गुरुवार, 1 अगस्त 2019

न्यायपालिकाओ में अंग्रेजी का हव्वा क्यों?

ये है हमारे देश की कथित न्यायपालिका उच्च न्यायालय इलाहाबाद


संजय आजाद 


हमारे देश की कथित न्यायपालिकाओं में अंग्रेजी का हव्वा आखिर क्यों?


मातृभाषा हिंदी का आवेदन पत्र गायब कर अंग्रेजी का फरमान भेज दिया गया, आखिर कोई खास वजह है क्या भाई? जी हाँ, जहां के उप-निबंधक  द्वारा भेजा गया पंजीकृत लिफाफा जिसमें मेरे द्वारा पूर्व में अपनी मातृभाषा हिंदी में भेजे गए जन सूचना अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 6 (1 )  के आवेदन पत्र को गायब करते हुए मात्र एक पेज का अंग्रेजियत से परिपूर्ण अनाप-शनाप चिड़ीमार भाषा भरकर भेज दिया गया जिसे अभी अभी देखा। घरवालों ने बताया लिफाफा ऐसे ही डाकिया बाबू दे गए हैं। लिफाफे के भीतर संलग्नक के रूप में कुछ भी नहीं मिला तो मैंने अपने प्रिय डाकिया बाबू जी बात की तब उन्होंने बताया कि लिफाफा फटा ही था। इसपर मैंने हिदायत देते हुए कहा कि फटा या खुला लिफाफा कतई न दिया करें बल्कि अपनी प्यारी सी नोटिंग लिखकर  उसे संबंधित को वापस कर दिया करें। इसपर डाकिया बाबू ने सहमति जताते हुए आगे से ऐसा ही करने का आश्वासन दिया है। 


वैसे विदित कराना है कि मेरे  इसी आवेदन पत्र को पूर्व में भी हाईकोर्ट प्रशासन ने दो नामों का फर्जी का हवाला देकर बड़ी सफाई से खोलकर बाकायदा देखकर वापस कर दिया था। यानि इलाहाबाद हाईकोर्ट में खुलेआम फर्जीवाड़ा चल रहा है। मामला यहीं पर खत्म नहीं होने वाला है बल्कि यहां पर यह भी बताना अति आवश्यक हो गया है कि संपूर्ण भारतवर्ष के कार्यालयों में जन सूचना से संबंधित आवेदन पत्र का निर्धारित शुल्क रूपये 10/- ही लेने का प्रावधान है, परंतु हमारे देश की कथित न्यायपालिका यानि हाईकोर्ट इलाहाबाद में रूपये 10/- के नोट को इस निर्देश के साथ वापस कर दिया गया है कि उनके कार्यालय में 10/- के बजाय रूपये 250/- का शुल्क जमा करायें। अजीबोगरीब विडम्बना है इस देश की जहां कथित न्यायपालिका में ही  खुलेआम 10/- रूपये की जगह आम आदमी से 250/- रूपये की धनराशि वसूली जा रही है! 


मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हमारे देश की कथित न्यायपालिकाएं ही आम उत्पीड़ित जनता को ठगने में जरा भी कोर कसर नहीं छोड़ रही हैं। एक तरफ देश खासकर उत्तर प्रदेश सूचना आयोग द्वारा सरकारी भ्रष्टाचारी लुटेरों पर  अपनी भरपूर कृपादृष्टि बरसाई जा रही है तो वहीं दूसरी तरफ कथित न्याय के मंदिरों में बड़ी खूबसूरती के साथ आम उत्पीड़ित आदमी को अंग्रेजी की आंड़ में बुरी तरह से पागल बनाकर लूटा जा रहा है। ऐसे में यह कहना भी गलत नहीं लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं अंग्रेजियत के भीतर भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का बहुत बड़ा कुनबा छिपा बैठा हो? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं इसी डर से हमारी मातृभाषा को सन् 1947 से लेकर आज की तारीख में भी पूरी तरह से हम भारतवासियों से दूर रखा जा रहा हो? फिलहाल यह तो बहुत बड़ा सवालिया निशान लगता नजर आ रहा है कि अपने देश की कथित न्यायपालिका के ऊपर, जिसका जवाब दिया जाना देश और खासकर उत्तर प्रदेश की संवैधानिक संस्थाओं में कामिल-काबिज शख्सियतों का नैतिक कर्तव्य भी बनता दिखाई पड़ रहा है।


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