बुधवार, 7 अगस्त 2019

अवधूतेश्वर अवतार का वर्णन

नंदीश्वर कहते हैं, सनतकुमार! अब तुम परमेश्वर शिव के अवधूतेश्‍वर नामक अवतार का वर्णन सुनो। जिसने इंद्र के घमंड को चूर-चूर कर दिया था। पहले की बात है, इंद्र संपूर्ण देवताओं तथा बृहस्पति जी को साथ लेकर भगवान शिव का दर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत पर गए। उस समय बृहस्पति और इंद्र के शुभ आगमन की बात जानकर भगवान शंकर उन दोनों की परीक्षा लेने के लिए अवधूत बन गए। उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था, वह प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी होने के कारण महा भयंकर जान पड़ते थे ।उनकी आकृति बड़ी सुंदर दिखाई देती थी। वह राह रोक कर खड़े थे।बृहस्पति और इंद्र ने शिव के समीप जाते समय देखा, एक अद्भुत शरीर धारी पुरुष रास्ते के बीच में खड़ा है।इंद्र को अपने अधिकार पर बड़ा गर्व था। इसलिए वे साक्षात भगवान शंकर को नहीं जान सके। उन्होंने पूछा, तुम कौन हो? इस नगन अवधेश में कहां से आए हो? इंद्र के इस बारे में पूछने पर भी महान कर्म करने वाले अहंकार हारी महायोगी त्रिलोकी नाथ शिव कुछ नहीं बोले। इंद्र बोले, अरे मूड! तू बार बार पूछने पर भी उत्तर नहीं देता है। तुझे बज्र से मारता हूं। देखो, कौन तेरी रक्षा करता है। ऐसा कहकर उसकी और क्रोध पूर्वक देखते हुए इंद्र ने उसे मार डालने के लिए वज्र उठाया। यह देख भगवान शंकर ने शीघ्र ही उस वज्र का स्तंभन कर दिया। उसकी बांह अकड़ गई। इसलिए वह वज्र का प्रहार न कर सके। निरंतर वह पुरुष तत्कालीन क्रोध के कारण तेज से प्रज्जवलित हो चुका मानो इंद्र को जलाए देता हो। भुजाओं के स्तंभित हो जाने के कारण शचिवल्लभ इंद्र क्रोध से उस सांप की भांति जलने लगे। जिसका पराक्रम मंत्र के बल से अवरुद्ध हो गया। बृहस्पति ने उस पुरुष को अपने तेज से प्रज्जवलित होता देख तत्काल ही समझ लिया कि साक्षात भगवान 'हर' है। फिर तो वे हाथ जोड़कर प्रणाम करके, उनकी स्तुति करने लगे।स्तुति के पश्चात उन्होंने इंद्र को उनके चरणों में गिरा दिया और कहा दीनानाथ, महादेव। यह आपके चरणों में पड़ा है आप इसका और मेरा उद्धार करें। हम दोनों पर क्रोध नहीं, प्रेम करें। महादेव, शरणागत इंद्र की रक्षा कीजिए।आपके ललाट से प्रकट हुई यह आग इन्हें जलाने के लिए आ रही है। बृहस्पति की यह बात सुनकर अवधूत वेश धारी करुणासिंधु ,शिव ने हंसते हुए कहा, अपने नेत्र से रोष पूर्वक बाहर निकली हुई अग्नि को कैसे धारण कर सकता हूं? क्या सांप अपनी छोडी हुई केचुली को फिर ग्रहण करता है? बृहस्पति देव ,भक्त सदा ही कृपा के पात्र होते हैं आप अपने भक्तवत्सल नाम को चरितार्थ कीजिए और इस भयंकर तेज को कहीं अन्यत्र डाल दीजिए। रुद्र ने कहा, देवगुरु मैं तुम पर प्रसन्न हूं इसलिए इंद्र को जीवनदान देने के कारण आज से तुम्हारा एक नाम जीव भी होगा। मेरे नेत्र से जो यह आग प्रकट हुई है इसे देवता सह नहीं सकते। अतः इसको मैं बहुत दूर छोड़ दूंगा। जिससे कष्‍ट न दे सके। ऐसा कहकर अद्भुत अग्नि को हाथ में लेकर भगवान शिव ने समुद्र में फेंक दिया। फेंके जाते ही भगवान शिव का वह तेज तत्काल एक बालक के रूप में परिणित हो गया। जो सिंधु पुत्र जालंधर नाम से विख्यात हुआ। फिर देवताओं की प्रार्थना से भगवान शिव ने असुरों का वध किया। अवधूत रूप से ऐसी सुंदर लीला करने वाले,लोक कल्याणकारी शंकर वहां से अंतर्ध्यान हो गए। फिर सब देवता-संत निर्भय हो गये।एवं जिसके लिए उनका आना हुआ था मैं भगवान शिव का दर्शन पाकर कृतार्थ और अति प्रसन्नता पूर्वक अपने स्थान को चले गए। इस प्रकार मैंने तुमसे परमेश्वर शिव के अवधूतेश्वर अवतार का वर्णन किया है। जो दुष्टों को दंड एवं भक्तों को परम आनंद प्रदान करने वाला है। यह दिव्य वर्णन आपका निवारण करके स्वर्ग ,भोग ,मोक्ष तथा संपूर्ण मनोवांछित फल की प्राप्ति करने वाला है। जो प्रतिदिन एकाग्रचित्त हो इसे सुनाता है सुनता है। वह इस लोक में संपूर्ण सुखों का उपभोग कर के अंत में शिव की गति प्राप्त कर लेता है।


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