मंगलवार, 23 जुलाई 2019

पर्वत जलवायु को प्रभावित करते हैं

जलवायु विभाजक पर्वत मौसम संबंधी अनेक प्रकार की घटनाओं को प्रभावित कर सकते हैं। वे तड़ित झंझा, विक्षोभ और पर्वत तरंग उत्पन्न कर सकते हैं, जेट प्रवाह को विभाजित अथवा त्वरित कर सकते हैं, बर्फ के संचयन में मदद दे सकते हैं और वायु के बहने के पैटर्न को 'विकृत' कर सकते हैं।


जलवायु की दृष्टि से किसी क्षेत्र में पर्वतों की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। उस क्षेत्र का पर्वत पर स्थित होना (सागर तल से ऊंचाई पर स्थित होना) तो मौसम को प्रभावित करता ही है साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि यह पर्वत के किस ढाल-पवनाभिमुख (विंडवर्ड) ढाल अथवा प्रतिपवन (लीवर्ड) ढाल-पर स्थित है।


किसी स्थान की जलवायु को निर्धारित करने वाले कारकों की चर्चा करते समय मौसमवैज्ञानिक और भूगोलवेत्ता अक्सर ही क्विटो शहर का उदाहरण देते हैं। क्विटो दक्षिण अमेरिका के इक्वेडोर देश की राजधानी है और भूमध्यरेखा पर स्थित है। इसलिए उसकी जलवायु को सामान्यतः वर्ष भर गर्म और आर्द्र रहना चाहिए और वहां सर्दी की ऋतु होनी ही नहीं चाहिए। परंतु क्विटो एंडीज पर्वत की एक चोटी पर स्थित है जिसकी सागर तल से ऊंचाई काफी अधिक है। इसलिए सर्दी की ऋतु में वहां वायुमंडल का ताप इतना गिर जाता है कि पानी जमने लगता है।


इसी प्रकार हिमालय के अक्षांशों में ही स्थित मैदानी इलाकों में सर्दियों में ताप इतने नीचे नहीं गिरता कि पानी जम जाए। आप जानते ही हैं कि हिमालय की अधिकांश चोटियां सदैव बर्फ से ढंकी रहती हैं। इसका कारण हिमालय की ऊंचाई ही है।


ऊंचे पर्वत पर स्थित होने के फलस्वरूप किसी स्थान की जलवायु के अपेक्षाकृत अधिक ठंडी हो जाने का एक मुख्य कारण है धरती की सतह से परावर्तित होने वाली सौर ऊर्जा की काफी मात्रा का उस स्थान तक न पहुंच पाना। बादल और धूलकण जो वायुमंडल में अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर उपस्थित होते हैं, अंतरिक्ष की ओर परावर्तित होने वाली ऊर्जा की काफी मात्रा को पुनः धरती की ओर परावर्तित कर देते हैं। इसलिए ऊंचे क्षेत्र मैदानी क्षेत्र की अपेक्षा अधिक ठंडे रहते हैं। सर्दियों में अनेक ऊंचे क्षेत्रों में जलाशय जम कर बर्फ में परावर्तित हो जाते हैं। यह बर्फ उस क्षेत्र के ताप को और कम कर देती है क्योंकि बर्फ का ऐल्बिडो काफी अधिक, 70-90 प्रतिशत तक, होता है, अर्थात् बर्फ उस पर पड़ने वाली सौर ऊर्जा के 70-90 प्रतिशत भाग को परावर्तित कर देती है। इससे ऊंचे पर्वतों पर धरती की सतह बहुत कम गर्म हो पाती है। धरती की सतह के बहुत कम ऊष्मा प्राप्त करने के कारण उसके द्वारा परावर्तित की जाने वाली ऊर्जा की मात्रा भी कम होती है। फलस्वरूप धरती की सतह से परावर्तित होने वाली दीर्घ तरंगों से ऊंचे पर्वतों का वायुमंडल भी अपेक्षाकृत कम गर्म हो पाता है। ऊंचे पर्वतों पर वायुमंडल का दाब भी अपेक्षाकृत कम होता है।


किसी क्षेत्र की जलवायु पर उसके निकटवर्ती पर्वत की दिशा का भी अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। हमारे देश की उत्तरी सीमा बनाने वाला पर्वतराज, हिमालय, पूर्व-पश्चिम दिशा में स्थित है। अपनी स्थिति के फलस्वरूप ही वह गर्मी की मानसून पवन को तिब्बत में नहीं जाने देता तथा उनके संपूर्ण जलवाष्प भंडार को अपनी तलहटी में ही रिक्त करा देता है। इसी वर्षा के फलस्वरूप गंगा-यमुना के कछार में पर्याप्त वर्षा होती है और उत्तर की नदियों को पानी मिलता है। साथ ही उस बर्फ के लिए भी पानी मिलता है जो हिमालय की चोटियों पर सदा जमी रहती है। इस वर्षा की वजह से ही हिमनदियां बनती हैं। हिमालय की पूर्व-पश्चिम दिशा में स्थिति यदि मानसून पवन को भारत से बाहर नहीं जाने देती तो वह साइबेरिया और मध्य एशिया की बर्फीली पवन को भारत में आने भी नहीं देती। हिमालय की विशेष स्थिति के फलस्वरूप ही भारत की जलवायु इतनी सुखद है और तिब्बत की इतनी विषम। मौसम- वैज्ञानिकों के अनुसार दक्षिण-पूर्वी एशिया में गर्मी में मानसून की प्रबलता का श्रेय मुख्य रूप से हिमालय की विशेष स्थिति को ही है।


हमारे देश के ही दो अन्य पर्वतों, पश्चिमी घाट और अरावली की स्थितियां भी अपने निकटवर्ती क्षेत्रों की जलवायु की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। पश्चिमी तट के एकदम निकट, उत्तर-दक्षिण दिशा में, लगभग 1000 किमी. तक फैले पश्चिमी घाट की ऊंचाई 1 से 1.5 किमी. तक है परंतु वह दक्षिण-पश्चिम से आने वाली गर्मी की मानसून के मार्ग में “बाधा” उत्पन्न कर देता है। उसे पार करने के लिए इस पवन को ऊपर उठना पड़ता है और इस कोशिश में वह अपने जलवाष्प भंडार के बड़े भाग को वर्षा के रूप में त्याग कर लगभग “सूखी” हो जाती हैं। पश्चिमी तट पर स्थित मुंबई को वर्ष भर में लगभग 190 सेमी. वर्षा मिलती है, खंडाला जो 540 मीटर ऊंचाई पर स्थित है, 460 सेमी. और मुंबई से केवल 130 किमी. दूर परंतु पश्चिमी घाट के दूसरी ओर (प्रतिपवन ढाल पर) स्थित पुणे को मात्र 50 सेमी.।


यद्यपि अरब सागर से आने वाली गर्मी की मानसून राजस्थान के ऊपर से गुजरती हैं पर नमी के विशाल भंडार को संजोए रखने के बावजूद वह वहां बहुत कम वर्षा करती है। इस अल्प वर्षा के लिए बहुत हद तक अरावली पर्वत की स्थिति उत्तरदायी है। वह उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित है और मानसून के मार्ग में बहुत कम “बाधा” डालता है। फिर भी अरावली का दक्षिणी भाग कुछ हद तक मानसून पवन को वर्षा करने के लिए मजबूर कर देता है। इसीलिए माउंट आबू पर वर्ष भर में 170 सेमी. वर्षा हो जाती है जबकि उसके आसपास के मैदानी इलाकों में वर्ष भर में केवल 60 से 80 सेमी. ही है।


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