शनिवार, 28 सितंबर 2019

कागभूषडं-लोमस क्रियाकलाप

गतांक से...
शिशु एक बिंदु है और उस बिंदु में उस परमाणु का जब विभाजन करते हैं, तो उसमें सर्वत्र देवता विद्यमान रहते हैं। कौन देवता है? उसमें गति भी विद्यमान है, प्राण भी विद्यमान है, तेज भी विद्यमान है, गुरुत्व भी विद्यमान है। सर्वत्र ब्रह्मांड उसमें दृष्टिपात आता है। एक परमाणु में सर्वत्र ब्रह्मांड दृष्टिपात आ रहा है। जैसा यह ब्रह्म हमें ब्रह्मांड दृष्टिपात आ रहा है। तो इस ब्रह्मांड की कल्पना करते हुए उन्होंने कहा कि एक प्रकार का रथ है। वह माता कौन है, जो रथ ही है। जो रथ बनी हुई है। वह चेतना है वह मेरा प्यारा प्रभु है। उस रथ में सर्वत्र जीव विद्यमान है। लोक-लोकांतर उसने विद्यमान है। जैसे एक मधुमक्खी होती है। परंतु वह आवर्तयो में रमण करने वाली प्रत्येक मक्खियां उसकी परिक्रमा करती रहती है। इसी प्रकार कुछ परमाणु गति करते हैं जो रथ के रूप में विद्यमान है। यही विज्ञान जब ऋषि भारद्वाज मुनि के यहां प्रकट हुआ था। ब्रह्मचारी सुकेता ने यही कहा था कि महाराज यह जो एक वस्तु का बिंदु है। एक रथ के बिंदु में परमाणु है। विशेष और उस परमाणु के अंतर्गत नाना प्रकार के परमाणु गति कर रहे हैं और जो परमाणु गति कर रहे हैं। वह एक प्रकार का बिंदु रथ बना हुआ है। उस बिंदु रथ में ही मानव का चित्त विद्यमान रहता है। मेरे प्यारे, यह विशाल ज्ञान है प्रभु का। यही कागभूषडं जी और लोमस मुनि की अपने विद्यालय में इस प्रकार की चर्चाएं होती रहती थी। इस प्रकार का अनुसंधान होता रहता था। इन अनुसंधान की प्रवृत्तियों में मानव परंपरागत से रत होता रहा है।
 मैं तुम्हें कोई विशेष विवेचना देने नहीं आया हूं। विवेचना केवल यह देने के लिए आया हूं कि यह जो प्रभु का जगत है। यह जो प्रभु का ब्रह्मांड है। यह इतना अनंतवत्‍त माना गया है कि मानव चिंतन करता हुआ अंत में मौन हो जाता है। अंत में शिशु की भांति बाल्‍य प्रवर्ती में प्रवेश कर जाता है। इतना विशाल विज्ञान है प्रभु का। लोमस और कागभूषडं जी अपने स्थलों पर विद्यमान होकर के प्राण के ऊपर चर्चा करने लगे। उन्होंने कहा कि यह जो सूर्य प्राण है इसका संबंध सूर्य से होता है। चंद्र का जो चंद्र प्रणायाम में उसका संबंध चंद्रमा से होता है। चंद्रमा में अमृत है, शीतलता है और देखो सूर्य में तेज है प्रकाश है। ऊर्जा है तजोमई कहलाता है। परमाणु के आदान प्रदान की इसमें शक्‍ति है। यही शक्ति चंद्रमा में मानी गई है। परंतु देखो इन दोनों प्राण को हम अपने में जब ग्रहण कर लेते हैं। अपने अंतर जगत में ले जाते हैं और ब्राह्म जगत से परमाणुओं को ले लेते हैं। अंतर जगत से अशुद्ध परमाणुओं को त्याग देते हैं तो इससे हमें यह सिद्ध हुआ है कि हमारा प्राण संशोधन करने वाला है। प्राण गति को देने वाला है। प्राण सूत्र में दोनों एक समय प्राण को लेकर के पृथ्वी के गर्भ में प्रवेश कर गए। पृथ्वी के गर्भ में जो जल-अग्नि का भंडार है। 'अप्रतम्‌ ब्रह्मवाचा:' प्राण दोनों रूपों में परमाणु के लिए गति कर रहा है। कहीं वही प्राण अग्नि का भंडार बन करके, कहीं प्रांण जल का भंडार बनकर के, शिशु का भंडार बन करके। दोनों का आदान-प्रदान कर रहा है। उन्हीं परमाणु में सूर्य और चंद्र दोनों प्रकार के परमाणुओं से श्रवन का निर्माण हो रहा है। रत्नों का निर्माण हो रहा है। जल को शक्तिशाली बनाया जा रहा है। पृथ्वी के गर्भ में वसुंधरा के गर्भ में अग्नि का भंडार है। वहां अमृत का भंडार है। जिसके ऊपर मुनिवर वैज्ञानिकजनो ने जिन्होंने पृथ्वी के गर्भ में प्रवेश किया तो वहां नाना प्रकार के रत्नों का परमाणुओं का निर्माण हो करके धातु-पिपात का निर्माण हो रहा था। तो उन्हीं परमाणुओं का संबंध माता के गर्भ स्थल में एक बिंदु प्रवेश हुआ। उन्हीं धातुओं का संबंध चंद्र प्राण के ऊपर सूर्य स्वरों से ऊपर वही प्राण बनकर के नाना धातु के पिपात बनकर के इस मानव के शरीर का निर्माण हो रहा है।


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