मंगलवार, 13 अगस्त 2019

शिव-शक्ति तपस्या प्रसंग

ब्रह्मा जी कहते हैं, मुनि उधर सती ने अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को उपवास करके भक्ति भाव से सर्वेश्वर शिव का पूजन किया। इस प्रकार नंदा व्रत पूर्ण होने पर नवमी तिथि को दिन में ध्यान मग्न हुई। सति को भगवान शिव ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनका श्रीविग्रह सर्वांग सुंदर एवं गौर वर्ण का था। उनके पांच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन तीन नेत्र थे।उनके शीष में चंद्रमा शोभा दे रहा था उनका चित्त प्रसन्न और कंठ में नील चिन्ह दृष्टिगोचर होता था। उनके चार बांहे थी। उन्होंने हाथों में त्रिशूल ब्रह्म कपाल वर्ग तथा अभय धारण कर रखे थे। भस्‍म रमण में अंगराग से उनका सारा शरीर उद् घोषित हो रहा था। गंगा जी उनके मस्तिष्क की शोभा बढ़ा रही थी। उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे। वे महान लावण्य के धाम जान पड़ते थे। उनके मुख करोड़ों चंद्रमा के समान प्रकाशमान तथा आह्लाद जनक थे। उनकी अंग कांति करोड़ों कामदेव को तिरस्कृत कर रही थी। उनकी आकृति स्त्रियों के लिए प्रिय थी। सती ने ऐसे सौंदर्य माधुर्य से युक्त प्रभु महादेव जी को प्रत्यक्ष देखकर उनके चरणों की वंदना की। उस समय उनका मुख लज्जा से झुका हुआ था। तपस्या के पुण्य का फल प्रदान करने वाले महादेव जी उन्हीं के लिए कठोर व्रत धारण करने वाली सती को पत्नी बनाने के लिए प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए भी उनसे इस प्रकार बोले, महादेव जी ने कहा, उत्तम व्रत का पालन करने वाली दक्षियाणी, मैं तुम्हारे से बहुत प्रशन्‍न हूं। इसलिए कोई वर मांगो। तुम्हारे मन को जो अभीष्ट होगा, वही मैं तुम्हें दूंगा। ब्रह्मा जी कहते हैं, उन्हें जगदीश्वर महादेव जी यद्यपि सती के मनोभाव को जानते थे। तो भी उनकी बात सुनने के लिए बोले 'कोई वर मांगो' परंतु लज्जा के अधीन हो गई थी। इसलिए उनके ह्रदय में जो बात थी। उसे स्पष्ट शब्दों में कह ना सकी। उनका जो अभीष्ट मनोरथ था,वह लज्जा से आच्छादित हो गया। प्राणबल्लभ शिव का प्रिय वचन सुनकर सती अत्यंत प्रेम में मग्न हो गई। इस बात को जानकर भक्तवत्सल भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए और शीघ्रता पूर्वक बारम-बार कहने लगे। वर मांगो मांगो, पुरुषों के आश्रय भूत अंतर्यामी शंभू सती की भक्ति के वशीभूत हो गए थे। तब सती ने अपनी लज्जा को रोककर महादेव जी से कहा, वर देने वाले प्रभु मुझे मेरी इच्छा के अनुसार ऐसा वर दीजिए। भक्तवत्सल भगवान शंकर,दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका भक्तवत्सल शिव के बारंबार कहने पर ,सती बोली देवादीदेव महादेव प्रभु जगतपति आप मेरे पिता को कहकर वैवाहिक विधि से मेरा पाणीग्रहण करें।ब्रह्मा जी कहते हैं, नाराज सती की यह बात सुनकर भक्तवत्सल महेश्वर ने प्रेम से उनकी ओर देखकर कहा, प्रिय ऐसा ही होगा। तब तक सती भी भगवान शिव को प्रणाम करके भक्ति पूर्वक विदा मांग जाने की आज्ञा प्राप्त करके मुंह छिपाकर और आनंद से युक्त हो माता के पास लौट गई। त्रिशूल धारी महेश्वर के स्मरण करने पर उनकी सिद्धि से प्रेरित हो ब्रह्मदेव तुरंत ही उनके सामने आ खड़े हुए। तात, हिमालय के शिखर पर जहां सती के वियोग का अनुभव करने वाले महादेव जी विद्वमान थे। वही मैं सरस्वती के साथ उपस्थित हो गया। देवर्षि सरस्वती संहित देखा के प्रेम पास में बंधे हुए शिव उत्सुकता पूर्वक भोले। शंभू ने कहा, ब्राह्मण। मैं जब से विभाग के कार्य में स्वार्थ बुद्धि कर बैठा हूं। तब से अदभुत स्वार्थ में ही स्वस्थ सा प्रतीत होता है।दक्षकन्या सती ने बड़ी भक्ति से मेरी आराधना की है। उसके नंदा व्रत के प्रभाव से मैंने उसे अभीष्ट कर देने की घोषणा की है। ब्राह्मण, तब उसने मुझसे वर मांगा कि आप मेरे पति हो जाए यह सुनकर सर्वथा संतुष्ट हो मैंने भी कह दिया कि तुम मेरी पत्नी हो जाओ। तब दक्षायणी मुझसे बोली मेरे पिता को सूचित कर के वैवाहिक विधि से मुझे ग्रहण करे।ब्राह्मण भक्तों की भक्ति से संतोष होने के कारण मैंने उसका अनुरोध स्वीकार कर लिया है। विधाता। तब सती अपनी माता के घर चली गई और मैं आंचल आया। इसलिए अब तुम मेरी आज्ञा से दक्ष के घर जाओ और ऐसा करो जिससे प्रजापति दक्ष सती और हमारे विभागा निश्चय करें।


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