सोमवार, 2 सितंबर 2019

कर्तव्यवाद:यम नचिकेता वार्ता

कर्तव्यवाद
 मुनिवरो, पूर्व की भांति आपके समक्ष कुछ मनोहर वेद मंत्रों का गुणगान गाते चले जा रहे हैं। तुम्हें यह भी प्रतीत हो गया होगा कि आज हमने पूर्व से जिन वेद मंत्रों का पठन-पाठन किया है । हमारे यहां परंपरागत ही उस मनोहर वेदवाणी का प्रसार होता रहता है। जिस पवित्र वेद वाणी में मेरे देव परमपिता परमात्मा की महिमा का गुणगान गाया जाता है। क्योंकि वह परमपिता परमात्मा महान विज्ञान में रत रहने वाला है। जितना भी यह जगत मानवीय दृष्टिपात आ रहा है। उस सर्वत्र ब्राह्मण की आभा में वह परमपिता परमात्मा निहित हो रहे हैं। उसी में जिसके ऊपर मानव परंपरागत उसमे ही अनुसंधानकर्ता आ रहा है। विचार-विनिमय करता रहा है कि हम परमपिता परमात्मा के समीप जाना चाहते हैं। प्रत्येक मानव इसी विडंबना में नाना प्रकार की आभा में भ्रमण करता रहता है और कहीं न कहीं अपनी आभा में नियुक्त होता रहता है कि मैं उस परमपिता परमात्मा की आभा हूं। जिस प्रकार में घूमे विद्युत वास करती है  दृष्टिपात होने के बाद उसी में ओझल हो जाती है। उसी प्रकार उसमें अपने को ले जाओ उसमे ओझल हो जाओ। इसी प्रकार प्रत्येक मानव प्रकृति के आवेश में और प्रकृति के गर्भ में ओझल हो जाता है। परमपिता परमात्मा की आभा हम जानना चाहते है। परंतु जब संसार के नाना प्रकार के रूपों में रत होता है तो परमपिता परमात्मा के समीप में जाकर के वह प्रकृति के गर्भ में ही रमण करने लगता है। हमारा वेद मंत्र यह कहता है। हे मानव, यदि तू परमपिता परमात्मा को जानना चाहता है और उसके समीप जाना चाहता है। तुझे नाना प्रकार के इस प्रकृति के आवेशों को त्यागना होगा। प्रकृति को वह मानव त्‍याग आता है। जान लेता है यह इसकी जडवत प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्ति को जो नहीं जान पाता है। वह प्रकृति को नहीं जान सकता। प्रकृति के आवावेशो को नहीं जान सकता। इसलिए हमारे ऋषि मुनि परंपरागत उसे ही इसके ऊपर विचार विनिमय करते रहें। विचारते रहे हैं कि हम प्रकृति के उन आवेशों को त्यागना चाहते हैं। जिन आवेशों में मानव अपने को जडवत बना लेता है। ज्ञान और चेतना के स्थान में वह जडवत बन जाता है। जडवत को त्यागना है और चेतना को अपनाना है। जो चेतना लाने का प्रयास करता है। और जडवत को त्याग देता है ।वहीं मानव संसार में महान बनता है। इसलिए हमारे आचार्यों ने अनुसंधानवेताओं ने राष्ट्रवेताओं ने अपने राष्ट्र को त्‍याग करके भयंकर वनों में अपनी चेतना में सदैव तत्पर रहें, रत रहे हैं। मुझे आज  कुछ वाक्य स्‍मरण आ रहे हैं जिन वाक्यों को मैंने पुरातन काल में तुम्हारे सम्मुख प्रकट किया है। एक समय बेटा महॠषि साक्लय मुनि परमपिता परमात्मा के हृदय मन हो रहे थे। अन्वेषण करते हुए महर्षि साक्‍लय मुनि के समीप एक वाक्य आया कि मैं तपस्वी कैसे बनूंगा। भयंकर वनों में यह विचार कर रहे थे और मन को कह रहे थे। हेमन तपस्वी कैसे बनेगा? नाना प्रकार की प्रवृत्ति वाला जो मन है। उसको अपने में धारण करने के लिए मैं ऋषि साक्‍लय मुनि महाराज के मन मे एक निष्ठा बनी और तपस्या करने लगे। हमारे यहां तप के नाना प्रकार के प्रयायवाची माने गए हैं। परंतु वेद कुछ और कहता है। वेद का मंत्र कहता है। तप:तपश्‍चयम्‌ ब्रह्मावाचोः तप किसे कहते हैं प्रत्येक मानव तप की विवेचना जानना चाहता है। 'तपस्या ब्रह्मा' कहलाता है। जिसके द्वारा मानव इंद्रियों का शुद्धिकरण होता है। प्रत्येक मानव परंपरागत नाना प्रकार के अनुष्ठान करता रहता है। अनुष्ठानों में केवल वायु का सेवन करने लगता है। नाना प्रकार की वनस्पतियों को पान करता है और अपान बना रहता है। नाना प्रकार के रूपों में एक ही मंत्र में मन को पवित्र बनाना है। क्योंकि मन को पवित्र बनाने के लिए मानव कहीं वायु का सेवन करता है। कहीं सत्यवादी बना रहता है और मुनिवर कहीं मन के शोधन के लिए अलग वारी बन जाता है। नौदा में भक्त बन जाता है कहीं पित्र भक्ति करने लगता है। कहीं आचार्य अनुष्ठान में लग जाता है। नाना प्रकार के भाव में रत हो जाता है। परंतु मंतव्य सब का एक ही है कि मेरा मन पवित्र हो जाए। मेरे पुत्रों, मन को पवित्र बनाने के लिए ऋषि-मुनियों ने एक मार्ग बड़ा सा एकत्रित किया हैं । उन्होंने अपने वाक्यों में वेद के कुछ मंत्रों को लाने का प्रयास किया। वाक्य इस प्रकार आए हैं।अन्‍न ब्रह्म वाचप्रहे वक्तव्य लोका: वेद का वाक्य कहता है कि अन्‍न ब्रह्म के समीप ले जाता है। वेद का मंत्र कहता है अन ब्रह्म के समीप ले जाता है तो बेटा याद कैसा वेद का शब्द है इसके ऊपर जब अन्वेषण करते हैं ऋषि मुनि तो बेटा विचार आया कि मना: वाचो व्रतम ब्रह्मा वाचा: वेद का वाक्य कहता है कि उनके पवित्र होने पर मन में पवित्रता आती है। इसलिए 'अन्न ब्रह्मा' कहा गया है।


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