सोमवार, 12 अगस्त 2019

विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग का आविर्भाव

विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग का आविर्भाव 
सूत जी कहते हैं, मुनिवर। अब मैं काशी के विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग का महत्व बताऊंगा। जो महापातको का भी नाश करने वाला है। तुम लोग सुनो इस भूतल पर जो भी वस्तु दृष्टिगोचर होती है। वह सच्चिदानंद स्वरूप निर्विकार एवं सनातन ब्रह्म स्वरूप है। अपने अद्वैत भाव में ही रमने वाले उन परमात्मा में कभी एक से दो हो जाने की इच्छा जाग्रत हुई ।फिर वही परमात्मा सगुण रूप में प्रकट हो शिव कहलाए। पुरुष और स्त्री दो रूपों में प्रकट हो गए। उनमें जो पुरुष था उसका शिव नाम हुआ और जो स्त्री हुई उसे शक्ति कहते हैं। उन चिदानंद स्वरूप शिव और शक्ति ने स्वयं अदृश्य रहकर स्वभाव से ही दो चेतना प्रकृति और पुरुष की सृष्टि की। मुनिवर, उन दोनों माता-पिताओं को उस समय आमने-सामने देखकर वे दोनों प्रकृति और पुरुष महान शंका में पड़ गए। उस समय निर्गुण परमात्मा से आकाशवाणी हुई। तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए। फिर तुमसे परम उत्तम सृष्टि का विस्तार हुआ। वह प्रकृति और पुरुष बोले प्रभु शिव तपस्या के लिए तो कोई स्थान है ही नहीं फिर हम दोनों इस समय कहां स्थित होकर आपकी आज्ञा अनुसार तप करें। तब निर्गुण शिव ने तेज के साथ भूत पांच कोष लंबे चौड़े शुभ एवं सुंदर नगर का निर्माण किया। जो उनका अपना ही समरूप था। वह सभी आवश्यक उपकरणों से युक्त उस नगर का निर्माण करके उन्होंने उसे उन दोनों के लिए भेजा। वह नगर आकाश में पुरुष के समीप आकर स्थित हो गया। तब पुरुष श्री हरि ने उस नगर में स्थित हो सृष्टि की कामना से शिव का ध्यान करते हुए बहुत वर्षों तक तप किया। उस समय परिश्रम के कारण उनके शरीर से स्वच्छ जल की अनेक धाराएं प्रकट हुई ।जिनसे सारा आकाश व्याप्त हो गया। वहां दूसरा कुछ भी नहीं दिखाई देता था। उसे देखकर भगवान विष्णु मन ही मन बोले कि यह कैसी अद्भुत वस्तु दिखाई देती है? उस समय इस आश्चर्य को देखकर उन्होंने अपना सिर हिलाया। जिससे उन प्रभु के सामने ही उनके एक कान से मणि गिर गई। जहां वह मणि गिरी जहां वह स्थान मणिकर्णिका नामक महान तीर्थ हो गया ।जब पूर्व मे जल राशि में वह सारी पंचकोशी डूबने और बहने लगी। तब निर्गुण शिव ने शीघ्र ही उसे अपने त्रिशूल के द्वारा धारण कर लिया। फिर विष्णु अपनी पत्नी प्रकृति के साथ वही सोए। तब उनकी नाभि से कमल प्रकट हुआ। उस कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए ।उनकी उत्पत्ति में भी शंकर का आदेश ही कारण था। उन्होंने शिव की आज्ञा पाकर अद्भुत सृष्टि आरंभ की ।ब्रह्मा जी ने ब्रह्मांड में 14 भवन बनाए। ब्रह्मांड का विस्तार महर्षियो ने 50 करोड़ योजन का बताया है। फिर भगवान शिव ने यह सोचा कि ब्रह्मांड के भीतर कर्म पास से बंधे हुए प्राणी मुझे कैसे प्राप्त कर सकेंगे ।यह सोचकर उन्होंने मुक्त दायिनी पंचकोशी को इस जगत में छोड़ दिया ।यह पंचकोशी काशी लोग में कल्याण बंधन का नाश करने वाली, ज्ञानदात्री तथा मोक्ष को प्रकाशित करने वाली मानी गई है ।मुझे परम प्रिय है यहां स्वयं परमात्मने अविमुक्त लिंग की स्थापना की है। अतः मेरे अंशभूत हरी तुम्हें कभी इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। ऐसा कहकर भगवान् काशीपुरी को स्वयं अपने त्रिशूल से उतारकर मृत्युलोक के जगत में छोड़ दिया। ब्रह्मा जी का 1 दिन पूरा होने पर जब सारे जगत का प्रलय हो जाता है। तब भी निश्चय ही इस काशीपुरी का नाश नहीं होता है। उस समय भगवान शिव के त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और जब द्वारा की जाती है। तब एक भूतल पर स्थापित कर देते हैं। काशी में अभी मुक्तेश्वर लिंग सदा विराजमान रहता है। वह महापातक पुरुषों को भी मोक्ष प्रदान करने वाला है। मुनीश्वर अन्य मोक्ष दायक धामों में आधी मुक्ति प्राप्त होती है। केवल इस काशी में ही जीवो को सायुज्य नामक सर्वोत्तम मुक्ति सुलभ होती है। जिनकी कहीं भी गति नहीं उनके लिए वाराणसी पूरी ही गति है। महा पुण्य पंचकोशी करोड़ों हत्याओं का विनाश करने वाली है। यहां समस्त अमरगण भी मन की इच्छा करते हैं। फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। यह शंकर की क्रिया नगरी काशी सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है।


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