका में विधमान है। इसी प्रकार एक रेन केतु परमाणु होता है उस परमाणु को जब इस शरीर को त्याग करके आत्मा जाता है। तो एक रेन केतु और स्वाती प्रमाणु होता है। जो उसके अंतर्गत नाना प्रकार के परमाणु मानव का चित्र बन करके धौ लोक मे रथ हो जाते हैं। यह किस प्रकार का प्रभु का विज्ञान है? कैसी मेरी प्यारी माता है वह वसुंधरा जो हमें अपने में धारण कर रही है। लोक-लोकातंरो को अपने में धारण कर रही है। हम उस ममतामई के गर्भ में जाने के लिए, हम सदैव उत्सुक बने रहते हैं और यह चाहते हैं कि हम उस प्रभु की ममतामई आनंद लोरियो का पान करते हुए इस सागर से पार हो जाए। प्रत्येक मानव परंपरागतो से यही चाहता है। आनंद को प्राप्त करना चाहता है। कोई 'द्रव्य आनंदव् हे वाचदेवा:' जितनी मानवीय साधना है, मानवीय द्रव्य है। मंत्र साधना नहीं रहती है मैं कोई विशेष नहीं आया हूं मैं कोई व्याख्याता नहीं हूं। परंतु तुम्हें एक सूक्ष्म सा परिचय देने चला आता हूं और वह क्या है कि परमात्मा की प्रत्येक यज्ञशाला में विद्यमान है। यह जो जितना संसार है ब्रह्मांड है यह परमपिता परमात्मा की एक अनुपम यज्ञशाला है। यह है कि इसमें प्रत्येक मानव ब्रह्म जगत और अंतर जगत दोनों ही रूपों में बना हुआ है। अग्न्याधान करता हुआ। अग्नि के समीप कहता है। 'ब्रह्म अग्निदेवो ब्रहम वाचम् अग्नि' हे अग्नि तू ब्रह्म है, हे अग्नि तू प्रकाश को देने वाली है। हे अग्नि ज्ञान रूप बनकर के रहती है। हे अग्नि, कहीं तू कास्ठ में रहने वाली है। तेजोमहि बन करके तेरा उधरवा वह मुख रहता है। क्योंकि तेरा शाखा ही उधरवा में है तो इसलिए अग्नि तेरा उधरवा मुंख कहलाता है। हे अग्नि तेरी जिव्हाहों में देखो यजमान अपनी यज्ञशाला में विद्यमान हो करके तेरे मुख में कुछ अर्पित करना चाहता है। तेरे मुखारविंद में अर्पित करना चाहता है। क्योंकि तेरा मुंह ही तो है जो इस संसार को तेजोमहि बना रहा है। यजमान कुछ साकल्य देना चाहता है। कुछ अभी तेरे में प्रदान करना चाहता है। हे अग्नि तू ही तो इस पृथ्वी के गर्भ में विद्यमान हो करके स्वर्ण इत्यादि धातुओं का निर्माण करती है। हे अग्नि, जब तू उधरवा में अंतरिक्ष में औत प्रॏत होती है। तू वही तो अग्नि है जो परमाणुओं का आदान-प्रदान करके धौ मंडल का निर्माण कर रही है। कहीं धौमंडल का निर्माण, कहीं मानव कृतियों में दिशाओं का निर्माण हो रहा है। कहीं मुनिवर देखो, अंतरिक्ष में मानव के प्रत्येक प्राणी के चित्रों को ले करके उसमें गति कर रही है। प्रत्येक प्रणी चित्र शब्दों के साथ में अंतरिक्ष में विद्यमान रहते हैं। हे ब्रह्मा अग्नि, अग्नि जब तुझे कोई जानना चाहता है तो उन चित्रों का दिग्दर्शन करा देती है। जो चित्र देखो प्रत्येक मानव के अंतरिक्ष में विद्यमान रहते हैं।
रविवार, 29 सितंबर 2019
कागभूषडं-लोमस क्रियाकलाप
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