रविवार, 30 जून 2019

शंका-समाधान ( अध्यात्मिक मंथन)

(शंका- समाधान)


वेद अपौरुषेय है । धर्म और ब्रह्म में वेद ही एकमात्र प्रमाण है । वेद में प्रत्येक मन्त्र के ऋषि, देवताच्छन्द और विनियोग सुनिश्चित हैं । इन्द्र, आदित्य, वरुण, आदि देवता लोकाधिपति होते हैं । अश्विनीकुमार आदि देवता यजनीय होने पर भी लोकाधिपति नहीं हैं । किन्तु ये सब प्रकाशमान हैं कर्म फल के दाता हैं और द्युलोक स्थानीय हैं यही मुख्य देवत्व है । माता, पिता, राजा आदि में भी देव बुद्धि करने का उपदेश प्राप्त होता है । वे तो मर्त्य हैं । मनुष्य लोक के रहने वाले है । उनका देवत्व कैसे ? वस्तुतः गुणवृत्ति का प्रचलन लोक और वेद सर्वत्र है । विशेष प्रयोजन वश कहीं गुणवृत्तितः अदिव्य विषयों में भी शब्दित देवत्व वैदिक होता है । वहां देववृत्तिसे समादर ही अर्थतया प्राप्त है । अन्यथा अभिधेयार्थ-विप्लव हो जायेगा । और ऐसे प्रसंग में लक्षणया देवत्व भी अनुसंधेय नहीं है क्यों कि यागोपयोगी घटपटादि किसी भी पदार्थ की लक्षणा से देवत्व का संधान करते ही रहो ; जो अनावश्यक है । यह कोई वेदार्थ निर्णय की परिपाटी नहीं है ।
वैदिक कर्म या उपासना की संज्ञा , स्वरूप, द्रव्य, देवता, अधिकार और इतिकर्तव्यता षडंग-सहित वेद से ही सुनिश्चित है उस में सामान्य व्यतिक्रम असह्य है । लौकिक पूजापाठ में अधिकार, द्रव्य, देवता और मंत्र प्रभृति का स्वरूप अनिश्चित है और वह अनाप्त विषय भी है । सुतरां वह वैदिक उपासना के उपयोगार्थ अन्यथात्वेन सिद्ध है । कदाचित् शब्द साम्य के कारण वैदिक और लौकिक देवताओं में समता का भ्रम अविद्वानों को हो सकता है । परमाप्त वाङ्मय वेद में क्रम संशोधन के अभाव के कारण लौकिक उपासना का अन्तर्भाव कभी नहीं हुआ है । जनजातियों की क्रम विकशित विचारधारा कुछ वैदिकमन्य असंप्रदायवित् लोगों की मति को विवेकशून्य कर दे यह कोई बड़ा चमत्कार नहीं है । जो मनो भावना की प्रधानता से अनुस्ठित है और जिसके अभाव या विपरीत करण से कोई भी प्रत्यावाय संभावित नहीं होता है वह मनोरंजक ही तो है ।
आगम शास्त्रों में कोई भौतिक विषय को देवत्व प्रदान नहीं किया गया । वहां देवता ईश्वर के शक्ति रूप सूक्ष्म और दिव्य ही तो हैं । स्थूल लिङ्ग ,विग्रह ,यंत्र ,आदि देवता के स्मारक हो कर उपासना में उपयोगी हैं । प्रत्येक सम्प्रदाय के समयमार्गी उपासना में ये भी निरर्थक होते हैं ।
पुराण के विषय सर्वत्र वेदार्थ के अनुवादक नहीं होते हैं । कुछ लोग पुराण के अनेक विषयों को प्रक्षिप्त मानते हैं और कुछ लोग इसे विलुप्तार्थक या रहस्यार्थक मानते है । तब पौराणिक उपासना भी अगाम और निगम के प्रमाणाधीन हो कर निश्चय पदावगति को प्राप्त होती है ।
लैकिक उपासना को वैदिक उपासना का विकल्प या समकक्ष मान लेने पर कोई भी व्यवस्था नहीं बन पायेगी । लौकिक उपासना और कर्म में प्रामाण्य शंका का उन्मूलन कैसे होगा ? अनुष्ठान को प्रमाण मान भी लें तथापि कर्त्तव्य और प्रतिषिध्य का प्रमापक क्या होगा ? तो धर्माधर्म संदर्भ में असम्प्रदायवित् लोगों का आग्रह अस्वीकार्य है ।


सनातनी संदीप गुप्ता


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